जो हंसकर साथ निभायेगा
(कविता)
मानवता को खो देते हैं, जो खुद को मानव कहते हैं।
चन्द रूपयों की गर्मी पाकर, जानें किस मद में रहते हैं।
भूल जाते है सच जीवन का, श्वप्न में जीते रहते हैं।
भूला के जीवन जीना अपना, मद में डूबे रहते हैं।
नहीं जानते दुनियादारी, ना ही रिश्तेदारी को।
सुखी जीवन मे अपने, परिवार की हिस्सेदारी को।
भूल गए हैं जीवन में, एक ऐसा समय भी आयेगा।
जब विधाता आसमान से, उनकों जमीं पे लाएगा।
तब घुटनों पर बैठेगा, कोई मार्ग नजर नहीं आयेगा।
हाथ पांव जब साथ न देगें, और बुढ़ापा आयेगा।
पैसा कितना भी होगा पर, काम किसी ना आयेगा।
केवल अपना परिवार ही होगा, जो हंसकर साथ निभायेगा।
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अजय कुमार व्दिवेदी
अजय कुमार व्दिवेदी
दिल्ली
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