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Friday 13 December 2019

माँ तुम मेरी मुरत हो (कविता) - डॉ गुलाब चंद पटेल

माँ तुम मेरी मुरत हो
(कहानी)
माँ तुम मेरी मुरत हो
हम बच्चों की तुम जरूरत हो

मिल जाए चाहे कितने ही यार
अनमोल है माँ तेरा प्यार

माँ मेने एक कविता लिखी है
मेरा आँगन आज बहुत ही सूना है

नदिया से बड़ा समंदर ही है
तेरी छवि माँ मेरे दिलमे ही है

माँ मेने मीठा प्यार तेरा पाया है
आज तेरा ढूढ रहा हूँ छाया

माँ तुम मेरे स्वप्न में आई है
ढेर सारे खिलौने तुम लायी है

तुमने मुझे हलवा बहूत खिलाया है
अच्छी स्कूल में दाखिला दिलाया है

माँ तुम हो प्यार की नदिया
साक्षी है ये सारी दुनिया

तेरा साथ था कितना प्यारा
कम लगता ही जीवन सारा

माँ तुम्हें आना होगा दुबारा
तेरा साथ हे कितना प्यारा.

नैया जीवन की पार ही है करना
प्रभु गुलाब चंद की माँ मत मरना
-०-
डॉ गुलाब चंद पटेल
गाँधी नगर  (गुजरात)
-०-



***
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कभी-कभी (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

कभी-कभी
(कविता)
”कभी कभी”
कभी कभी दिल में ख़्याल आता है,
क्यों नहीं चयनित होती मेरी रचनाएँ ?
मुझ में कौशल की कमी है ?या,
किसी पैंतरे या सहयोग राशि के बल पर,
छपने का हुनर ही नहीं ? कभी कभी...
निराश हो जाती हूँ,
अपनी असफलता पर,
फिर ये दिल,दिल को समझाता है,
आधी रात के बाद,
फिर सवेरा आता है।
हार के बाद ही,
जीत का रास्ता नज़र आता है।
निराशा के बाद भी,
बहुत कुछ सम्भव हो जाता है।कभी कभी..।
कुंठा प्रेरणा में बदल जाती है,
सीखने की कोशिश में,
विचार कुलबुलाते हैं।
लेखनी से निकले शब्द,
पन्नो पर उतर आते है।
तलाशती हूँ विकल्प,
बेहतर करने को,
लड़ती रहती हूँ विचारों से कभी कभी...।
याद करती हूँ,
अपनी प्रतिबध्ध्ता,
होती हूँ तैयार,
करती हूँ ख़ुद का विस्तार।
निगाह रखती हूँ,
बड़े बड़े साहित्यकारों पे,
पढ़ती हूँ उन्हें,
बार बार,लगातार।
तैयार करती हूँ ख़ुद को,
नई चुनौती के लिए,
ढूँढती हूँ अवसर,
विफलताओं से ना घबरा कर,
तलाश ही लेती हूँ,
कोई ऐसा विषय,
दे सकूँ जिसमें सर्वश्रेष्ठ।
बिना हिचकिचाए,
जो सबको रास आए,
रच डालती हूँ,कोई ऐसी रचना,
जो सफलता का अहसास करा जाए।
कभी कभी....।-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)

-0-


***
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सेवा और मेवा (बाल-कहानी) - लायक राम 'मानव'

सेवा और मेवा
(बाल-कहानी)
दो लड़के थे। एक का नाम था सेवा, दूसरे का मेवा। दोनों पड़ोसी थे और एक ही स्कूल में पढ़ते थे। सेवा पढ़ने-लिखने में बहुत तेजथा। उसका स्वभाव भी बहुत अच्छा था। वह हमेशा अपने से बड़ों का आदर करता। दूसरों की मदद करता। लाचार और असहाय लोगों कीसेवा करता। परन्तु सेवा स्वभाव और मन से जितना अच्छा था, शकल-सूरत से उतना ही बदसूरत था। काला रंग और चेहरे पर चेचक केदाग तो थे ही, वह एक आँख का काना भी था।

दूसरी तरफ मेवा गोरा-चिट्टा और काफी खूबसूरत था। गोल-मटोल चेहरा, चंचल-मासूम आँखें और घुँघराले बाल। बस जो देखे,देखता ही रह जाय। लेकिन मेवा शकल-सूरत से जितना खूबसूरत था। मन और स्वभाव से उतना ही गंदा था। पढ़ने-लिखने में हमेशाफिसड्डी रहता। कभी अपना काम पूरा नहीं कर पाता। रोज नए-नए बहाने बनाता। दूसरों को सताने और गरीब-असहाय लोगों का मजाकबनाने में उसे बहुत मजा आता। वह सेवा को भी बहुत परेशान करता। अपने दोस्तों के बीच उसकी हँसी उड़ाता। काना-खोथरा कहकर उसेचिढ़ाता।

सेवा पर इन सब बातों का कोई असर नहीं पड़ता। वह कभी किसी बात से न तो चिढ़ता, न परेशान होता। मेवा और उसके दोस्तसाइकिलों से स्कूल आते-जाते थे। सेवा के पास साइकिल नहीं थी। वह पैदल ही आता-जाता था। एक बार सेवा रोज की तरह पैदल जा रहाथा। पीछे से मेवा और उसके दोस्त साइकिलों से घंटी बजाते हुए आ गये। सेवा गलियारे से हटकर बिल्कुल किनारे खड़ा हो गया। मेवाउसके बगल से निकला और एक झापड़ सेवा की कनपटी पर मारते हुए बोला- ”हट बे काना। देखता नहीं हमारी सवारी आ रही है।'' फिर सबखिलखिला कर हँसते हुए आगे निकल गए।

उस दिन के बाद जब कभी मेवा साइकिल से आता दिखाई पड़ता तो सेवा गलियारे से हटकर खेत की मेड़ पर खड़ा हो जाता। मेवाऔर उसके दोस्त बड़ी शान से घंटी बजाते हुए चले जाते। सेवा हमेशा यही कोशिश करता कि स्कूल को छोड़कर वह मेवा के सामने न पड़े।सुबह के समय तो वह हमेशा बचने की कोशिश करता। क्योंकि कई बार मेवा उसे अपमानित कर चुका था। जब कभी सुबह-सुबह वह मेवाके सामने पड़ता तो वह उसे खूब भद्दी-भद्दी गालियाँ देता। कहता- ”फिर आ गया कानी आँख लेकर। पूरा दिन खराब कर दिया। मारूँगा एककन्टाप।''

गालियाँ सुनकर सेवा को बहुत दुख होता, पर कहता कुछ नहीं। झगड़ा और गाली-गलौज करना उसके स्वभाव में नहीं था। वहइन सब बातों से दूर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई-लिखाई में लगाता। स्कूल के अध्यापक उससे बहुत खुश रहते |

छमाही परीक्षा समाप्त हो चुकी थी। उसके बाद स्कूल का वार्षिक उत्सव मनाया गया। कई तरह के खेल-कूद हुए। सेवा ने हरेक मेंभाग लिया। उत्सव में इनाम भी बाँटे गये। मेवा तो रहा फिसड्डी किस्म का हठी। उसे कुछ नहीं मिला, जबकि सेवा को कई इनाम मिले।हर प्रतियोगिता में उसे पहला इनाम मिला। स्कूल के आदर्श विद्यार्थी के रूप में भी उसे पहला इनाम मिला। अध्यापकों ने उसकी खूबतारीफ की।

मेवा को केवल ऊँची कूद में ही तीसरा इनाम मिल सका। बाकी सब में फिसड्डी रह गया। छमाही परीक्षा में भी वह फेल हो गयाथा। हर चीज में अपने पीछे रह जाने का उसे इतना दुख नहीं हुआ, जितना सेवा की तारीफ सुनकर हुआ। वह जल-भुन गया और मन हीमन सेवा को नीचा दिखाने की तरकीबें सोचने लगा।

इसका मौका भी उसे जल्दी ही मिल गया। एक दिन सेवा पैदल स्कूल जा रहा था। गाँव और स्कूल के बीच एक नदी पड़ती थी।नदी पर पुल था। पुल काफी पुराना था। जगह-जगह उसकी रेलिंग टूटी हुई थी। इस समय सेवा उसी पुल पर से गुजर कर स्कूल जा रहा था।उसी समय पीछे से घंटी बजाते हुए अपने दोस्तों के साथ मेवा आ पहुँचा। मेवा को आते देख वह पुल पर बिल्कुल किनारे आकर खड़ा होगया। क्या करता ? पुल से बाहर भागने की जगह भी नहीं थी।

सेवा को इस तरह खड़े देखकर वे सब खिलखिलाकर हँस पड़े। मेवा उसके बिल्कुल बगल से निकला और साइकिल पर से हीकसकर एक लात सेवा की कमर पर जड़ दिया। लात का वार इतना भरपूर था कि सेवा सम्भल नहीं पाया। लड़खड़ा कर नदी में गिर पड़ा।नदी का बहाव काफी तेज था। सेवा एक बार तो नदी की गहराई में बिल्कुल नीचे चला गया, लेकिन ऊपर आते ही हाथ पैर चलाने लगा। वहतैरना जानता था। धीरे-धीरे किनारे की ओर बढ़ने लगा।

मेवा और उसके दोस्त साइकिलों से उतर कर तमाशा देख रहे थे। तालियाँ पीट-पीटकर हँस रहे थे। सेवा कुछ देर में तैरकर बाहरआ गया। वह ठंड से काँप रहा था। कपड़े तो सब भीग ही गये थे, बस्ते की सारी काँपी-किताबें भी भीग गई थीं। इस हालत में स्कूल तो जानहीं सकता था। दुखी मन से घर की ओर लौट पड़ा। मेवा और उसके दोस्त उसे इस तरह लौटते हुए देखकर बहुत खुश हुए।

गनीमत यही हुई कि सेवा पुल के पूरब तरफ गिरा था। अगर पश्चिम तरफ गिरता तो बच पाना मुश्किल हो जाता, क्योंकि इसतरफ बहुत गहरी भँवर थी। वहाँ हर समय पानी खूब तेजी से घूमता रहता था। उसमें जो फँस गया, वह आज तक जिन्दा नहीं बचा। मेवाकी आज की यह हरकत जानलेवा थी। इससे सेवा को बहुत दुख हुआ, लेकिन उसने कहीं कोई शिकायत नहीं की। न घर में, न स्कूल में। वहरोज की ही तरह स्कूल आता-जाता रहा।

इसके कुछ दिन बाद एक घटना अपने आप हो गई। मेवा और उसके दोस्त स्कूल से लौट रहे थे। वे बीचो-बीच पुल से गुजर रहे थे।उसी समय पता नहीं कहाँ से सामने से एक मरकहा बैल उछलता-कूदता आ गया। वह रस्सी तुड़ाकर आया था। गुस्से से फुँफकार रहा था।मेवा और उसके दोस्त यह मुसीबत देखकर घबड़ा गये। बैल से बचने की कोशिश करने लगे। किनारे की ओर साइकिलें लेकर भागे। बैल तोफुँफकारता हुआ उस पार निकल गया, लेकिन मेवा अपने को सम्भाल नहीं पाया। वह हड़बड़ाहट में साइकिल सहित नदी में जा गिरा।जिधर मेवा गिरा था, उस तरफ भँवर थी। वह उसी भँवर में साइकिल सहित फँस गया। यह देखकर मेवा के दोस्तों के होश उड़ गये। वेबचाओ-बचाओ करके शोर मचाने लगे। कुछ और लोग इकट्ठा हो गये। सभी हाय-हाय कर रहे थे। भँवर में कूदने की हिम्मत किसी की नहींथी।

उसी समय सेवा भी स्कूल से लौट रहा था। पुल पर भीड़ देखकर वह और तेजी से लपका। वहाँ झाँककर देखा तो सन्न रह गया।उसने एक पल कुछ सोचा, फिर बस्ता उतार कर रख दिया। परन्तु जैसे ही कूदने चला, वैसे एक आदमी ने उसे पकड़ लिया। उस आदमी नेकहा- ”तुम पागल हो गये हो क्या ? क्यों अपनी जान देना चाहते हो ? इस भँवर में फँस कर कभी कोई जिन्दा नहीं बचा। वह तो मर ही रहाहै, तुम क्यों मुफ्त में अपनी जान देने जा रहे हो ?“

सेवा के पास यह सब सोचने का समय नहीं था। उस समय एक-एक पल कीमती था। उसने उस आदमी को झटक दिया और नदीमें कूद पड़ा। सब लोग हक्का-बक्का रह गए। मेवा के दोस्त भी अवाक् रह गये। सेवा तो जानबूझ कर मौत के मुँह में कूद पड़ा। मेवा कोबचाने के चक्कर में वह भी उसी भँवर में पड़कर नाचने लगा। हाथ-पैर चलाने की सारी कोशिशें बेकार हो रही थीं। लेकिन सेवा ने हिम्मतनहीं हारी। कुछ पलों की कोशिश के बाद उसकी मुट्ठी में मेवा के बाल आ गये। अब सेवा उसके बाल खींचते हुए बाहर निकलने की कोशिशकरने लगा। लेकिन जैसे ही वह निकलने के लिए जोर लगाता, भँवर फिर उसे समेटकर नीचे गिरा देती। मेवा तो अब तक बेहोश हो चुकाथा। सेवा को भी ऐसा लगने लगा था कि अब वह नहीं बच पाएगा। हाथ-पैर जवाब देने लगे थे। आखिरी बार उसने फिर एक कोशिश की।शरीर की पूरी ताकत लगाकर बाहर की ओर उछाल मारी। और इस बार वह भँवर से बाहर निकल आया। पुल पर खड़े लोगों को भी आशाबँधी। वे साँस रोके यह सब देख रहे थे।

सेवा काफी थक चुका था। वह धीरे-धीरे तैरकर मेवा को खींचते हुए किनारे की ओर बढ़ने लगा। लोगों की भीड़ भी पुल से उतर करनदी के किनारे इकट्ठी हो गई। कुछ ही देर में सेवा, मेवा को खींचते हुए किनारे आ गया। मजे की बात यह थी, कि मेवा की साइकिल उसकेपैर में फँस गई थी। वह भी साथ में निकल आई थी। अब तक लोगों की भीड़ काफी बढ़ गई थी | गाँव से भी काफी लोग आ गये थे। मेवा तोबेहोश था ही, सेवा की भी हालत खराब थी। लोगों ने मेवा को उल्टा करके दबा-दबा कर उसके शरीर से पानी निकाला।

काफी देर बाद मेवा को होश आया। उसने अपने चारों ओर देखा। काफी लोग खड़े थे। उसके माँ-बाप भी थे। एक तरफ उसके दोस्तथे। दूसरी तरफ सेवा खड़ा हुआ मुस्करा रहा था। मेवा धीरे से उठा और सेवा से चिपटकर सुबक-सुबक कर रोने लगा। उसके दोस्त भी मुँहलटकाए आँसू टपका रहे थे। उस दिन से मेवा, सेवा को अपने भाई की तरह मानने लगा।
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पता:
लायक राम 'मानव'
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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ढोग बंद करो (लघुकथा) - अलका पाण्डेय

ढोग बंद करो
(लघु कथा)
जय माता शेरे वाली, जय भवानी, जय अम्बे,
पूरे नौ दिन कमला देवी सुबह से जयकारा लगा लगा कर पूरे घर को जगा देती है , बहुत श्राद्धा से भक्ति , हवन पूजन करती है ।कमला जी पूरे घर को हिदायत दे कर रखती है , कोई लहसन , प्याज़ नही खायेगा , साात्विक जीवन सब लोग पालन करते है नौ दिन , पर शगुन को यह सब नही पचता उसे कमला जी का यह सब ढोंग लगता ,पर बहू थी कुछ कह नही सकती बस दिल मसोस कर रहती और देखती रहती थी ,
आज अष्टमी थी सुबह से हलवा पूरी चने का प्रसाद बनाया गया था आसपास की कन्याओं को बुलाया गया उनके लिये तोहफ़े भी लाये गये
कन्या आई उनको पाटे पर बैठा कर कमला देवी पैर पूजने लगी अभी एक कन्या का पैर पूजकर दुसरी का पूजने जा रही थी की शगुन चिल्ला पडी बंद करे यह ढोंग कन्या पूजने का , घर में आने वाले बच्चे की जाँच करवाने की जिद्द की कही लड़की न आ जाये बेटा चाहिऐ और एक दिन कन्या पूजन का नाटक ,
क्यो माँजी क्या मेरी कोख में बेटी हुई तो , क्यो, करवाऊ टेस्ट मैं नही कराऊँगी जो भी है बेटी या बेटा , मेरा बच्चा है , वह दुनियाँ में आयेगा
सुन रही है आप माँ जी यही सही कन्या पूजन होगा आप का ...
कमला देवी ने शकुन को गले लगा कहाँ सही कह रही हो बेटी
मैं आज पूरी तरह सम्मान से इन कन्याओं का पूजन करुगी व माता रानी से आशीर्वाद में एक प्यारी सी परी मागूगी जो मेरी इस बगियां को गुलजार कर दे
चल देर हो रही है मैं पैर पूजती हूँ तुम सबको प्रसाद बाँटो ..
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स्थाई पता
अलका पाण्डेय
नवी मुंबई (महाराष्ट्र)
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जंगल का हाथी (बालगीत) - सुरजीत मान जलईया सिंह


जंगल का हाथी
(बालगीत)
जंगल से इक हाथी आया
हमें दिखाता खेल
कभी पाँव ऊपर करता है
कभी चीख चिल्लाता
कभी कभी हम बच्चों की वो
बातों पर इतराता
उसकी खातिर हम आपस में
करते ढक्कम पेल
जंगल से इक हाथी आया
हमें दिखाता खेल
बड़ी बड़ी आंखें हैं उसकी
एक सूंड है लम्बी
खम्भे जैसे पाँव उसके
और तनिक ना दम्भी
भार हमारा अपने ऊपर
हंस कर जाता झेल
जंगल से इक हाथी आया
हमें दिखाता खेल
इतनी काया है विशाल पर
अंहकार ना पाया
धन्य धन्य वो माँ सारी हैं
जिनने इनको जाया
बच्चों की खुशियों की खातिर
बन जाते यह रेल
जंगल से इक हाथी आया
हमें दिखाता खेल
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सुरजीत मान जलईया सिंह
दुलियाजान (असम)
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सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

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हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
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सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

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