तुम्हारी बज़्म से
(ग़ज़ल)
कुछ बुलंदी के हिस्सेदार हैं हम भी
न एब सारे कभी दूसरों में तुम देखो
इस जमाने में गुनहगार हैं हम भी
शहर की महफिलों में रोशनी हम से ही
और अंधेरों के जिम्मेदार हैं हम भी
कोशिशें खूब कीं उसने हमें डुबोने की
अपने दम से मगर दरिया के पार हैं हम भी
छोड़कर तुझको अब जाएँ तो कहाँ जाएँ हम
तेरी जुल्फ में गिरफ्तार है हम भी
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