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Tuesday, 28 July 2020

यादें (कविता) - श्रीमती रमा भाटी

यादें
(कविता)
क्या है यादें
किसी अपने के साथ
बिताए वो प्यारे पल,
यां देखे थे वो सपने
जो कभी पूरे ना हुए।
क्या है यादें।

खुशियों भरे वो लम्हे
प्यार भरे वो पल,
जी लिया तो प्यारा साथ
खो दिया तो हैं यादें।
क्या है यादें।

वो तुम्हारी सादगी
वो जुस्तजू तुम्हारी,
वो उदासी भरा चेहरा
ना खुलकर जिए कभी।
क्या है यादें।

उम्र के इस पड़ाव में
याद आती है वो मीठी
कड़वी यादें,
वो एक दूसरे का रूठना मनाना।
क्या है यादें।

कभी तुम्हारा देर से घर आना
और मेरा झूठा गुस्सा दिखाना,
बुढ़ापे में गर साथ
होता हमारा।
क्या हैं यादें।

क्या होता है अपनों
को खोने का दर्द,
अश्क हैं की याद
में उनकी थमते नहीं।
क्या है यादें।
हां यही है यादें
हां यही है यादें।
-०-
पता:
श्रीमती रमा भाटी 
जयपुर (राजस्थान)

-०-


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भाईचारा (कविता) - लीना खेरिया


भाईचारा
(कविता)
ये हरी वसुंधरा सबकी ही है
है ये नील गगन सबका प्रिये
ये सुरभित सुमन सबके ही हैं
है पल्लवित चमन सबका प्रिये..

कभी किसी में भेदभाव नही करते
ये ऊँचे पर्वत ये नदिया ये सागर सब
ईश्वर की बनाई अद्वितिय प्रकृति ने
लोगों में फर्क किया है कब..

हे मानव तू कुछ सीख प्रकृति से
शॉंत चित हो कर विचार तो कर
वासुदेव कुटुम्बकम की प्रवृति को
तू ह्रदय में अपने उजागर तो कर

ऋषि मुनियों ने भी यही सिखाया
है ये विश्व विशाल परिवार समान
जो कोई भी इस धरा पर जन्मा
तू उसका अपना भाई बंद ही मान..
-०-
पता:
लीना खेरिया
अहमदाबाद (गुजरात)
-०-


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वेदना गान (कविता) - प्रीति चौधरी 'मनोरमा'

वेदना गान
(कविता) 
असहाय जीव हो गया अमानवीय कृत्यों का शिकार,
ऐसी 'असभ्य- साक्षरता' पर है मुझको धिक्कार।

तनिक हुआ न हृदय में कम्पन,नयनों में अश्रु नहीं आये,
ऐसे पाषाण हृदय वाले आखिर क्यों मानव जन्म हैं पाये,
क्या दोष था उस हथिनी का, जो भूख से थी अति व्याकुल?
  उदर की भूख तृप्ति का उसे फल प्राप्त हुआ बेकार,
 इंसानों पर भरोसा करके काया हुई जल- जल कर अंगार।

गर्भ में ही जीवित जल गया नन्हा हाथी शावक,
अंतर्मन को झुलसाए प्रतिपल दुःख की पावक,
यदि तुम किसी भूखे को भोजन नहीं दे सकते हो,
तो फल रूपी मृत्यु देने का भी नहीं तुम्हें अधिकार।
तुम्हारे अपराधों की सजा तुम्हें मिलेगी बारम्बार।

मनुज नहीं तुम दैत्य हो, न कहना स्वयं को मानव,
तुम्हारे क्रूर कृत्यों ने बना दिया तुम्हें दानव,
 हृदय प्रस्तर हो चुका तुम्हारा,जम गया है रक्तप्रवाह?
जो कर्ण असमर्थ रहे सुनने में, एक जीव का चीत्कार,
क्या तुम्हारे अंतस में ग्लानि का, होता नहीं हाहाकार?

हम जी रहे हैं अब कैसे निकृष्ट समाज में?
दृग झुक रहे हैं पीड़ा, संताप और लाज में,
 उस निरीह प्राणी की मूक पीड़ा आकाश से बरसेगी,
बनकर प्राकृतिक आपदाओं का असीमित भंडार।
 लम्हों की इस खता को सदियों भोगेगा संसार।
-०-
पता
प्रीति चौधरी 'मनोरमा'
बुलन्दशहर (उत्तरप्रदेश)


-०-


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प्रकाशक / अप्रकशक (व्यंग्य) - मधुकांत

प्रकाशक / अप्रकशक
(व्यंग्य)
रमेश --दिवाकर तुम प्रकाशक संघ की बैठक में इतनी जल्दी कैसे आ गए और अकेले कैंटीन में बैठे क्या कर रहे हो ? दिवाकर --रमेश जी यही लालच रहता है आप जैसे पुराने  प्रकाशको के साथ बैठकर कुछ सीख ले ली जाए ! रमेश ---तो बताओ तुम्हारा प्रकाशन कैसा चल रहा है?,,,, देखो एक बार बेरे को बुलाकर कुछ चाय पानी का ऑर्डर दे दो ,,,,,आज तो खाना भी नसीब नहीं हुआ । दिवाकर --रमेश जी मैं तो बाहर का कुछ खाता नहीं, आप अपनी पसंद का आदेश दे दे !
रमेश ने उंगली से बेरे को बुलाया ,दो चाय और एक प्लेट पकोड़े का आदेश दे दिया ।
--हां ,अब बताओ अपने प्रकाशन के बारे में ,,,।
दिवाकर-- क्या बताएं 2 वर्ष पूर्व 10 पुस्तकें प्रकाशित की थी! 20-20 पुस्तकें लेखकों को भेज दी ,शेष घर पर पड़ी है ! रमेश --दिवाकर यह बताओ तुम प्रकाशक क्यों बने ? दिवाकर --आप से क्या पर्दा ,कोई हमारी पुस्तकें प्रकाशित नहीं कर रहा था  तो दो पुस्तके अपनी तथा 8 पुस्तकें अपने साहित्यिक मित्रों की प्रकाशित कर ली।  रमेश-- देखो भैया, अधिक परेशान होने की आवश्यकता नहीं !सारा माल कल ही मेरी दुकान पर भिजवा दो जो तेरी कोस्ट आई है हमसे ले लेना ,,,,परंतु पेमेंट 6 महीने बाद में दूंगा ।
दिवाकर --मुझे क्या लाभ होगा?
रमेश --अरे तेरा गोदाम खाली नहीं हो जाएगा, एक दिन कबाड़ी को बुलाकर उठवाएगा उससे तो अच्छा है । दिवाकर --रमेश जी एक बात बताओ भविष्य में इस व्यवसाय की स्थिति क्या रहेगी ? रमेश --हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहेंगे !सरकार कहां चाहती है पुस्तके छपे ,पुस्तकालय खुले ,,,सब कुछ ई बुक्स पर पढ़ना -पढ़ाना चल पड़ा है । दिवाकर --यह बात तो सत्य है रमेश जी लेकिन अब  ओखल में सिर दे दिया है तो कोई रास्ता समझाओ। रमेश --रास्ता बहुत आसान है भैया फेसबुक पर अपने प्रकाशन की योजना बताओ  ,मक्खी की तरह लेखक भिन्न-भिन्नाते हुए आने लगेंगे ।पुस्तक के हिसाब से लेखक से खर्चा मांग लो ,कम से कम आधा
एडवांस ।कुछ पुस्तकें अपने पास  रख लो ,सरकार की खरीद-फरोख्त निकलती रहती है कुछ कमीशन सरकार लेती है बाकी अधिकारी के मुंह पर मारो ।शेष जितना बचा सकते हो उसे अपनी जेब में डालो।  दिवाकर --भाई साहब ,ये सब बातें मुझे कुछ हजम नहीं हो रही । रमेश --भैया कहीं तुम लेखक -वेखक तो नहीं रहे? दिवाकर --सब कुछ आपको बताया तो है ,अपनी दो पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए तो मैं प्रकाशक बना ! रमेश --सब समझ गए, अब आपको साहित्य का तोड़ समझा देता हूं यदि साहित्यकार कहलाना है तो इस प्रकाशन को ताला लगा दो और प्रकाशक बनना है तो ये भावनाएं ,संवेदनाएं बंद करके घौर व्यापारी बन जाओ । दिवाकर --और मेरा लाखों रुपया,,,,,,।
   रमेश -- चिंता मत करो अपने प्रकाशन को हमारी सिस्टर कंसर्न बना दो !आपका शौक पूरा होता रहेगा और हमारा धंधा !
कटु सत्य होते हुए भी दिवाकर बेहद असहज हो गया ।चाय पकोड़े लगभग समाप्त होने को थे ।वह तेजी से उठा!-- रमेश जी आप चाय समाप्त करें मैं फ्रेश होकर आता हूं !
रमेश जी पकौड़ो का आनंद ले रहे थे और दिवाकर बाथरूम की ओर न जाकर तेजी से मेट्रो पकड़ने के लिए निकल पड़ा !
-०-
पता:
मधुकांत
रोहतक (हरियाणा)
-०-
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