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Saturday 14 March 2020

सब को मैंने (कविता) - डॉ. दलजीत कौर


सब को मैंने
(कविता) 
भावनाओं को मैंने
पूर्णविराम दे दिया
उम्मीदों को मैंने
विराम दे दिया
खोल दिए कोष्ठक
रिश्ते -नातों के
बन्धनों को मैंने
आराम दे दिया
अपेक्षाएँ ,उपेक्षाएँ
मायने नहीं रखतीं
आज़ादी का मैंने
पैगाम दे दिया
तुम मिलो न मिलो
मैं आऊँ न आऊँ
संबंधो को मैंने
मुकाम दे दिया
गिरा दी सब दीवारें
झीना -सा पर्दा है बाकी
हर तरफ कोई
अल्प विराम दे दिया
कितने प्रश्न थे मन में
सब को मैंने जवाब से दिया
खुद पर है खुद का
इख़्तियार अब तो
हक़ खुद को मैंने
तमाम दे दिया-०-
संपर्क 
डॉ दलजीत कौर 
चंडीगढ़


-०-

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दफ़न दर्द (कविता) - राजीव डोगरा


दफ़न दर्द
(कविता)
दर्द लिखते लिखते
यूं ही बेदर्द हो चले।
मोहब्बत के सफर में
हम भी हर किसी के
हमदर्द हो चले।
दफन किया जब
दर्द को हमने सीने में
तो अंदर ही अंदर से
हम टूटते चलेगे।
और लबों पर हमारे
दर्द भरे
अफसाने फूटते चलेंगे।
बयां किया जब
दर्द को हमने,
तो लोग हमसे
रूठ के चलेगे।
और अपने,पराए लोग
हम से छुटते चलेगे।
-०-
राजीव डोगरा
कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
-०-




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कब तक? (लघुकथा) - ज्योत्स्ना ' कपिल'

कब तक?
(लघुकथा)
उसकी सूनी नज़रें कोने में लगे जाले पर टिकी हुई थीं । तभी एक कीट उस जाले की ओर बढ़ता नज़र आया। वह ध्यान से उसे घूरे जा रही थी।

" अरे ! यहाँ बैठी क्या कर रही हो ? हॉस्पिटल नही जाना क्या ?" पति ने टोका तो जैसे वह जाग पड़ी।

" सुनिए , मेरा जी चाहता है की नौकरी छोड़ दूँ । बचपन से काम कर - कर के थक गई हूँ । शरीर टूट चला है । साथी डॉक्टरों की फ्लर्ट करने की कोशिश , मरीज और उनके तीमारदारों की भूखी निगाह , तो कभी हेय दृष्टि , अब बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया है । " आशिमा ने याचना भरी दृष्टि से पति को ताका।

" पागल हो गई हो क्या ? बढ़ते बच्चो के पढ़ाई के खर्चे, फ्लैट और गाड़ी की किस्तें । ये सब कैसे पूरे होंगे ? " 

" मुझे बहुत बुरा लगता है जब डबल मीनिंग वाले मजाक करते हैं ये लोग। इन सबकी भूखी नज़रें जब अपने शरीर पर जमी देखती हूँ तो घिन आती है । "

" हद है आशिमा, अच्छी भली सरकारी नौकरी है। जिला अस्पताल में स्टाफ नर्स हो। अभी कितने साल बाकि हैं नौकरी को । तुम्हारे दिमाग में ये फ़ितूर आया कहाँ से ? थोडा बर्दाश्त करना भी सीखो । " झिड़कते स्वर में पति ने जवाब दिया।

" चलो उठो,आज मैं तुम्हे ड्रॉप करके आता हूँ " उन्होंने गाड़ी की चाभी उठाते हुए कहा। आशिमा की निगाह जाले की ओर गई तो देखा वह कीट जाले में फंसा फड़फड़ा रहा है और खूंखार दृष्टि जमाए एक मकड़ी उसकी ओर बढ़ रही है।

" नहीं " वह हौले से बुदबुदाई, फिर उसने आहिस्ता से जाला साफ करने वाला उठाया और उस जाले का अस्तित्व समाप्त कर दिया।
-०-
पता - 
ज्योत्स्ना ' कपिल' 
गाजियाबाद (उत्तरप्रदेश)

-०-

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दौड़ निरन्तर (ग़ज़ल) - अमित खरे

दौड़ निरन्तर
(ग़ज़ल)
दौड़ निरन्तर जारी है
अपनों की बीमारी है
खींचेंगे ये टाँग वक्त पर
इनकी ही हकदारी है
मन्दिर में जो लूट हुई थी
हिस्सेदार पुजारी है
दुनिया का जादू ऐसा है
दुविधा में नर नारी है
दीवाली पर ग़म में डूबा


हारा हुआ जुआरी है
-०-
अमित खरे 
दतिया (मध्य प्रदेश)
-०-




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समझोता (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

“समझोता”
(कविता)
“समझोता दिल का दिमाग़ से “
दिल से बात की,
सोचा दिमाग़ से।
दोनो की दोस्ती करा,
मिली अपने आप से।
दिल थोड़ा शर्माया,
दिमाग़ सकुचाया,
धीरे धीरे दोनो ने,
अपना अपना हाथ आगे बढ़ाया।
हाथ मिलाया।
पूछा इक दूजे से,
कैसे हैं आप?
दोनो ही थे,मिलने को बेताब।
दिमाग़ थोड़ा मुस्कुराया,
दिल बोला,”मुस्कुरा क्यों रहे हो?
अंदर ही अंदर किस चिंता से घिरे हो?
दिमाग़ ने कहा,
एक बात कहूँ? ध्यान दोगे ?
अपनी ही हाँकोगे या मुझसे भी कुछ काम लोगे?
मैंने कहा,”दोनो एक घर में रहते हो,
फिर क्यों दूरियाँ हैं?
मिल कर नहीं रह सकते?
क्या मजबूरियाँ हैं।
क्यों जुदा जुदा हो?
एक दूजे से ख़फ़ा हो।
सिर्फ़ एक फ़ुट की दूरी है,
वो भी नहीं पाटते हो,
कुछ सोचते समझते नहीं,
अपनी अपनी हाँकते हो।
दोनो को पास बैठाया,
प्यार से समझाया,
समझोता कराया।
अपने अपने शब्दों में,
भावनाओं के रंग भर दो,
एक दूजे को सम्पूर्ण कर दो।
दोनो का महत्व बढ़ेगा,
दिल माँनेगा,सुनेगा।
दिमाग़ भी सक्रिय होने से
पीछे नहीं हटेगा।
दोनो की दूरी का रास्ता ,
पलों में पटेगा।
कुछ दिल की सुनो,
कुछ दिमाग़ लगा लो,
वरना दिल ओर दिमाग़ की दूरियाँ
बढ़ती चली जाएगी।
ये एक फ़ुट की दूरी तय करने में,
उम्र बीत जाएगी।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
-0-


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