नारी-व्यथा
(कविता)देह शक्ति में कमतर होना,अभिशापित मेरे लिए बना ।
होती थी आखिर हार यहीं, होता था अत्याचार घना ।।
नर- तन में कैसै कैसे ये,नर- पशु से नर्तन करते हैं ।
भीतर से श्वान व्याघ्र जैसे,बाहर से खूब संवरते है ।
वैवाहिक जीवन जुआ हुआ, क्या होगा कहना मुश्किल है ।
नर- तन में जाने कौन मिले, यह तो अनजानी मंजिल है 1
वाणी से हार नहीं मानू, तर्कों से धूल चटाती थी ,
दैहिक प्रहार से भूलुंठित ,अबला सब सहती जाती थी ।
अब मुझको भी अधिकार मिले, कुछ कानूनी हथियार मिले ,
अपने पावों पर खड़ी हुई , तो सम्बल के अम्बार मिले ।
अब समय सामने खड़ा हुआ,सम्मानित जीवन जीने का।
भूल हलाहल की पीड़ा को,यह मधुर सुधा रस पीने का,
पाटूँगी गहरी खाई को, छूकर नभ की ऊँचाई को ।
आलोडि़त कर पाऊँगी मैं , सागर भर की गहराई को ।
जन्म-घूँटी संग ही नर में, अब भाव यही भरने होंगे,
वस्तु नही वह मानव ही है, दुर्भाव सदा हरने होंगे ।
बेटी के संग बेटे को भी ,संस्कार नए देने होंगे ।
मानव को मानव समझ सके ,यह वचन सदा लेने होंगे ।
नारी को पीड़ा देना तो ,ईश्वर को पीडि़त करना है ,
लोरी में गीत बनाकर के ,हर नर के मन में भरना है।
कोई असुर नहीं माने तो ,आखिर हथियार उठाना है ।
उस सौम्य रूप को रखकर के ,फिर रणचंडी बन जाना है ।
फिर मदालसा हो घर-घर में, हो विदुला अरु जीजाबाई।
सब भाँति अभय हों जन ‘निरीह’,थर्राएं सभी आतताई ।
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