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Monday 16 November 2020

जोकर अंकल (कहानी) - कुशलेन्द्र श्रीवास्तव

 
जोकर अंकल
(कहानी)

अब उसका नाम केवल ‘‘अबे बहरूपिए’’ ही होकर रह गया था । वैसे तो उसका सही नाम संदीप ही था जिसे उसकी माॅ ने बड़े प्यार से रखा था । पिताजी तो उसे छोटू कहकर ही बुलाते थे पर माॅ उसे संदीप ही कहा करती थी ‘‘देखों मेरे बेटे का नाम मत बिगाड़ो...’’ माथे पर काला ढिठोना लगाते हुए वे पिताजी से झगड़ पड़तीं । पिताजी अनसुना करके घर से चले जाते । माॅ उसे तैयार करती और स्कूल तक छोड़ने जाती ‘‘देखो बेटा अच्छे से पढ़ लिख लो अपने पिताजी की तरह बहरूपिया बनकर पेट नहीं पालना है तुम्हे साहब बनना समझे ’’ । संदीप को न तो माॅ की बात समझ आती और न ही अपने पिताजी के बहरूपिया बनने की बात समझ में आती । वह जब सुबह नींद से जागता तब तक पिताजी कुछ अजीब से पहनावा पहने घर से निकल रहे होते थे । घर से निकलने के पहिले वे उसके माथे को सहलाते अवश्य थे । माॅ उसे जगाती फिर तेयार करती और रोटी खिलाकर स्कूल तक छोड़ने जाती । वे उसे स्कूल लेने भी आतीं । संदीप जैसे-जैसे बड़ा होता गया उसे बहरूपिये का मतलब समझ में आता गया । घर में गंभीर रहने वाले पिताजी बहरूपिया बनते ही मसखरे हो जाते । वे भांति-भांति के स्वांग भरकर लोगों को हंसाते । ‘‘देखो लोग किसी मजबूरी पर कभी तरस नहीं खाते उन्हें मनोरंजन चाहिये मनोरंजन करोगे तों ही लोग पैसे देगें ’’ और लोग खुश होकर उन्हें पैसे देते भी। इन पैेसों से ही उनका घर चलता था । संदीप को पिताजी का यह मसखरापन अच्छा नहीं लगता था इसलिये ही तो सने सोच भी लिया था कि वो कभी अपने पिताजी की तरह बहरूपिया नहीं बनेगा । जिस साल संदीप ने बीए की डिग्री अपने हाथ में ली उसी साल उसके पिताजी एक दुर्घटना में चल बसे । घर तो पिताजी की कमाई से ही चल रहा था ने सो कुछ ही दिनों में रोटी के लाले पड़ने लगे । संदीप अपनी डिग्री लेकर रोजगार की तलाश में यहां वहां भटका भी पर उसे कोई काम नहीं मिला । पिताजी की मौत का सदमा माॅ सहन नहीं कर पाई थीं वे बीमार होकर बिस्तर पर जा पड़ी थीं । संदीप हताश और निराश हो चुका था । फिर एक दिन संदीप ने पिताजी की संदूक को खोल ही लिया । उस संदूक में राजाओं वाली शेरवानी से लेकर साड़ी-ब्लाउज भी रखे थे साथ में ही अपने चेहरे को रंगने के लिये कई किस्म के रंग भी रखे थे ।
                पहली बार संदीप ने शंकर भगवान का वेश धारण किया था । सारे शरीर में नीला रंग लगाकर  मृगछाला टाइप की लंगोट पहनी । एक हाथ में चमकीली पनी से बना त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरू लेकर वह घर से निकला था ।  वह चाहकर भी अपने पिता की तरह मसखरेपन की हरकतें नहीं कर पाया था । पर दिन बहुत अच्छा कटा । एक तो उसकी कदकाठी बहुत अच्छी थी दूसरे वह खूबसूरत भी था । वह समझ गया था कि मोबाइल हाथों में लिये लोगों को अब न तो भगवान के स्वांग के प्रति श्रद्धा है और न ही किसी का भूखा पेट दिखाई देता है इसलिये उसने गांवों की गलियों में अपने स्वांग का प्रदर्शन किया लोगों ने जो भी दिया उसे लेकर घर लौट आया । उसने अपनी पहिली कमाई को अपनी माॅ के बीमार हाथों में सौंप दिया । माॅ उसके पैसों को हाथों में लेकर रोती रहीं थी बहुत देर तक । वे भले ही जुबान से कुछ न बोली हों पर उनकी आंखों के आंसू उनकी वेदना का व्यक्त कर रहे थे । वह भी माॅ के पैरों पर गिरकर रोता रहा था । उसने तो कसम खाई थी कि वह अपने पिता की तरह बहरूपिये का काम कभी नहीं करेगा फिर भी उसे करना पड़ा था ‘‘माॅ मैं आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा’’ बिलख पड़ा वह और माॅ केवल उसका सिर सहलाती रहीं थीं । माॅ बेटे दोनों रो रहे थे । कमरे की कच्ची दीवाल में टंगे कैलेंण्डर में भगवान मंद मंद मुस्कुरा रहे थे ‘‘हर एक भाग्य मैं ही तो लिखता हूॅ’’ ।
आज संदीप ने जोकर का स्वांग रखा था । उसकी जिन्दगी भी तो ऐसी ही होकर रह गई है। दिन भर लोगों को स्वांग कोई भरो जोकर जैसे ही हंसाने का प्रयास करना ही पड़ता है । लोग अब बहरूपिये को सम्मान की निगाह से देखते भी कहां हैं । पिताजी के समय की बात और थी अब तो उसे भी ताने और व्यंग्य सुनने पड़ते हैं । वह अपने मन को मार कर अपनी ही उम्र के लोगों की छींटाकशी को बरर्दाश्त कर लेता । कोई उसके कपड़े खींचता तो कोई अपशब्दों का प्रयोग करता वह चुप रहा आता । वह जाना था कि आज के दौर में हर आदमी उसकी ही जैसी वेदना को साथ लेकर दिन भर सड़कों पर घूमता है उसे उनसे हमदर्दी ही महसूस होती । वो उनके लिये क्षणिक आनंदित होने का अवसर उन्हें जो दे रहा था । बहरूपिये का स्वांग होता ही इसके लिये है । दूसरों को आनंद दो और अपनी वेदना को अपनी अंतरर्मन की गहराईयों में छिपा लो । उसने नाराज होना छोड़ दिया था । वह अपने घर में लगे कैलेण्डर में मुस्कुराते भगवान जी को देखकर उन्हें प्रणाम करता ‘‘प्रभु दूसरों के दुःखों को कम करने का जो कार्य आने मुझे दिया है उसके प्रति आभारी हूं’’ भगवान तब भी मुस्करुाते रहते । आज वह जोकर ही बनेगा । उसने गहरी सांस ली । जोकर बनने के लिये उसे कुछ खास तेयार नहीं होना पड़ा । घर से निकलने के पहिले वह माॅ के पास गया था । माॅ उसे एकटक देखती रहीं थीं बहुत देर तक । वह माॅ के पैर छूकर निकल पड़ा था धन कमाने ताकि दो जून की रोटी मिल सके ।
‘‘ मेरा बेटा बीमार हैं क्या तुम उन्हें थोड़ा सा आंनद दे सकते हो’’
एक बुजुर्ग महिला ने उसे रोककर पूछा था । वह चुप रहा । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह उत्तर क्या दे । उसे तो पैसे चाहिये ताकि वह अपना और अपनी माॅ का पेट भर सके । उसे चुप देखकर उस औरत ने उससे फिर कहा
‘‘मैं जानती हूॅ कि तुम बहरूपिये हो । स्वांग भरकर मनोरंजन करते हो और पैसे कमाते हो......पर मेरा बच्चा अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर चल रहा हैं......यदि तुम उसके खत्म होते जीवन में कुछ रस भर सको तो अच्छा ही रहेगा....’’ ।
उस औरत ने कुछ देर तक उसके जबाब का इंतजार किया । उसे खामोश देखकर वह आगे बढ गई ‘‘सुनिये...............................मैं आपके साथ चल रहा हूॅ...’’ बरबस संदीप के मुख से निकल गया ।
संदीप बुजुर्ग महिला के साथ चल दिया था ।
         एक आलीशान मकान के सामने महिला जाकर रूक गई थी । ये मेरे बेटे का मकान है । भगवान ने उसको सबकुछ दिया है उसे एक बेटा भी दिया है पर वह इकलौता बेटा पिछले कुछ दिनों गंभीर बीमारी से जूझ रहा है । मेरे बेटे ने उसका मंहगे से मंहगा इलाज कराया बड़े से बड़े डाक्टर को दिखाया पर उसे कोई आराम नहीं लगा । डाक्टरों ने बोल दिया है कि वह कुछ ही दिनों का मेहमान है । ये जो घर में उदासी देख रहे हो न उसके कारण ही है ।’’
बुजुर्ग महिला एक ही सांस में बोलती चली गई थी । उसके चेहरे पर भी दर्द के भाव उभर आये थे । उसने अपनी माॅ के चेहरे पर अनेकों बार दर्द के भाव देखे थे पर उस बुजुर्ग महिला के चेहरे का दर्द उनके बल्किुल अलग था ।
‘‘लोग झूठ कहते हैं कि पैसों से सबकुछ खरीदा जा सकता है.......हम अपने इकलौते बेटे कों स्व्स्थ्य नहीं कर पाये और न ही उसके चहरे पर आनंद के भाव ला पाए.......नहीं... पैसों से केवल सुख सुविधायंे तो खरीदा जा सकती हैं इसके सिवाय कुछ नहीं............’’ ।
अबकी बार बुजुंर्ग महिला बिलख पड़ी थी । अपने पोते का कष्ट उनके आंसू के रूप में बाहर निकल रहा था । संदीप आवाक से खड़ा केवल देख रहा था ।
आलीशान कमरे में सुख सुविधाओं की सारी चीजें मौजूद थीं । बड़ा सा पलंग, पलंग में मोटा गद्दा, सुनहरी चादर । ढेर सारे खिलौने चारों और बिखरे थे । एक कोने में ढेर सारे फल रखे हुए थे । उसके पास ही जूस से भरे गिलास रखे थे ‘‘मालूम नहीं बेटा कब क्या खाने को मांग ले इसलिये सब कुछ यहीं रख दिया है’’ । चारों ओर गुलाब की खुशबू फैली हुई थी । बेटा माॅ की गोद में सुस्त पड़ा था । उसकी आंखें शून्य में कुछ तलाश रहीं थीं । डाक्टर कमरे उसका चेकअप कर निकले थे । बुजुर्ग महिला ने उनकी ओर आशा भरी निगाहों से देखा
‘‘शायद अब कुछ नहीं किया जा सकता...’’
‘‘नहीं..........डाक्टर........आप ऐसा नहीं कर सकते.........’’
आंसू बह निकले थे ।
‘‘साॅरी........मेम.........सोनू .केवल एक ..... दो दिन...........’’
डाक्टर तेज कदमों से चलते हुए निकल गए । सोनू उस बालक का ही नाम था ।
जोकर की वेशभूषा में संदीप को लेकर जब बुजुर्ग महिला ने कमरे में प्रवेश किया तो सभी की निगाहें प्रश्न बनकर उसकी ओर उठ गई थीं । बुजुर्ग महिला ने आंखों के इशारे से सभी को शांत रहने का कह दिया था । संदीप ने निगाह उठाकर माॅ की गोद में सोये हुए बालक को देखा था जो अब उस की ओर ही देख रहा था । उसकी आंखों में उत्सुकता भी थी । संदीप सारा तानाबाना बुन चुका था आज उसकी परीक्षा थी । उसे एक जीवन की ज्योति को कुछ और पलों के लिये बुझ जाने से रोकना था ।
             संदीप के जीवंत अभिनय ने बालक के चेहरे पर मुस्कान ला दी थी । वह शायद लम्बे अरसे बाद हंसा था । उसके बुझे चेहरे पर मुस्कान लाने में संदीप सफल रहा था । दो घंटे बाद जब संदीप जाने को हुआ तो उस बालक ने ही हाथ पकड़ लिया था
‘‘जोकर अंकल......कुछ देर और नहीं रूक सकते.......’’
‘‘बहुत देर हो गई बेटा अब मैं जाऊंगा..........पर तुम हंसते रहना.......ओके......’’
‘‘मैं कैसे हंस सकता हूॅ......आप तो जा रहे हैं.........’’
‘‘अभी तो हंसे थे न.........वैसे ही.....अच्छे बच्चे रोते नहीं हैं......वे हमेशा हंसते रहते हैं......और तुम तो अच्छे बेटा हो........तो रोओगे नहीं...........हैं न.......’’
‘‘मैं अच्छा बेटा नहीं हूॅ...........यदि होता तो मैं बीमार कैसे पड़ता................’’
‘‘बीमार हो तो ठीक भी हो जाओगे..........’’
‘‘नहीं हो पाऊंगा.........डाक्टर अंकल कह रहे थे कि मैं कभी ठीक नहीं हो पाऊंगा......मैं तो जल्दी ही भगवान जी के पास जाने वाला हूॅं...........हैं न माॅ........’’
माॅ खामोश थी । वह अपनी आंखों के आंसू अपने आंचल से पौंछ रही थी ।
‘‘मैं भगवान जी पूछंूगा कि मुझे उन्होने जल्दी क्यों अपने पास बुला लिया.......मैं तो अभी खेलना चाहता था अंकल........बाहर बच्चे खेलते हैं न उनके साथ...........’’
खामोशी को तोड़ती हुई सिसकी की आवाज आनी शुरू हो गई थी ।
‘‘जोकर अंकल.........मैं एक दो दिन में भगवान जी के पास जाऊ्रंगा.......तब तक आप रोज मेरे पास आ सकते हैं............मुझे आपके साथ खेलना अच्छा लगा.............’’
संदीप की आंखों से भी आंसू बह रहे थे । संदीप ने अपने जीवन में कई बार आंसू बहाये हैं पर उसकी आंखों से आज बहने वाले आंसू अलग थे । वह उस बालक की दर्द भरी बातों से आहत हो रहा था ।
‘‘जोकर अंकल............आप भी रो रहे हैं...............माॅ भी तो ऐसे ही रोती है.............और दादी भी.....मैं भगवान जी से कहूंगा कि वो आप लोगों को कभी न रोने दे.........पर अंकल..........मैं अभी भगवान जी के पास नहीं जाना चाहता..............आप तो जोकर अंकल हैं......भगवान जी आपकी बात जरूर मानेगें........आप उनसे कहो न कि..........वो मुझे अपने पास न बुलायें.............’’
सिसकी की आवाज से सारा कमरा गूंज चुका था । माॅ ने अपने बालक को जोर से अपनी छाती से चिपका लिया था । संदीप भरे कदमों से अपने घर लौट आया था । रात भर उसके कानों में उस बालक की आवाजें गूंजती रहीं थीं.....‘‘अंकल आप भगवान जी से कहो न.......’’ । वह केवल करवटे बदलता रहा । सुबह वह नहा कर भगवान जी के मंदिर पहुंच चुका था
‘‘प्रभु........कैसे भी उस बालक की जान बचा लो ............’’
वह रोता रहा बहुत देर तक ।
             संदीप ने आज भी जोकर का रूप् धारण किया था । उसे सोनू से मिलने की बहुत उत्सुकता थी । सोनू शायद उसकी ही राह देख रहा था । उसे सामने देखकर उसके चेहरे पर मुस्कान फैल गई थी ‘‘अंकल मैं तो बहुत देर से आपकी राह देख रहा था.......माॅ कह रहीं थीं कि आप नहीं आओगे.............और मैं कह रहा था कि आप आयेगें...........मैंने माॅ से शर्त भी लगाई है......मैं शर्त जीत गया...............अब तो माॅ आपको मुझे भगवान जी के पास जाने से रोकना ही पड़ेगा....’’
सारे लोग खामोश थे ।
‘‘जोकर अंकल अभी डाक्टर अंकल मुझे इंजेक्शन लगाकर गये हैं.......बहुत दर्द हो रहा है......मैं आपके साथ कैसे खेलूंगा.....’’ ।
‘‘आप केवल मेरे सामने हंसते रहें.............’’
‘‘जोकर अंकल.........आप बहरूपिये हैं.........दादी बता रहीं थीं........बहरूपिया क्या होता है......’’
‘‘आप जैसे बच्चों को हंसाता है......बेटा..........ताकि आप प्रसन्न हो जायें.............’’
‘‘आप तो बहुत अच्छा काम करते हैं अंकल.............आप कभी दुखी नहीं होते अंकल.......फिर आपको कौन हंसाता है...........’’
संदीप के सामने अपनी माॅ का चेहरा आ गया जब भी उसकी आंखों से आंसू बहने कोहाते माॅ कहती ‘‘बेटा रोते नहीं हैं............हंस दो.......हंसो..........मेरा राजा बेटा.........’’ । सोनू ने सावाल ऐसा पूछा था कि उसके सामने अपनी माॅ का चेहर घूम गया
‘‘माॅ.................मेरी माॅ............जैसे आपकी माॅ है न वैसे ही मेरी माॅ मुझे दुलारती है’’
‘‘अच्छा.............माॅ तो बहुत अच्छी होती हैं अंकल...........मेरी माॅ भी बहुत अच्छी हैं...........’’
संदीप  बहुत देर तक सोनू का मनोरंजन करता रहा ।
‘‘अच्छा अब मैं चलूं सोनू................कल फिर आऊंगा.............’’
‘‘अंकल कल आने के पहिले पता कर लेना....डाक्टर अंकल कह रहे थे कि कल मैं भगवान जी के पास चला जाऊंगा............तो शायद आपसे न मिल पाऊं..........पर मैं भगवान जी से आपके लिए जरूर बोलूंगा............बाय अंकल...........’’
संदीप  भारी कदमों से वहां से वापिस आया । वह बहुत देर तक भगवान जी के मंदिर के सामने बैठा प्रार्थना करता रहा पर उसकी प्रार्थना भगवान जी नहीं सुनी थी ।
          संदीप को पता करने की जरूरत नहीं पड़ी । उसे मालूम हो गया था कि सोनू अब इस दुनिया में नहीं रहा । संदीप बहुत देर तक अपनी माॅ का हाथ पकड़कर रोता रहा था । उसने फिर कभी जोकर का स्वांग भरने की हिम्मत नहीं की ।
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पता:
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश)

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घर घर दीप जलाएं हम (कविता) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'


घर घर दीप जलाएं हम
(कविता)

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ज्योतिर्मय जग कर दें तो सुख पाएं हम।
आओ मिलकर घर घर दीप जलाएं हम।।
******
दीप   जलाएं    मेटें   मिलकर  अंधियारे ,
रोशन  कर   दें  अवनी अम्बर  हम  सारे।
ये  त्यौहार  नहीं   है   सिर्फ  अकेले  का,
याद उन्हें  भी  रक्खें   जो   हैं  दुखियारे।। 
उनको  भी  खुशियों  में  भागीदार  करें ,
पल खुशियों के आए भूल न  जाएं हम।
ज्योतिर्मय जग कर दें तो सुख पाएं हम,  
आओ मिलकर घर घर दीप जलाएं हम।।
******
सुख  बांटो  तो  कई  गुना  बढ़ जाता है,
रगरग   से   ये  स्नेहसुधा   बरसाता   है।
इंसानों   की  एक  अलग  पहचान  रही ,
मिलजुल  करके खाना  इनको आता है।। 
हम दानव  के  वंशज  नहीं  न दानव  हैं,  
इंसां   हैं,  ये   इसां   को   समझाएं  हम।
ज्योतिर्मय जग कर दें तो सुख पाएं हम, 
आओ मिलकर घरघर दीप जलाएं हम।।
*******
धन प्रकाश का सुन्दरता  का वर  ले लें,
लक्ष्मी   माता  से  अपने  जेवर   ले  लें ।
विजय न्याय की होती  है  विश्वास करें , 
अन्यायी   का   उठें   उतारें  सर   ले लें।।
सहने से भी  मदद  हुई  है जालिम  की, 
इस जज्बे को फिर  परवान चढ़ाएं  हम।
ज्योतिर्मय जग कर दें तो सुख पाएं हम, 
आओ मिलकर घर घर दीप जलाएं हम।।
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"अनन्त"साधन हीनों  को साधन दें हम .
रोजगार  देकर  आनन्दित  मन  दें  हम।
परेशान   जो   सर्दी    गर्मी  बारिश   में ,
पोषण  कर पाएं  इतना तो धन  दें  हम।।
खूब उड़ाएं  पैसा   अपनी   मौजों   पर ,
उनके जख्मों को भी तो  सहलाएं  हम।  
ज्योतिर्मय जग कर दें तो सुख पाएं हम, 
आओ मिलकर घर घर दीप जलाएं हम।। 
-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
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आज-कल (कविता) - अखिलेश चंद्र पाण्डेय 'अखिल'

 

यह जीवन कितना देता है
 (कविता)

जिंदगी कसमसाने लगी आज-कल

मौत भी आजमाने लगी आज-कल

नीड़ निर्माण करने के सपने लिए

आँख भी डबडबाने लगी आज-कल

रोए-धोए बहुत उम्र की सीढियाँ

मैल रंगत दिखाने लगी आज -कल

देवता सा बना ही रहा आज तक

धीर नौका सिराने लगी आज-कल

टूटता भी नहीं ,दिल भी फटता नहीं

साँस दामन छुड़ाने लगी आज कल।

हे जगत के नियंता बुला लो मुझे

आपकी याद आने लगी आजकल।

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पता 
अखिलेश चंद्र पाण्डेय 'अखिल'
गया (बिहार) 


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