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Wednesday, 20 November 2019

बोझ (लघुकथा) - डॉ० भावना कुँअर सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)

बोझ
(लघुकथा)
रीमा ने बेटी को बड़े ऑपरेशन से जन्म दिया,बड़ी बेटी अब आठ साल की हो चुकी थी, बड़ी मन्नतों से आज उसके चमन में फिर से फूल खिला था। कैसे-कैसे समय काटा इस बच्ची के वक़्त सोचकर ही कलेजा मुँह को आता है।जाने कितनी बार हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा और हर बार डॉक्टर भी यही कहते कि शायद ही बचा पायें । पूरा समय बिस्तर पर ही बिताया; तब जाकर आज ये दिन नसीब हुआ। अब भी बच्ची समय से पहले ही इस दुनिया में लानी पड़ी ; वरना ये फूल भी खिलने से पहले ही मुर्छा जाता।इस बीच एक बेटा भी हुआ था ; जो डॉक्टर की कमी के कारण इस दुनिया को इस माँ को देखे बिना ही चला गया। कितना मासूम था उसका चेहरा जैसे कह रहा हो क्या कसूर था मेरा और मेरी माँ का जो ये मिलन अधूरा रहा? 
अपने बेटे के चले जाने के बाद जैसे-तैसे सँभाला था रीमा ने खुद को।डॉक्टर की भी हिदायत थी कि एक साल के अन्दर बच्चा होता है; तो रीमा की जान को खतरा है और एक साल से ज़्यादा देर करने पर शायद इस आँगन में फिर कभी फूल ही न खिले।ठीक एक साल बाद इस नन्हीं परी का जन्म हुआ ख़ुशी से आँखे भर आई थीं रीमा की।सब कह रहे थे-गुलाबी परी उतरी है ज़मीन पर बहुत प्यारी !! "बहुत प्यारी" ये आवाज कानों में गूँज रही थी । अभी बच्ची को रीमा को नहीं दिया गया था। बच्ची को वेन्टीलेटर में रखा गया था। एक तो बच्ची पंद्रह दिन पहले पैदा हुई थी, ऊपर से कमज़ोर और कई बीमारियों से घिरी थी, पंद्रह दिन उसको वेन्टीलेटर पर ही रखना था। 
डॉक्टर का कहना था कि चाहो तो माँ को घर ले जाएँ और माँ आती रहे बच्ची से मिलने पर बच्ची को यहीं रखना होगा जो रीमा को कतई मंजूर नहीं था।इन्हीं ख्यालों में घिरी थी कि पति की आवाज़ सुनकर तन्द्रा टूटी। 
वे कह रहे थे-"बहुत आराम हो गया! अब उठो कल से ही अपनी जॉब पर जाना शुरु कर दो। दूसरी लड़की आ गई है,अब ज़िम्मेदारीऔर बोझ और ज्यादा बढ़ गया है।" 
यह सब सुनकर रीमा की आँखे छलक गईं। मन सिसकियाँ भरने लगा । भला ये नन्हीं सी जान क्या किसी पर बोझ बन सकती है?
-०-
डॉ० भावना कुँअर 
सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)

-०-

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व्यर्थ (व्यंग्य लघुकथा) - रामकुमारी करनाहके 'अलबेली'

व्यर्थ

(व्यंग्य लघुकथा)
‌हनुमान : ‌राम सीता के मिलन के लिए स्वर्ण लंका जला दी मैंने, ‌वे छोटी-सी शंका से जीत न पाए| संघ फिर भी रह  न पाए |

‌सीता : ‌यह कैसी दुविधा है ,पवित्रता की सजा है ,मिलन से अच्छा बिरहा था, दिल तो एक दूसरे के करीब था|
‌राम : ‌तुम्हें तो अग्नि जला ना पाई सारी उष्णता मेरी ही भीतर आई!
सीता : ‌कुछ अनकहा सा दर्द है?
हनुमान : ‌न जाने यहाँ कौन श्रेष्ठ है ? रावण जो सीता छू न पाया ! श्री राम जो उलझन सुलझा ना पाए! लगता है लंका दहन व्यर्थ हुआ--- रावण का बेवजह ही अंत हुआ...।
-०-
रामकुमारी करनाहके 'अलबेली'
नागपुर (महाराष्ट्र)
-०-


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कसक (मुक्तक कविता) - रेशमा त्रिपाठी

कसक
(मुक्तक कविता)
“व्यक्ति के अंदर स्वयं से टकराने की अहम भावना
जो उसके उत्तेजित स्वर द्वारा व्यक्त होती हैं वह हैं ‘कसक'
मनुष्य के असमर्थता का भाव समर्थता में प्रदर्शित करने की
गतिविधि की क्रियान्वित विधि हैं ‘कसक'
वर्ग विहीन समाज की कल्पना में
गतिशील मानव के विकास की बाधा में 
उत्पन्न होने वाले टकराव का भाव हैं ‘कसक'
धनलोलुपता निरीह जनता के शोषण के विरुद्ध
उठने वाली आवाज को दमन करती हुई रेखा में
प्रस्फुटित न हो पाने वाला स्वर् हैं ‘कसम'
हृदय के उद्गार को स्वच्छंद रूप से 
अभिव्यक्ति न दे पाने का भाव हैं ‘कसक'
अपने और अपनों के बीच 
स्पष्ट दृष्टिकोण न रख पाने का भाव हैं ‘कसक'
छल और प्रवचन में ऐश्वर्यवादी मनुष्य का
दास बनने का भाव हैं ‘कसक'
सामंती व्यवस्था को देर तक
न सहन कर पाने का भाव हैं ‘कसक'
दंडनीय कार्यों का न्याय न कर पाने पर
विधाता का आवाह्न करने का भाव हैं ‘कसक'
स्वयं के आंतरिक द्वंद से
जूझने की प्रक्रिया हैं ‘कसक'
राष्ट्रहित में धर्मनिरपेक्षता को
स्वतंत्र रूप से प्रकट करने की क्रिया में 
लोगों द्वारा आती हुई प्रतिक्रिया में जागृत भाव हैं ‘कसक'।"-०-
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)


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कौन सा योग करें (गीत) - राजपाल सिंह गुलिया


कौन सा योग करें
(गीत)
भूख लगे ना हमें भूप जी ,
कहो कौन सा योग करें .

चिपक गया है पेट पीठ से ,
देह आज कंकाल हुई .
बिना योग के बढ़ती बिटिया ,
बनकर खड़ी सवाल हुई .
कैसे मन को मारें , कैसे ,
सुख सुविधा उपभोग करें .

पीला सोना मंडी आकर ,
पाँव तले सबके पिसता .
घाव दिया है पनही ने जो ,
रोज रात को है रिसता .
दिया नमक था दवा बताकर ,
क्या उसी का प्रयोग करें .
रामू रहमत बन बैठे हैं ,
जात धर्म के दोय धड़े .
रामखिलावन घूरे सबको ,
जिस दिन से हैं वोट पड़े .
प्रेमभाव क्यों घटा जनों में ,
गठित आप आयोग करें .
-०-
राजपाल सिंह गुलिया
झज्जर (हरियाणा)
 -०-
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कंठ मुखर हो जाता है (कविता) - डॉ मीनाक्षी शर्मा 'लहर'


कंठ मुखर हो जाता है
(कविता)
कंठ तब होता मुखर है,
भाव जब होता प्रखर है,
भीतर बवंडर डोलता है,
और हृदय ये बोलता है।

टीस हर अपनी छुपा ले,
सिसकियां गहरी दबा ले,
वेदना आँखों से बहती,
बांध तोड़ तोड़ कहती,
उंगलियों के बीच अब तू,
ले कलम यूँ खींच अब तू,
अश्रुओं को दे के वाणी,
अब सुना भी दे कहानी,
सृजन पा जाता शिखर है।
भाव जब होता प्रखर है।।

जग को करने दे किनारा,
स्वयं को दे कर सहारा,
पाँव अब आगे बढ़ा दे,
आंधियों को भी हरा दे,
आगे की सुध ले ज़रा तू,
होठों पर एक धुन सजा तू,
पूरा करना होगा कह कर,
लक्ष्य फिर एक बार तय कर,
उम्र कब गुज़री है रो कर,
ठोकरों को मार ठोकर,
जग पे भी होता असर है।
भाव जब होता प्रखर है।।
-०-
डॉ मीनाक्षी शर्मा 'लहर'
 ग़ज़ियाबाद, उ.प्र.
-०-
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मेरे उद्धरण (क्षणिका) - ओट्टेरी सेल्वाकुमार

मेरे उद्धरण
(क्षणिका)
इस आकाश के नीचे
मेरा सपना उड़ रहा है
हाँ यह आपके लिए है
आज ही नहीं
कल के लिए
पता: 
ओट्टेरी सेल्वाकुमार
चेन्नई (तमिलनाडु)
-०-

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इल्म रखना (हाइकु गीत) - अनिला राखेचा


इल्म रखना
(हाइकु गीत)

ढ़लता रवि
साँझ का पल्लू लिये
तुमसे मिली

करवट ली
और तुम आ गए
जिंदगानी में

बेहतरीन
लम्हों का करवाँ ले
वक्त आ गया

सूनेपन को
कैद करवा दिया
कारागार में

थिरक उठी
रुकी जिंदगी मेरी
लेते बलैयाँ

बीज बो दिए
बंजर जमीं पर
इसरार के

कारनामे जो
तुमने दिखलाए
जज्बातों भरे

जी उठी पुन:
और पड़ गई मैं
तेरे प्यार में

रास्ते दूर थे
मंजिलों का भी न था
कोई ठिकाना

तुमको माना
खुदा हमने अब
इल्म रखना

इल्तजा मेरी
बस वफा निभाना
दूर ना जाना !!
-०-
अनिला राखेचा
कूचबिहार (पश्चिम बंगाल)


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