(कविता)
अल सुबह उठ ..
शुरू करती हूँ अपनी कविता..
संस्कारों को मान दे,
बड़ों को सम्मान दे,
बजुर्गों को ढोक लगा,
बच्चों का टिफ़िन बना,
बच्चों को तैयार कर,
बस स्टॉप तक छोड़ते।
भागते दौड़ते...
पति का नाश्ता लगा,
ऑफ़िस जाने का समान पकड़ा,
सोचती रहती..
कहीं कुछ छूट तो नहीं गया..?
सबकी फ़िक्र मेरी क़िस्मत है,
हड़बड़ाहट मेरी फ़ितरत है,
गृहिणी हूँ ना....!
सुबह से शाम,खटती रहती ,
देखूँ दर्पण तो...
ख़ुद को पहचान नहीं पाती।
ना जाने किसके बल पर...
दिन भर चलती हूँ।
ना रुकती हूँ,...ना थकती हूँ।
मेरी कोई पगार नहीं,
छुट्टी का सरोकार नहीं,
मेरा कोई इतवार नहीं,
मानता कोई आभार नहीं।
मेरा अथाह श्रम ..मेरी परीक्षा,
सुबह गुलाब सा चेहरा,
शाम को कबाब सा दिखता ।
सृजन करती, जन्म दायनी कहलाती,
चुप चुप रहती...,सब कुछ सहती,
कोई पूछता जब ,
क्या करती हूँ मैं..?
मेरे भाग्यविधाता बन तुम कहते,
ये कुछ नहीं करती...
गृहिणी हैं ....घर पर ही रहती है।
हाँ..
गृहिणी हूँ मैं....!
सीखा है मैंने ....
समर्पण ओर सेवा भाव,
शिक्षक, मेड, रसोईया बन,
घर की साफ़ सफ़ाई...
रख रखाव।
रखती हूँ दूसरों के प्रति..
प्यार ओर सेवा भाव का इरादा,
अंतिम पड़ाव तक...
साथ निभाने का वादा।
सुबह से शाम.....
नहीं करती आराम।
दिन भर की थकान को ...
ठोकर मार कर,
अपनी भावनाओं को ...
किसी कोने में दबा कर,
जीवन में जो बचा शेष...
बना कर विशेष,
बिस्तर पर जा कर,
कुछ सपने सज़ा कर,
पूरी कर लेती हूँ कविता।
पारिवारिक संस्कारों परम्पराओं से..,
उपजी रूडीयों की बेड़ियाँ,
गर मैंने तोड़ दी होती..
तो ये कविता ना बनती।
कविता ..भले बदलाव ना लाए,
पर उम्मीद तो जगाती है,
बदलती रुतो का अहसास तो कराती है।
जो हूँ...., उसका गर्व कराती हैं,
मेरे कारण सबकी थाली में ,
गर्म रोटी तो आती है,क्योंकि....
गृहिणी हूँ ना...!
-०-
पता
शुरू करती हूँ अपनी कविता..
संस्कारों को मान दे,
बड़ों को सम्मान दे,
बजुर्गों को ढोक लगा,
बच्चों का टिफ़िन बना,
बच्चों को तैयार कर,
बस स्टॉप तक छोड़ते।
भागते दौड़ते...
पति का नाश्ता लगा,
ऑफ़िस जाने का समान पकड़ा,
सोचती रहती..
कहीं कुछ छूट तो नहीं गया..?
सबकी फ़िक्र मेरी क़िस्मत है,
हड़बड़ाहट मेरी फ़ितरत है,
गृहिणी हूँ ना....!
सुबह से शाम,खटती रहती ,
देखूँ दर्पण तो...
ख़ुद को पहचान नहीं पाती।
ना जाने किसके बल पर...
दिन भर चलती हूँ।
ना रुकती हूँ,...ना थकती हूँ।
मेरी कोई पगार नहीं,
छुट्टी का सरोकार नहीं,
मेरा कोई इतवार नहीं,
मानता कोई आभार नहीं।
मेरा अथाह श्रम ..मेरी परीक्षा,
सुबह गुलाब सा चेहरा,
शाम को कबाब सा दिखता ।
सृजन करती, जन्म दायनी कहलाती,
चुप चुप रहती...,सब कुछ सहती,
कोई पूछता जब ,
क्या करती हूँ मैं..?
मेरे भाग्यविधाता बन तुम कहते,
ये कुछ नहीं करती...
गृहिणी हैं ....घर पर ही रहती है।
हाँ..
गृहिणी हूँ मैं....!
सीखा है मैंने ....
समर्पण ओर सेवा भाव,
शिक्षक, मेड, रसोईया बन,
घर की साफ़ सफ़ाई...
रख रखाव।
रखती हूँ दूसरों के प्रति..
प्यार ओर सेवा भाव का इरादा,
अंतिम पड़ाव तक...
साथ निभाने का वादा।
सुबह से शाम.....
नहीं करती आराम।
दिन भर की थकान को ...
ठोकर मार कर,
अपनी भावनाओं को ...
किसी कोने में दबा कर,
जीवन में जो बचा शेष...
बना कर विशेष,
बिस्तर पर जा कर,
कुछ सपने सज़ा कर,
पूरी कर लेती हूँ कविता।
पारिवारिक संस्कारों परम्पराओं से..,
उपजी रूडीयों की बेड़ियाँ,
गर मैंने तोड़ दी होती..
तो ये कविता ना बनती।
कविता ..भले बदलाव ना लाए,
पर उम्मीद तो जगाती है,
बदलती रुतो का अहसास तो कराती है।
जो हूँ...., उसका गर्व कराती हैं,
मेरे कारण सबकी थाली में ,
गर्म रोटी तो आती है,क्योंकि....
गृहिणी हूँ ना...!
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
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