महात्मा के महात्मा
(आलेख)
महात्मागांधी जी छवि भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, मार्गदर्शक एवं समाज सुधारक के रूप में सामने आती है। गांधीजी ने देश के निर्माण में जिस शस्त्र के बलबूते पर अहम भूमिका निभाई वह है अहिंसा।
महात्मागांधी अनासक्त कर्मयोगी साधक थे। कार्यनिपुणता, वाकपटुता, शालीनता, अच्छे श्रोता, राजनेता ही नहीं वे वास्तविक रूप में जननेता थे। आदर्श तो ऐसे कि जब उनके पास एक महिला अपने बच्चे को गुड़ अधिक खाने की शिकायत लेकर आई तब उन्होंने उससे कुछ दिन बाद में आने को कहा। इस अवधि में उन्होंने गुड़ खाना छोड़ा, जब वह महिला पुनः आई तब उन्होंने उसके बच्चे को अधिक गुड़ न खाने की सलाह दी। कुछ दिन बाद बुलाये जाने का कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि उस समय वे स्वयं गुड़ खाते थे तो बच्चे को मना कैसे कर सकते थे। ये थी गांधी जी की आदर्शप्रस्तुतीकरण की शैली। आज पिता स्वयं सिगरेट फूंकता हो और बेटे से कहे कि धूम्रपान मत करना, वह हानिकारक होता है, तो कैसे प्रभाव पड़े। गांधी जी की सभी क्षेत्रों में दक्षता थी।
वे पर पीड़ा को अपनी पीड़ा समझ कर परमार्थ में लगे। बापू आज जितने प्रासंगिक हैं शायद आने वाले कई दशकों बाद चर्चा चले कि एक फक्कड़ साधु ने अहिंसा से हिंदुस्तान को स्वतंत्रता दिलाई तो विश्वास करना उस पीढ़ी के लिए कठिन होगा। आज की पीढ़ी के लिए भी बापू किसी रहस्य या अजूबे से कम नहीं हैं।
महात्मागाँधी जी के परिवार पर जैन धर्म का प्रभाव होने के कारण उन पर भी बाल्यकाल से जैन धर्म का प्रभाव रहा। वे प्रारम्भ से ही शाकाहारी रहे। आत्मशुद्धि के लिए वे उपवास को महत्व देते थे। और उनके संस्कार जैन धर्म से बहुत प्रभावित थे। वे जैन विद्वानों केे निरन्तर सम्पर्क में रहते थे।
महात्मा गांधीजी श्रीमद्जी को धर्म के सम्बन्ध में अपना मार्गदर्शक मानते थे। वे लिखते हैं-
‘मुझ पर तीन पुरुषों ने गहरा प्रभाव डाला है- टाल्सटॉय, रस्किन और रायचन्द भाई। टाल्सटॉय ने अपनी पुस्तकों द्वारा और उनके साथ थोड़े पत्रव्यवहार से, रस्किन ने अपनी एक ही पुस्तक ‘अन्टु दि लास्ट’ से-जिसका गुजराती नाम मैंने ‘सर्वोदय’ रखा है, और रायचन्द भाई ने अपने गाढ परिचय से। जब मुझे हिन्दुधर्म में शंका पैदा हुई उस समय उसके निवारण करने में मदद करने वाले रायचन्दभाई थे।’
श्रीमद्रायचंद्र जिन्हें गांधी जी रायचन्द्र भाई कहते थे और कभी कभी वे उन्हें कवि भी लिखते हैं- का प्रभाव गांधीजी पर अधिक रहा। श्रीमद्रायचंद्र का जन्म भी सौराष्ट्र के ववाणिया बंदर नामक स्थान में हुआ था। बाद में भी इनका कार्यक्षेत्र भावनगर और जामनगर रहा। ये सब क्षेत्र महात्मागांधी जी के जन्म व कार्यक्षेत्र रहे हैं इस कारण से भी रायचन्द्र जी से महात्मा गांधी का सम्पर्क निरन्तर रहा।
श्रीमद्जी शतावधनी थे। शतावधान अर्थात् सौ कामों को एक साथ करना। जैसे शतरंज खेलते जाना, माला के मनके गिनते जाना, जोड़ बाकी गुणाकार एवं भागाकार मन में गिनते जाना, आठ नई समस्याओं की पूर्ति करना, सोलह निर्दिष्ट नये विषयों पर निर्दिष्ट छन्द में कविता करते जाना, सोलह भाषाओं के अनुक्रमविहीन चार सौ शब्द कर्ताकर्म सहित पुनः अनुक्रमबद्ध कह सुनाना आदि। महात्मा गांधीने रायचन्द्र जी से सौ प्रश्न पूछे और रायचन्द्र जी ने उन्हें उसी क्रम में उत्तर दिया। तब से गांधी जी रायचन्द्र जी के मुरीद हो गये थे।
गांधीजी ने श्रीमद् राजचन्द्र के विषय में कई पत्र लिखे। एक जगह वे लिखते हैं ‘जो वैराग्य (अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे) इस काव्य की कड़ियों में झलक रहा है वह मैंने उनके दो वर्ष के गाढ़ परिचय में प्रतिक्षण उनमें देखा है। उनके लेखों में एक असाधारणता यह है कि उन्होंने जो अनुभव किया वही लिखा है। उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं है। दूसरे पर प्रभाव डालने के लिये एक पंक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नहीं देखा।’ ‘खाते, बैठते, सोते, प्रत्येक क्रिया करते उनमें वैराग्य तो होता ही। किसी समय इस जगत के किसी भी वैभव में उन्हें मोह हुआ हो ऐसा मैंने नहीं देखा।’
‘व्यवहारकुशलता और धर्मपरायणता का जितना उत्तम मेल मैंने कवि में देखा उतना किसी अन्य में नहीं देखा।’
यही अहिंसा और आत्मशक्ति हेतु उपवास के संस्कारों को गांधी जी ने स्वतंत्रता आन्दोलन के हथियार बना लिया।
गांधी जी सबसे बड़े निष्काम कर्मयोगी थे, किन्तु उन्होंने न कभी सन्यासी का चोला पहना, न पहनने दिया। उन्होंने जब अहमदाबाद में साबरमती आश्रम शुरु किया तो एक सन्यासी सत्यदेव महाराज गांधीजी से मिलने आए। गांधीजी के जीवन और आदर्श से प्रेरित होकर सत्यदेव ने गांधीजी के साथ आश्रम में रहने की अनुमति मांगी और उन्होंने कहा कि मैं आपके साथ रहकर देश की आजादी के लिए और समाज सेवा के लिए आश्रम में रहना चाहता हूँ। गांधीजी ने स्वामी सत्यदेव जी को आश्रम में रहने के लिए अनुमति तो दे दी लेकिन उनके सामने एक शर्त रखते हुए कहा कि यह सन्यासी का चोला उतारना पड़ेगा और जनसामान्य की सादा पोशाक पहननी पड़ेगी। गांधीजी ने उनसे कहा कि ‘वे धर्म छोड़ने के लिए नहीं कह रहे हैं, केवल सन्यासी का चोला छोड़ने को कह रहे हैं। क्योंकि आश्रम लोगों की सेवा के लिए चला रहे हैं। आपको भी सेवा करनी होगी। अगर यह सन्यासी का चोला धारण किये रहेंगे तो सभी लोग आपकी सेवा में लग जायेंगे और आप जन सामान्य की सेवा नहीं कर पाओगे।’ स्वामी सत्यदेव गांधीजी की बात सुनकर आश्रम छोड़कर चले गए थे।
गांधीजी के करिश्माई नेतृत्व के कारण हर वर्ग युवा, प्रौढ, व्यापारी, शिक्षित, महिलाएं, उद्योगपति, धार्मिक, पत्रकार उनसे प्रभावित था। रक्तपात का उनकी नैतिक दृष्टि में कोई स्थान नहीं था। परपीड़ा को अपनी पीड़ा समझ कर जनसाधारण के प्रति प्रेम ही गांधीजी की प्रमुख पूंजी थी।
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