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Wednesday, 14 October 2020

अंधेरे शहर में (ग़ज़ल) - नदीम हसन चमन

अंधेरे शहर में
(ग़ज़ल) 
अंधेरे शहर में रौशनी की दुकान है
ग़म की किताब में ख़ुशी दास्तान है

फरिश्तों को शिकायत नहीं ख़ुदा से
किस क़दर दुनिया में गुम इंसान है

ज़मीन की प्यास का करे अंदाज़ा वो
जिसके हाथों में सबका आसमान है

किस तरह क़रीब आये तुम्हारे दिल
कुछ नहीं मेरे पास इक मेरी जान है

हवेली महल हीरे जवाहरात कल भी थे
मगर बाक़ी रही किसकी पहचान है

नहीं मयस्सर पानी हर आदमी को
बस बिक रहा सस्ता  यहाँ ईमान है

घर तो काग़ज़ पर नज़र आता है
जिधर देखता हूँ उधर मकान है

वफ़ा दिल में लब पे सदाक़त आज भी
शख़्स ऐसा नदीम बहुत नादान है
-०-
पता
नदीम हसन चमन
गया (बिहार) 
-०-


***
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सुदर्शन चक्र उठाने की (कविता) - अजय कुमार व्दिवेदी

 

सुदर्शन चक्र उठाने की
(कविता)
सत्ता को दोषी कहने और पुलिस को गाली देने से।
नहीं मिलेगा इंसाफ तुम्हें यूं अबला बनकर रोने से।

संविधान लिखने वाले ने कसर नहीं कुछ छोड़ी थी।
लगता है अपराधियों के साथ में उसकी अच्छी जोड़ी थी।

कानून बनाया इतना गन्दा न्याय तुम्हें मिले कैसे।
जब अपराधी घुमें बाहर तो फूल कहीं खिलें कैसे।

क्यूँ हाथों में पोस्टर लेकर सड़कों पर निकलते हो।
उन्हीं हाथों से खुद तुम न्याय क्यूँ नहीं करते हो। 

बलात्कार जैसी घटनाओं पर भी राजनीति करने वालों। 
जात पात के नाम पर अक्सर एक दूजे से लड़ने वालों। 

जात धर्म के नाम पर शहर जला देते हो तुम। 
फिर क्यूँ नहीं ऐसे कुकर्मी को जड़ से मिटा देते हो तुम। 

जिस राज्य का राजा अन्धा हो वहां दुर्योधन शीष उठाता है। 
भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्र हरण करवाता है। 

भीष्म पितामह जैसे ज्ञानी जहाँ मौन रह जाते हो। 
कृपाचार्य और गुरू द्रोण एक शब्द नहीं कह पाते हो।

उस सभा में है जरूरत सुदर्शन चक्र उठाने की।
ना की नपुंसकों भाँति सबके मौन रह जानें की।
-०-
अजय कुमार व्दिवेदी
दिल्ली
-०-


***
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राम यही है (कविता) - अ कीर्तिवर्धन

राम यही है
(कविता)
राम यहीं हैं खुद के भीतर, देखो खुद पहचान कर,
रावण भी तो रहते संग संग, पहचानो पहचान कर।
क्यों करते हो प्रतीक्षा तुम, देवलोक से कोई आये,
पहले खत्म करो निज भीतर, रावण को पहचान कर।
कोई करता पाप कर्म, रावण ही तो कहलाता,
बेईमान और भ्रष्टाचारी, मेघनाथ सम बन जाता।
बलात्कर करने वालों के, जो हमदर्द बने बैठे,
मारीच और सुबाहु, कुम्भकरण बन इठलाता।
-०-
पता: 
अ कीर्तिवर्धन



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पर्यावरण दिवस (कविता) - प्रीति चौधरी 'मनोरमा'

 

पर्यावरण दिवस
(कविता) 
पर्यावरण दिवस पर धरा का दुल्हन सा श्रृंगार करें,
वृक्षारोपण करें, पतझड़ को हम बहार करें।

वृक्ष हमारे होते हैं सभी जीव जंतुओं के मित्र,
इनकी छाँव है अनुपम, सौंदर्य भी है विचित्र,
वृक्षों की देखरेख करके जीवन का उद्धार करें।
पर्यावरण दिवस पर धरा का दुल्हन सा श्रंगार करें...

कोई रुग्ण न होवे जग में,बाधा न आवे मग में,
हरियाली हो आच्छादित कोई शूल न चुभे पग में,
हम दया सुधा से रोगी मानवता का उपचार करें।
पर्यावरण दिवस पर धरा का दुल्हन सा श्रंगार करें...

कलम को बनाकर साथी,जीवन दर्शन लिख देवें,
विटप को पोषित करने की समाज को सीख देवें,
आओ व्यक्त हृदय के अनकहे सभी उद्गार करें।
पर्यावरण दिवस पर धरा का दुल्हन सा श्रृंगार करें।

 पादप संरक्षण में प्रतिभाग करें सब मिलकर,
उद्यान बन जायेगी बंजर धरा भी खिलकर,
भौतिकवादी सोच पर आओ प्रहार करें।
पर्यावरण दिवस पर धरा का दुल्हन सा श्रंगार करें..

वृक्ष ही होते हैं शुद्ध प्राणवायु के  वाहक,
मानव जाति बनी है क्यों इनकी संहारक?
आज प्राथमिकता से इस विषय पर विचार करें।
पर्यावरण दिवस पर धरा का दुल्हन सा श्रृंगार करें..

स्नेह हस्त से साफ़ करें हम प्रकृति के अश्रु,
बिना तरुवर छाया के निराश्रय हैं निरीह पशु
सर्वत्र हरियाली हो व्याप्त, न कोई हाहाकार करे।
पर्यावरण दिवस पर धरा का दुल्हन सा श्रृंगार करें...
-०-
पता
प्रीति चौधरी 'मनोरमा'
बुलन्दशहर (उत्तरप्रदेश)

-०-


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फुर्सत के क्षण (आलेख) - सुनील कुमार माथुर

फुर्सत के क्षण
(आलेख)
कामकाजी , मैहनती , कलाप्रेमी बालिकाएं व महिलाएं फुर्सत के समय केवल बेकार की गपशप कर अपना कीमती समय बर्बाद न करें अपितु इस खाली समय में बैठकर वे कढाई - बुनाई  , कसीदाकारी  , पेंटिंग, सिलाई - बुनाई कर समय का सदुपयोग कर सकती है 

प्राचीन समय में घूंघट प्रथा के चलने के बावजूद भी महिलाएं व बालिकाएं घर के कामकाज से निपटने के बाद फुर्सत के समय में फालतु न बैठकर इस अमूल्य समय में वस्त्रों पर कढाई  , कुर्ते पर सुन्दर डिजाइन, पर्दे  , मेजपोश , टी वी कंवर, तकिये की खोली पर कसीदाकारी, आइल पेंट से ड्राईग रूम की दीवारों, कमरे की छत , मकान की फर्श पर भी नयनाभिराम सरल , सुन्दर व आकर्षक बेले , पेंटिंग व नाना प्रकार की डिजाईन का कार्य करती थी । वहीं ओढनी पर भी अपनी कला दिखाकर उस पर चार चांद लगाती थी व मन पसंद धागे से कढाई करती थी ।

मगर आज समय बदल गया हैं । कई परिवारों में घूंघट प्रथा खत्म हो चुकी है और स्त्री व पुरूष दोनों आज नौकरी पेशा हो गये हैं । पति - पत्नी दोनों कमाते है । धन की कोई कमी नहीं है । आज बाजार में हर चीज उपलब्ध हैं बस पैसा फैको और तमाशा देखों की कहावत चरितार्थ हो रही हैं । 

पैसे के अंहकार ने बाजार में हर चीजों के दाम बढा दिये है । पांच रूपये की वस्तु आज बाजार में सौ रूपये में बेची जा रही हैं । इससे पैसे वालों पर कोई फर्क नहीं पडता है लेकिन गरीब  व मध्यम वर्गीय परिवार के लिए समस्या पैदा हो जाती हैं और बाजार में एक बार दाम बढ जायें तो फिर कम होने के कोई आसार नहीं है ।

बढती मंहगाई का एक कारण यह हैं कि आज कामकाजी महिलाएं मेहनत से जी चुराती हैं । वे कढाई  - बुनाई  , कसीदाकारी, पेंटिंग के बजाय क्लब संस्कृति को अपना रही हैं जहां केवल गपशप व खाना पीना व एक - दूसरे की खीचतान के आलावा कुछ नहीं है और पैसे की बर्बादी आलग से ।

ऐसी महिलाओं का तर्क है कि जब बाजार में सभी चीजें आसानी से उपलब्ध है तो यह सिर दर्द क्यों मोल ले । लेकिन वे यह भूल जाती हैं कि हम अपने हुनर का गला घोट रहें है । जबकि जरूरत इस बात का हैं कि इस प्रतिस्पर्धा के युग में आप अपने हुनर व प्रतिभा को निखारे । अपने हाथों से बनाई कलाकृति, डिजाइन, पेंटिंग, कसीदाकारी, कढाई- बुनाई का अपना एक अलग ही महत्व है । 

चूंकि इससे मन में प्रसन्नता का भाव आता हैं । कला में निखार आता हैं । अपनी चार सखी सहेलियों को बताने से हमें भी चार नई बातें जानने को मिलती हैं । अतः फुर्सत के समय का सदुपयोग करनें के कार्य की शुरुआत अपने घर से कीजिए व फिर आडौस पडौसी की जोडिये एवं फिर समूह बनाकर अपना कारोबार शुरू कर आत्मनिर्भर बनें । 

कार्टूनिस्ट चाॅद मोहम्मद घोसी ने मेहनती , कामकाजी व कलाप्रेमी बालिकाओं व महिलाओं के लिए सरल , सुन्दर व आकर्षक बेले, फैब्रिक पेंटिंग, आइल पेंटिंग, गले के लिए कुर्ते पर सुन्दर डिजाइन, वस्त्रों पर नमूने के अनेक डिजाइन बनाकर देश भर में की पत्र - पत्रिकाओं में अपने डिजाइन भेज कर बालिकाओं व महिलाओं के लिए रोजगार का रास्ता खोल कर एक सकारात्मक सोच आज से करीब चार दशक पूर्व शुरू की थी वह आज भी  लगातार जारी हैं । बस जरूरत है बालिकाएं व महिलाएं फुर्सत के समय का सदुपयोग करें और इसे आत्मसात कर आत्मनिर्भर बनें ।
-०-
सुनील कुमार माथुर ©®
जोधपुर (राजस्थान)

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