कभी-कभी
(कविता)
”कभी कभी”कभी कभी दिल में ख़्याल आता है,
क्यों नहीं चयनित होती मेरी रचनाएँ ?
मुझ में कौशल की कमी है ?या,
किसी पैंतरे या सहयोग राशि के बल पर,
छपने का हुनर ही नहीं ? कभी कभी...
निराश हो जाती हूँ,
अपनी असफलता पर,
फिर ये दिल,दिल को समझाता है,
आधी रात के बाद,
फिर सवेरा आता है।
हार के बाद ही,
जीत का रास्ता नज़र आता है।
निराशा के बाद भी,
बहुत कुछ सम्भव हो जाता है।कभी कभी..।
कुंठा प्रेरणा में बदल जाती है,
सीखने की कोशिश में,
विचार कुलबुलाते हैं।
लेखनी से निकले शब्द,
पन्नो पर उतर आते है।
तलाशती हूँ विकल्प,
बेहतर करने को,
लड़ती रहती हूँ विचारों से कभी कभी...।
याद करती हूँ,
अपनी प्रतिबध्ध्ता,
होती हूँ तैयार,
करती हूँ ख़ुद का विस्तार।
निगाह रखती हूँ,
बड़े बड़े साहित्यकारों पे,
पढ़ती हूँ उन्हें,
बार बार,लगातार।
तैयार करती हूँ ख़ुद को,
नई चुनौती के लिए,
ढूँढती हूँ अवसर,
विफलताओं से ना घबरा कर,
तलाश ही लेती हूँ,
कोई ऐसा विषय,
दे सकूँ जिसमें सर्वश्रेष्ठ।
बिना हिचकिचाए,
जो सबको रास आए,
रच डालती हूँ,कोई ऐसी रचना,
जो सफलता का अहसास करा जाए।
कभी कभी....।-०-
पता
बहुत सुन्दर है आप कि कविता आदरणीय !सुन्दर रचना के लिये आप को बहुत बहुत बधाई है।
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