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Monday, 20 January 2020

अंधविश्वास (कविता) - लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

अंधविश्वास
(कविता)
चाँद पर पहुँचा कब का मानव,
अंधविश्वास पर अब भी विश्वास।
विज्ञान ने कितनी प्रगति कर ली,
झाड़ फूंक पर कुछ को आस।।

हम नित नव प्रतिमान गढ़ रहे,
अंतरिक्ष में भी हम उड़ रहे।
कायम है फिर भी अंधविश्वास,
कुछ लोग उसी पर चल रहे।।

पशुबलि से होंगे देव प्रसन्न,
सदियों से दृढ़ यह विश्वास।
सदा ही जादूटोना तंत्र मंत्र से,
व्यक्ति समाज का हुआ विनाश।।

टोना टोटका करने वाले,
जाहिल समाज के माने जाते।
वैज्ञानिकता का न कोई प्रमाण,
अंधविश्वास पर महज टिके होते।।

जातिवाद व छुआछूत समाज में,
नासूर बन के पिघला है।
रोटी सेकें राजनीति का इस पर,
अंधविश्वास से न हुआ भला है।।

वृक्ष, झाड़, नदी व पर्वत पूजा,
अंधविश्वास से न कभी अलग हुई।
सदियों से यह गलत परंपरा,
समाज में धीरे धीरे निहित हुई।।

कर्मकांड व कुछ गलत संस्कार,
अंधविश्वास बन समाज में समाया है।
शिक्षा के जागरूकता के बावजूद,
समाज पर इसका पड़ता साया है।।

काटे बिल्ली रस्ता,छींके हो अनिष्ट,
अंधविश्वास नही तो यह क्या! है।
बांस जलाने से वंश नष्ट हो,
महज! ढकोसला ही होता है।।
-०-
लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
स्थायी पताबस्ती (उत्तर प्रदेश)



-०-
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आँसू (कविता) - दुल्कान्ती समरसिंह (श्रीलंका)


आँसू
(कविता)
आँखें न देखते हैं ,आँसू
आँखों से गिरते हैं आँसू ।
रातों भर आँखों में रह रह कर,
दो आँखों भीगते हैं आँसू ।

अतीत से आती हैं आँसू,
अतीत को जाती हैं आँसू ।
जब इच्छायें टूट गए तो,
तब गुप्त रूप में हैं आँसू ।।

जन्म से शुरू हुई आँसू ,
देखा या न देखा,हैं आँसू।
जाति भेद न जानते हैं,
अनंत , गर्मी आँसू ।।

स्वप्नों की तरह ही हैं आँसू,
कितनी हैं,नहीं आँसू ।
मुस्कुराहटें के पीछे हैं,
कोई भी ना देखा हैं वो आँसू ।।।

-०-
दुल्कान्ती समरसिंह
कलुतर, श्रीलंका

-०-

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सपना (कविता) - राजेश कुमार शर्मा"पुरोहित"


सपना
(कविता)
मैं भी दुनिया देखना चाहती हूँ।
आसमां में ऊँचा उड़ना चाहती हूँ।।

मैंने भी कुछ सपने दिल में संजोए हैं।
उन सपनों के साथ जीना चाहती हूँ।।

मैं प्यार से बोलती तो दुनिया कहती।
मैं भी चिड़िया सी चहकना चाहती हूँ।।

मैं नन्ही परी पापा की दुलारी मैना हूँ।
मम्मी की गोद में ही रहना चाहती हूँ।।

मुझे गर्भ में यूं कत्ल न करो मेरे कोई।
मैं दुनिया मे पहचान बनाना चाहती हूँ।।

इंदिरा कल्पना सुनीता विलियम्स सी।
देश मे नाम रोशन करना चाहती हूँ।।
-०-
राजेश कुमार शर्मा"पुरोहित"
कवि,साहित्यकार
झालावाड़ (राजस्थान)

-०-


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पत्नी गई मायके (व्यंग्य कविता) - राजीव कपिल

पत्नी गई मायके
(व्यंग्य कविता)
पत्नी गई मायके मन में भरी उमंग
कुछ दिन चैन से कट जाएंगे नहीं होगी अब जंग ।।
बच्चे भी संग हो लिए सोने पर सुहागा ।
बापूजी और मैं रहे गए घर मे फिरु मैं भागा।।
सबसे पहला काम जब आया मेरे सामने
सूखे कपड़े लाने थे तह करके थे टांगने।
रात का खाना बना गयी अच्छा किया एक काम
खाना मन छक खाइके चले है निद्रा धाम।।
सुबह उठाया बाबू जी ने कर ले बेटा काम
हमने पीकर बेड टी किया सौच का दान।
झाड़ू लेकर हाथ मे बने जो केजरीवाल
कमर धनुष सी हो गयी निकले जैसे प्राण।।
जैसे तैसे झाड़ फूंक हमने थी निपटाई
पौछा लगाना पोस्टपोन किया हिम्मत नही थी भाई।।
नहाने में टाइम कम लगा जितना सुई में थ्रेड
गली में हॉकर चिल्लारहा था ब्रेड लेलो ब्रेड।।
आज का नाश्ता ब्रेड बटर लंच करेंगे बाद
जोमाटो भी तो दे रहा आफर की बरसात।।
खांसी जुकाम ने हालत करदी और भी पतली
नाक से पानी चल रहा गले से निकले अठन्नी।
-०-
पता:
राजीव कपिल
हरिद्वार (उत्तराखंड)

-०-

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तुम्हारी बज़्म से (ग़ज़ल) - अमित खरे

तुम्हारी बज़्म से
(ग़ज़ल)
तुम्हारी बज़्म से कुछ बावकार हैं हम भी
कुछ बुलंदी के हिस्सेदार हैं हम भी

न एब सारे कभी दूसरों में तुम देखो
इस जमाने में गुनहगार हैं हम भी

शहर की महफिलों में रोशनी हम से ही
और अंधेरों के जिम्मेदार हैं हम भी

कोशिशें खूब कीं उसने हमें डुबोने की
अपने दम से मगर दरिया के पार हैं हम भी

छोड़कर तुझको अब जाएँ तो कहाँ जाएँ हम
तेरी जुल्फ में गिरफ्तार है हम भी
-०-
अमित खरे 
दतिया (मध्य प्रदेश)
-०-




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