*** हिंदी प्रचार-प्रसार एवं सभी रचनाकर्मियों को समर्पित 'सृजन महोत्सव' चिट्ठे पर आप सभी हिंदी प्रेमियों का हार्दिक-हार्दिक स्वागत !!! संपादक:राजकुमार जैन'राजन'- 9828219919 और मच्छिंद्र भिसे- 9730491952 ***

Tuesday, 18 August 2020

मैं ठहरा आदत से मजबूर!! (कविता) - अमन न्याती

मैं ठहरा आदत से मजबूर!!
(कविता)
छत पर कुर्सी लगा ,
रात का सर्द मौसम, ठंडी हवा,
चाँदनी बिखेरता वो आसमाँ का चाँद,
नज़ारे को आँखों मे भर,
कुछ पल के लिए आँखे बंद की मैंने,
बड़ा बेचैन , सुकून ढूंढने की कोशिश में लगा था,
तभी एक शख्श की जुल्फे चेहरे से टकराई,
ना जाने कैसे? हवा में खुशबू और बढ़ने लगी,
मानो किसी फूल को छूकर आ रही हो,
उसका हाथ मेरे हाथ में, उसका सर मेरे काँधे पर,
कभी मुस्कराती ,कभी गुस्सा करती,
वो अपने पूरे दिन का हाल मुझे सुनाने लगी,
मैं बड़ा बेहाल सा उसके हर हाल को सुनने लगा,
मानो सुकून मुकम्मल सा हो रहा हो मेरा,
सब्र का बांध मानो जैसे टूटने को ही था,
मैंने अपनी आंखें खोल डाली,
सब कुछ एक क्षण में ओझल ,
बड़ी बेबसी से मैने उस चाँद को,
और चाँद ने मुझे हँसते हुए देखा,
मानो मुझे कह रहा हो,
क्या जरूरत थी आंखे खोलने की ,
जब एक चाँद खुद तुम्हारे करीब था,
मगर मैं करता भी तो क्या,
आदत से जो मजबूर ठहरा!!
आदत से जो मजबूर ठहरा!!
-०-
पता :
अमन न्याती
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान)

-०-

***
मुख्यपृष्ठ पर जाने के लिए चित्र पर क्लिक करें 

लौकडाउन में धरती पर भगवान ! (लघुकथा) - सुरेश शर्मा

लौकडाउन में धरती पर भगवान !
(लघुकथा)
"बापू ! आज लौकडाउन का उन्नीसवाॅ दिन है, आज भी ना माँ को भरपेट खाना मिला न ना तुम्हे, और ना ही मैं कुछ खा पाई हूं ।" 'आखिर कब हम लोग इस तरह
गुजारा करेंगे? '
" सरिता बेटी ! मुझे तो चिंता इस बात की है कि तेरी माँ बीमारी की वजह से मरे या ना मरे , मगर भूख से जरूर मर जाएगी , पता नही यह कौन सी बीमारी को चाइना वालों ने हमारे पास भेज दिया और हम सभी लोगों को तकलीफ में डाल दिया । जो लोग पैसे वाले है वह लोग तो अपनी सुख सुविधा जुटा हीं लेते है , मरते हमलोग है दिन मजदूरी करने वाले लोग ।"
" बापू ! भूख से तो हर रोज मेरे पेट में ऐंठन होने लगती है तो एक ग्लास पानी पीकर भूख मिटाती हूं ।"
"क्या करें बेटी ! समय बहुत खराब चल रहा ,देश की परिस्थिति भी बहुत खराब है।"
"बापू ! आखिर कब तक चलेगा ऐसा , सरकार की तरफ से भी कोई मदद नही मिल रही है ।"
"ऐसी बात नही है बेटी ! सरकार हर तरफ से मदद कर रही है , लेकिन हम हीं वहां तक नही पहुंच पा रहे है ।" 
'मोहल्ले मे तो हर रोज सरकारी तथा निजी संस्थाएं मदद देने के लिए चावल , दाल तथा अन्य खाने योग्य सामग्री लेकर तो आ ही रहे है, लेकिन हम ही पुलिस के मार-धार के डर से वापस घर आ जाते है ।'
"लेकिन बापू! घर का राशन खत्म हो गया है और माँ की दवाई भी कितने दिनो से नही है, आज जैसे भी हो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा ।"
"ठीक है सरिता बिटिया ! माँ की दवाई की पर्ची भी दे और एक झोली भी दे, आज जैसे भी हो सामान और तेरी माॅ की दवाईयाँ दोनो लेकर ही आउंगा ।"
रामलाल सरिता से झोली और अपनी पत्नी की दवाई की पर्ची लेकर घर से निकल पड़ा ।
रामलाल शहर के पास के ही एक मोहल्ले मे ही अपनी बीमार पत्नी और अपनी बेटी के साथ रहता था । वह रिक्शा चलाकर अपने छोटे से परिवार की देखभाल करता था ।
लगभग एक घंटे बाद रामलाल वापस अपने मोहल्ले मे बहुत सारा खाने का सामान तथा अपनी पत्नी की दवाई लेकर लौट आया ।
सरिता को अपने घर के दरवाजे पर किसी की आने की आहट सुनाई पड़ी, वह झट से उठी और दरवाजा खटखटाने की आवाज सुन वह दरवाजा खोल दी । दरवाजे के बाहर रामलाल बहुत सारा सामान लेकर खड़ा था । सरिता के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी और आश्चर्य भी हुई ।
" बापू ! इतना सारा सामान ! तुम कहां से लेकर आए ?"
" बेटी ! इस दुनिया में बहुत सारे ऐसे फरिश्ते है जिसे हम सहज ही पहचान नही पाते है । आज ऐसे ही एक फरिश्ते ने खाने का सारा सामान और तेरी माॅ की दवाई भी खरीद कर दी ।"
सरिता यह बात सुनकर फट से घर के अन्दर जाकर भगवान के फोटो के सामने नतमस्तक होकर बोली " भगवान ! आज तेरा लाख लाख शुक्र है , नही तो पता नही हमारा क्या होता ? "
'सरिता बेटी , तुम्हारा जो यह भगवान है हमारे पास पहुंचने मे बहुत देर करते है , समय पर हमारी मदद "इस धरती का भगवान" ही करता है ।"
फिर रामलाल ने बताया कि एक दिन एक सवारी को अपने रिक्शे पर बैठाकर उनके घर छोड़ने गया था, जब वह छोड़कर वापस आ रहा था कि वह अपने रिक्शे मे एक काली रंग की छोटी सी बैंग को गिरा हुआ देखा ।
रामलाल को समझते देर नही लगी कि वह बैग उसी सज्जन का था जिसे उसने अभी अभी घर छोड़कर आया था ।वह वापस उस व्यक्ति के घर गया और वह बैग उसी सज्जन को लौटा दिया । वह सज्जन रामलाल की इमानदारी से काफी प्रभावित हुआ और रामलाल को कुछ पैसे देने की कोशिश की लेकिन वह कुछ भी लेने से इंकार कर दिया ।
" बेटी आज वही साहब मिल गये थे , वो मुझे देखते ही पहचान गये लेकिन मै ही उन्हे पहचान नही पाया ।
उन्होंने मुझसे से पूछा "अरे ! कहां जा रहे हो ?"
फिर मैने सबकुछ उन्हे बताया ।
उन्होंने कहा " कोई बात नही है , चिंता मत करो ।"
फिर उन्होंने दो महीने के लिए सारा राशन का सामान भी खरीद दिया और तेरी माॅ की दवाई भी खरीद कर दी । मेरे लाख मना करने के बावजूद भी उन्होंने ये सारा सामान खरीद कर मुझे घर तक भी छोड़कर गये ।
"लौकडाउन खत्म होने के बाद उन्होंने कहा कि तुम्हे भी कोई नौकरी लगवा देंगे बेटी !
सरिता बोली " बापू ! सचमुच वह अंकल इस धरती पर " धरती का भगवान " हीं है ।
" हां बेटी ! तू ठीक बोल रही है ।"
-०-
सुरेश शर्मा
गुवाहाटी,जिला कामरूप (आसाम)
-०-

 ***
मुख्यपृष्ठ पर जाने के लिए चित्र पर क्लिक करें

मैं गृहिणी (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा


मैं गृहिणी
(कविता)
अल सुबह उठ ..
शुरू करती हूँ अपनी कविता..
संस्कारों को मान दे,
बड़ों को सम्मान दे,
बजुर्गों को ढोक  लगा,
बच्चों का टिफ़िन बना,
बच्चों को तैयार कर,
बस स्टॉप तक छोड़ते।
भागते दौड़ते...
पति का नाश्ता लगा,
ऑफ़िस जाने का समान पकड़ा,
सोचती रहती..
कहीं कुछ छूट तो नहीं गया..?
सबकी फ़िक्र मेरी क़िस्मत है,
हड़बड़ाहट मेरी फ़ितरत है,
गृहिणी हूँ ना....!

सुबह से शाम,खटती रहती ,
देखूँ दर्पण तो...
ख़ुद को पहचान नहीं पाती।
ना जाने किसके बल पर...
दिन भर चलती हूँ।
ना रुकती हूँ,...ना थकती हूँ।
मेरी कोई पगार नहीं,
छुट्टी का सरोकार नहीं,
मेरा कोई इतवार नहीं,
मानता कोई आभार नहीं।
मेरा अथाह श्रम ..मेरी परीक्षा,
सुबह गुलाब सा चेहरा,
शाम को कबाब सा दिखता ।
सृजन करती, जन्म दायनी कहलाती,
चुप चुप रहती...,सब कुछ सहती,
कोई पूछता जब ,
क्या करती हूँ मैं..?
मेरे भाग्यविधाता बन तुम कहते,
ये कुछ नहीं करती...
गृहिणी हैं ....घर पर ही रहती है।

हाँ..
गृहिणी हूँ  मैं....!
सीखा है मैंने ....
समर्पण ओर सेवा भाव,
शिक्षक, मेड, रसोईया बन,
घर की साफ़ सफ़ाई...
रख रखाव।
रखती हूँ दूसरों के प्रति..
प्यार ओर सेवा भाव का इरादा,
अंतिम पड़ाव तक...
साथ निभाने का वादा।
सुबह से शाम.....
नहीं करती आराम।
दिन भर की थकान को ...
ठोकर मार कर,
अपनी भावनाओं को ...
किसी कोने में दबा कर,
जीवन में जो बचा शेष...
बना कर विशेष,
बिस्तर पर जा कर,
कुछ सपने सज़ा कर,
पूरी कर लेती हूँ कविता।
पारिवारिक संस्कारों परम्पराओं से..,
उपजी रूडीयों की बेड़ियाँ,
गर मैंने तोड़ दी होती..
तो ये कविता ना बनती।
कविता ..भले बदलाव ना लाए,
पर उम्मीद तो जगाती है,
बदलती रुतो का अहसास तो कराती है।
जो हूँ....,   उसका गर्व कराती हैं,
मेरे कारण सबकी थाली में ,
गर्म रोटी तो आती है,क्योंकि....
गृहिणी हूँ ना...!
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
-०-



श्रीमती कमलेश शर्मा जी की रचनाएं पढ़ने के लिए शीर्षक चित्र पर क्लिक करें! 

***
मुख्यपृष्ठ पर जाने के लिए चित्र पर क्लिक करें 

सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ