बोझ
(लघुकथा)
(लघुकथा)
रीमा ने बेटी को बड़े ऑपरेशन से जन्म दिया,बड़ी बेटी अब आठ साल की हो चुकी थी, बड़ी मन्नतों से आज उसके चमन में फिर से फूल खिला था। कैसे-कैसे समय काटा इस बच्ची के वक़्त सोचकर ही कलेजा मुँह को आता है।जाने कितनी बार हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा और हर बार डॉक्टर भी यही कहते कि शायद ही बचा पायें । पूरा समय बिस्तर पर ही बिताया; तब जाकर आज ये दिन नसीब हुआ। अब भी बच्ची समय से पहले ही इस दुनिया में लानी पड़ी ; वरना ये फूल भी खिलने से पहले ही मुर्छा जाता।इस बीच एक बेटा भी हुआ था ; जो डॉक्टर की कमी के कारण इस दुनिया को इस माँ को देखे बिना ही चला गया। कितना मासूम था उसका चेहरा जैसे कह रहा हो क्या कसूर था मेरा और मेरी माँ का जो ये मिलन अधूरा रहा?
अपने बेटे के चले जाने के बाद जैसे-तैसे सँभाला था रीमा ने खुद को।डॉक्टर की भी हिदायत थी कि एक साल के अन्दर बच्चा होता है; तो रीमा की जान को खतरा है और एक साल से ज़्यादा देर करने पर शायद इस आँगन में फिर कभी फूल ही न खिले।ठीक एक साल बाद इस नन्हीं परी का जन्म हुआ ख़ुशी से आँखे भर आई थीं रीमा की।सब कह रहे थे-गुलाबी परी उतरी है ज़मीन पर बहुत प्यारी !! "बहुत प्यारी" ये आवाज कानों में गूँज रही थी । अभी बच्ची को रीमा को नहीं दिया गया था। बच्ची को वेन्टीलेटर में रखा गया था। एक तो बच्ची पंद्रह दिन पहले पैदा हुई थी, ऊपर से कमज़ोर और कई बीमारियों से घिरी थी, पंद्रह दिन उसको वेन्टीलेटर पर ही रखना था।
डॉक्टर का कहना था कि चाहो तो माँ को घर ले जाएँ और माँ आती रहे बच्ची से मिलने पर बच्ची को यहीं रखना होगा जो रीमा को कतई मंजूर नहीं था।इन्हीं ख्यालों में घिरी थी कि पति की आवाज़ सुनकर तन्द्रा टूटी।
वे कह रहे थे-"बहुत आराम हो गया! अब उठो कल से ही अपनी जॉब पर जाना शुरु कर दो। दूसरी लड़की आ गई है,अब ज़िम्मेदारीऔर बोझ और ज्यादा बढ़ गया है।"
यह सब सुनकर रीमा की आँखे छलक गईं। मन सिसकियाँ भरने लगा । भला ये नन्हीं सी जान क्या किसी पर बोझ बन सकती है?
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डॉ० भावना कुँअर
सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)
सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)