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Saturday 28 March 2020

कल की भोर (लघुकथा) - अपर्णा गुप्ता

कल की भोर
(लघुकथा)
बन्द कमरे में कुछ मेज पर कुछ अल्मारी से झांकती चन्द किताबे न जाने कब से धूल फांक रही थी, मन ही मन आपस में मन की बाते करे जा रही थी । दबे दबे उन्हे इन्तजार था कि कुछ नरम उगंलिया फिर उन्हें उठायेगीं तो शायद रूक रूक कर आती सांसे उनकी रग रग में फिर अनवरत बहने लगेगीं ।
शायद कोई भूला बिसरा आशिक उनके पन्नो के बीच एक गुलाब रख कर भूल जायेगा और जाने कब तक फिर महकती रहेगी ।
कोई फिर पढ़ते पढ़ते सीने पर रखकर सो जायेगा और उन उठती गिरती सांसो की नरमी में घुल जायेंगी ।
कोई अल्हड़ किशोरी स्कूल से आते वक्त ठोकर लगने पर गिर गई किताबो को हाथ में उठा कर माथे से लगा लेगी और बिखरी मोर पंखियो को उठा चूम कर पन्नो में सहेज लेगी ।
उन्हे याद आती बहुत दिन पहले जब एक आकृति उभरती ,आंखो पर ऐनक लगा, अपनी धोती को उठा, बड़े प्रेम से सहलाते हुए माथे से लगा ,खोल कर बांचती तो शब्द शब्द निहाल हो जाता ।पर मालुम न था कल की भोर ही न होगी फिर यंहा।
तभी एक आकृति बढ़ी और उन्हे बेदर्दी से उठा तराजू में पटक दिया ।
-०-
पता
अपर्णा गुप्ता
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

-०-

***
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