मैं ठहरा आदत से मजबूर!!
(कविता)
रात का सर्द मौसम, ठंडी हवा,
चाँदनी बिखेरता वो आसमाँ का चाँद,
नज़ारे को आँखों मे भर,
कुछ पल के लिए आँखे बंद की मैंने,
बड़ा बेचैन , सुकून ढूंढने की कोशिश में लगा था,
तभी एक शख्श की जुल्फे चेहरे से टकराई,
ना जाने कैसे? हवा में खुशबू और बढ़ने लगी,
मानो किसी फूल को छूकर आ रही हो,
उसका हाथ मेरे हाथ में, उसका सर मेरे काँधे पर,
कभी मुस्कराती ,कभी गुस्सा करती,
वो अपने पूरे दिन का हाल मुझे सुनाने लगी,
मैं बड़ा बेहाल सा उसके हर हाल को सुनने लगा,
मानो सुकून मुकम्मल सा हो रहा हो मेरा,
सब्र का बांध मानो जैसे टूटने को ही था,
मैंने अपनी आंखें खोल डाली,
सब कुछ एक क्षण में ओझल ,
बड़ी बेबसी से मैने उस चाँद को,
और चाँद ने मुझे हँसते हुए देखा,
मानो मुझे कह रहा हो,
क्या जरूरत थी आंखे खोलने की ,
जब एक चाँद खुद तुम्हारे करीब था,
मगर मैं करता भी तो क्या,
आदत से जो मजबूर ठहरा!!
आदत से जो मजबूर ठहरा!!
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