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Saturday, 16 January 2021

जो हंसकर साथ निभायेगा (कविता) - अजय कुमार व्दिवेदी

 

जो हंसकर साथ निभायेगा
(कविता)
मानवता को खो देते हैं, जो खुद को मानव कहते हैं।
चन्द रूपयों की गर्मी पाकर, जानें किस मद में रहते हैं।

भूल जाते है सच जीवन का, श्वप्न में जीते रहते हैं।
भूला के जीवन जीना अपना, मद में डूबे रहते हैं।

नहीं जानते दुनियादारी, ना ही रिश्तेदारी को।
सुखी जीवन मे अपने, परिवार की हिस्सेदारी को।

भूल गए हैं जीवन में, एक ऐसा समय भी आयेगा।
जब विधाता आसमान से, उनकों जमीं पे लाएगा।

तब घुटनों पर बैठेगा, कोई मार्ग नजर नहीं आयेगा।
हाथ पांव जब साथ न देगें, और बुढ़ापा आयेगा।

पैसा कितना भी होगा पर, काम किसी ना आयेगा।
केवल अपना परिवार ही होगा, जो हंसकर साथ निभायेगा।
-०-
अजय कुमार व्दिवेदी
दिल्ली
-०-


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✍️किसान/अन्नदाता✍️ (कविता) - डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया

  

✍️किसान/अन्नदाता✍️
(कविता)
धरती पुत्र संत-सा है किसान ,
अरु परिश्रम का पर्याय किसान ।
अवनी पर का उदार अन्नदाता ,
जीव मात्र का है जीवन दाता ।

खेत-खलिहान है जीवन तर्पण ,
फसल उपहार समाज को अर्पण ।
आठों प्रहर है प्रकृति का साथी ,
सुख-दुख में भी अपनों का साथी ।

आँधी-तूफान सीने में धरता ,
ठंड-धूप,बारिश से नित लडता ।
भाल का तिलक खेत की मिट्टी ,
रज-स्वेद से रिक्त तन की मिट्टी ।

स्वेद परिश्रम है देह की शोभा ,
अरु भाल पर की अनेरी आभा ।
दिल में थामे दीनता की हूक ,
कभी नहीं खोला है अपना मुख ।

बाहों में कर्म,मन में प्रभु प्रीत ,
किया संसार को जीवन समर्पित ।
सुख-समृद्धि का किया उसने त्याग ।
दान-पुण्य का अनूठा अनुराग ।

तप से श्रेष्ठ है उसका वो कर्म ,
साधु-संतों से है उमदा धर्म ।
जीयो व जीने दो के है संस्कार ।
अन्नदाता से ही जीवित संसार ।।
-०-
पता:
डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया
सौराष्ट्र (गुजरात)

-०-

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कुछ लोग जो जीते हैं (कविता) - डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'

 

कुछ लोग जो जीते हैं
(कविता)
कुछ लोग जो जीते हैं , खेतों पै रमा करते हैं
उगाते हैं फसल नेह की , ईमान जमा करते हैं 

भोर की किरण फूटी , लगी बजने बैलों की घंटी 
गैया लगी है रंभान , प्यासे खेत और खलिहान हैं 
सौंधी - सौंधी गंध को , माटी है अकुलानि 
कहे बार - बार बारे , वारि ही पुकारी है 
पुलक प्रफुल्ल कहे , धरती को अंग - अंग 
साँचो - साँचो वीर मेरो , याहि हलधारि है 
निज खून - पसीने से , दुनिया की दुआ करते हैं 

तपे जेठ की दुपहरी , तके साँझ और सकारी 
लौट आये श्रमहारी , पंखा झले घरवारी है 
झूठ लागे किलकारी , नैन लाडो भरे वारि 
रात करे जब ब्यारी , हिस्से आवे ना तरकारी है 
जिंदगी की आस लिये , साँस - साँस प्यास लिये 
सींचते सँवारते , जीवन की फुलवारी है 
गम सौ - सौ मिले फिर भी , खुश हो के जिया करते हैं 

खेत की मड़ैया में , गाँव की अमरैया में 
ठंडी पुरवैया में , स्वर्ग का सुख पाते हैं 
खेतों में बाल पके , हँसे मन थके - थके 
नई सरगम बनाते हैं 
वहीँ कहीं छाँव तले , पत्तों की बाँसुरी से ,
 नई राग छेड़ जाते हैं 

अमृतमय बोलों से , रसगान किया करते हैं 
कुछ लोग जो जीते हैं , खेतों पै रमा करते हैं 
उगाते हैं फसल नेह की , ईमान जमा करते हैं l 
-०-
डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'
(राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित)
कटनी (म. प्र.)


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