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Saturday, 28 March 2020

जिंदगी में क्या चाहिए (गीत) - अनवर हुसैन

जिंदगी में क्या चाहिए 
(गीत)
जिंदगी में क्या चाहिए
आप की दुआ चाहिए ....

गमों से रहे दूरियां
हंसी हर सुबह चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए....

सब की सलामती वास्ते
ठंडी -ठंडी हवा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए....

जिसे सुनते रहे उम्र भर
ऐसी मीठी सदा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए....

जीतने का जज्बा मिले
गीर - सी अदा चाहिए
दगी में क्या चाहिए.....

जब भी कोई देखे हमें
चाहती निगाह चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए......

साथ दे जो उम्र - भर
ऐसा हमनवा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए......

दोस्तों से दोस्ती रहे
दुश्मनों से सुला चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए.....

मुश्किलों में साथ जो दे
साथ वो खुुदा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए.....

हर कोई सलामत रहे
लबों पे दुआ चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए......

जब तक जिंदगी मिले है
जीने की दवा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए......

हर काम आसान हो
रब की रजा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए......
-०-
पता :- 
अनवर हुसैन 
अजमेर (राजस्थान)

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प्रेम के सब रस रंग (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला



प्रेम के सब रस रंग
                    (कविता)
प्रेम प्यार स्नेह सब एक ही पेड़ के अंग
सतरंगी डालो में दिखे प्रेम के सब रस रंग

भाई बहन पितृ और माता
सबका सबसे है प्रेम का नाता
दादा नाना दोस्त और सखियां इनका आपस मै अद्भुत नाता

प्रेमरस की है अजब सी माया इससे कोई भी ना बच पाया
जो ना करे प्रेम किसे से तो
वो प्राणी दानव कहलाता

मुक बाघिर भी प्रदर्शित करते
मौन ही सही पर अपनी भाषा
मुक जानवर भी रखते मन में
प्रेम प्रदर्शन की अभिलाषा

राधा कृष्ण की प्रेम कहानी
हरेक के मन में प्रेम जगाती
एक दूजे पे अटूट श्रद्धा से
बिछड़े जोड़ो को मिलवाती

राधे राधे रट कर देखो
कृष्ण का संग यूं ही पा जाओगे
कृष्णा कृष्णा रटते रहना
प्रेम राधा का पा ही लोगे


युगों युगों तक याद रखी है
हमने लैला मजनू की प्रेम गाथा
ईश्वर की सुंदर सृष्टि में
प्रेम विरक्त कोई कैसे रह पाता

प्रेम करना बुरी बात नहीं
प्रेम से सच्चा कुछ भी नहीं
पर मर्यादा की हद पार करो
बस ये है युवाओं सही नहीं।

आधुनिक काल में बदल गये
प्रेम के सारे प्राचीन पैमाने
आंखों से उतरकर प्रेम आज तो
शर्तों की भाषा पहचाने

प्रेम की मर्यादाये भी तोड़ते
आज के प्रेमी पागल दीवाने
जाके कौन इन्हे समझाए
प्रेमी के होते दिल ही ठिकाने

सच्चे प्रेम की एक ही निशानी
सुनी तो होगी मीरा की जुबानी
कबीर के ढाई आखर का मतलब
कब समझेगी पीढ़ी नई दीवानी

आज प्रेम का अनुपम दिन है
प्रेम ही पाओ प्रेम ही बांटो
गर कोई दुखी मिल जाय
तो गले लगा उसके गम बांटो
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

-०-

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दीवार के कान (लघुकथा) - छगनराज राव

दीवार के कान 
(लघुकथा)
सोनू और मोनू दोनों में गहरी दोस्ती थी। दोनों एक ही शहर में, एक ही मोहल्ले में पास पास ही रहते थे। आपस का प्रेमभाव इतना झलकता था कि जैसे दो सगे भाई ही हो। दोनों विपत्ति के समय एक दूसरे की मदद के लिए हरदम तैयार रहते। दोनों साथ साथ उठते बैठते, खाते पीते तथा सोते जागते थे।
छः महीने से इनके मोहल्ले में इनके पड़ौस के मकान में एक असलम नाम का व्यक्ति किरायेदार के रूप में रह रहा था, वह सुबह जल्दी घर से निकल जाता और देर रात सिर्फ सोने के लिए आता था।
दोनों दोस्तों को जब पता चला कि हमारे पड़ौस में कोई असलम रह रहा है तो उस पर ध्यान रखना शुरू कर दिया। असलम से कभी कभी बातचीत भी करने लगे। वो क्या काम करता है किसी को कोई मालूम नहीं। उसे पूछने पर वो जवाब देता कि मैं छूटकर मजदूरी करता हूँ। कहीं पर स्थायी रूप से एक जगह काम नहीं करता। दोनों ने उस पर नजर रखना जारी रखा।
एक दिन रात को 12:30 बजे असलम के कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दी, साफ उर्दू में बोल रहे थे। हमारा पलँग उसके कमरे से सटी दीवार पर लगा हुआ था, अतः धीरे धीरे अस्पष्ट शब्द कानों में सुनाई दे रहे थे। हमने अपने कान दीवार से बराबर में सटा लिए ताकि कुछ स्पष्ट सुनाई देने लगे। आधे शब्द सोनू को तो आधे मोनू को समझ में आये। दोनों ने अपने अपने सुने शब्दों को स्पष्ट किया तो पता चल गया कि ये कोई आतंकवाद गिरोह में लिप्त है। 
असलम के कमरे में उस वक्त 4-5 व्यक्ति भी और थे वे आपस में कह रह थे कि कल दोपहर को 01:15 पर एक ही समय में शहर के रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डा, बिग मॉल में तथा बस स्टैंड पर धमाका हो जाना चाहिए। ये सब फोन पे कोई आका इनको दूसरे देश से बता रहा था। ये सब एक साथ जी आका....जी आका....से प्रत्युत्तर दे रहे थे।
दोनों दोस्तों को सतर्क होने में ज्यादा देर नहीं लगी, दोनों ही अपने कमरे से उठकर पास के पुलिस थाने पहुंचे और पूरा घटनाक्रम सुनाकर पुलिस को बुलाके असलम व उनके साथियों को पकड़वा दिया, जिससे बड़ा हादसा टल गया साथ ही कई राज भी खुले।
15 अगस्त को इस कार्य हेतु सोनू मोनू को जिला कलेक्टर द्वारा सम्मानित भी किया। सम्मान करते वक्त उनसे पूछा गया कि आपको कैसे पता चला कि ये आतंकवादी है? तब अपने प्रत्युत्तर में दोनों ने एक साथ बोला - "दीवार के भी कान होते है।"
-०-
पता
छगनराज राव
जोधपुर (राजस्थान)
-०-

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पुराना घर (लघुकथा) - माधुरी शुक्ला

पुराना घर
(लघुकथा)
भतीजे अंशु का फोन आया है वह आज मिलने आ रहा है। मधु बहुत खुश है। माता-पिता के गुजर जाने के बाद भैया- भाभी ने तो नजर फेर सी ली थी चलो भतीजा तो रिश्ता मान रहा है यह सोच कर वह अंशु का मनपसंद खाना बनाने में जुटी हुई है। बेल बजती है तो दौड़ती हुई दरवाजा खोलती है। सामने अंशु को पाती है। कैसा है तू कितने दिन बाद आया, सब ठीक है ना यह पूछती मधु उसे जलपान कराती है। मधु के बच्चे भी खुश है कि बहुत दिन बाद मामा के घर से कोई आया है। तब तक मधु के पति दिनेश भी ऑफिस से आ जाते हैं। सब बैठकर खाना खाते हैं तभी दिनेश पूछ बैठते हैं और कैसे आना हुआ अंशु? कुछ नहीं फूफा जी बस बुआ की याद आ रही थी और थोड़ा काम भी था। खाना खत्म होने के बाद अंशु पुराने घर की बात छेड़ता है बुआ वह दादा-दादी का जो पुराना मकान है पापा उसे बेचना चाह रहे हैं। आपकी साइन के बिना तो बिक नहीं पाएगा। इन कागजों पर आप साइन कर दो बाकी हम बाद में समझ लेंगे। अंशु की इस बात से मधु और दिनेश सकते में आ जाते हैं। पुराने घर में बीते बचपन और माता-पिता की याद के बीच भारी मन से मधु उन कागजों पर साइन कर देती है। साइन होते ही अंशु कहता है अब चलता हूं बुआ कब आ रही हो फिर हमारे घर। मधु लंबी सांस खींचकर कहती है अब क्या करूंगी वहां आकर। अंशु स्थिति को भांप तुरंत वहां से रवानगी डाल देता है।
-०-
पता:
माधुरी शुक्ला 
कोटा (राजस्थान)


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कल की भोर (लघुकथा) - अपर्णा गुप्ता

कल की भोर
(लघुकथा)
बन्द कमरे में कुछ मेज पर कुछ अल्मारी से झांकती चन्द किताबे न जाने कब से धूल फांक रही थी, मन ही मन आपस में मन की बाते करे जा रही थी । दबे दबे उन्हे इन्तजार था कि कुछ नरम उगंलिया फिर उन्हें उठायेगीं तो शायद रूक रूक कर आती सांसे उनकी रग रग में फिर अनवरत बहने लगेगीं ।
शायद कोई भूला बिसरा आशिक उनके पन्नो के बीच एक गुलाब रख कर भूल जायेगा और जाने कब तक फिर महकती रहेगी ।
कोई फिर पढ़ते पढ़ते सीने पर रखकर सो जायेगा और उन उठती गिरती सांसो की नरमी में घुल जायेंगी ।
कोई अल्हड़ किशोरी स्कूल से आते वक्त ठोकर लगने पर गिर गई किताबो को हाथ में उठा कर माथे से लगा लेगी और बिखरी मोर पंखियो को उठा चूम कर पन्नो में सहेज लेगी ।
उन्हे याद आती बहुत दिन पहले जब एक आकृति उभरती ,आंखो पर ऐनक लगा, अपनी धोती को उठा, बड़े प्रेम से सहलाते हुए माथे से लगा ,खोल कर बांचती तो शब्द शब्द निहाल हो जाता ।पर मालुम न था कल की भोर ही न होगी फिर यंहा।
तभी एक आकृति बढ़ी और उन्हे बेदर्दी से उठा तराजू में पटक दिया ।
-०-
पता
अपर्णा गुप्ता
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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