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Saturday 15 August 2020

देश हमारा (कविता) - राजेंद्र खांबे




देश हमारा
(कविता)
सबसे न्यारा है यह दुलारा, भारत देश हमारा ।
जीना-मरना जिसके लिए है, वह देश हमारा ।।धृ।।
    राजगुरु सुखदेव भगतजी ।
    हॅंसते-हॅंसते चढ गए फाॅंसी ।।
    शिरीष बाबू, बाबू गेनू ।
    लडते-लडते जान भी दे दी ।।१।।
वांची अय्यर, बंधु चाफेकर ।
अंग्रेजों के हुए शिकार ।।
गिनत-अनगिनत क्रांतिकारी ।
धधग-धधगति बन गए ज्वाला ।।२।।
    शांति प्रणेता नेहरु जवाहर ।
    गांधीजी तो सत्य पुजारी ।।
    तिलक-लाला, राणी लक्ष्मी ।
    जो थे साथी गरम दल के ।।३।।
फिर ऐसा हुआ अब जो ।
याद करेंगे अतीत को हम ।।
क्रांतिविरों जैसी हम भी
करेंगे अर्पण जीवनधारा ।।४।।
-०-
पता
राजेंद्र खांबे 
रत्नागिरी (महाराष्ट्र)

-०-



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राष्ट्र-वंदना (गीत) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

 राष्ट्र-वंदना
(गीत)
भारत मां के अभिनंदन में, आओ हम जयगान करें ।
नित्य चुनौती का उत्तर दे, रक्षित मां की आन करें ।।

हमने रच डाली नव गाथा,
 लेकर खडग हाथ अपने
 नहीं हटाये बढ़े हुये पग,
 पूर्ण किये सारे सपने

माटी को निज माथ लगाकर, आओ मंगलगान करें ।
नित्य चुनौती का प्रत्युत्तर दे, रक्षित मां की आन करें ।।

शत्रु नहीं बच पाया हमसे,
 पूत हमारे वीर सभी
सेनानी हम हैं मतवाले,
 हाथ गहें शमशीर सभी

वक़्त करे यदि मांग तो हँस-हँस,  हम निज का बलिदान करें ।
नित्य चुनौती का उत्तर दे, रक्षित मां की आन करें ।।

सीमाओं पर डंटे हुये हम,
  तीन रंग का मान रखें
जन गण मन की लाज निभाते,
 क़ायम निज की शान रखें

त्याग करें,और रखें एकता, मिल-जुलकर सहगान करें ।
नित्य चुनौती का उत्तर दे, रक्षित मां की आन करें ।।

बिस्मिल,भगतसिंह हम ही हैं,
  हम ही तो आज़ाद हैं
हम ही तो हैं नेहरू-गांधी,
  हम हरदम आबाद हैं

संविधान में रखें आस्था, मिल-जुलकर उत्थान करें ।
नित्य चुनौती का उत्तर दे, रक्षित मां की आन करें ।।
-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
-०-


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*भारतीय स्वत्रंतता संग्राम* (आलेख) - सपना परिहार

*भारतीय स्वत्रंतता संग्राम* 
(आलेख)
इस वर्ष हम सभी अपने देश का 74वाँ स्वत्रंतता दिवस मना रहे है।
सोने की चिड़िया कहा जाने वाला मेरा भारत कितने ही नामों से जाना जाता है।हिंदुस्तान ,हिन्द, आर्यावर्त आदि।
हमारे देश की गौरवशाली गाथा हमनें अपने पूर्वजों से कई बार सुनी है। सुख ,संपन्नता,वैभव, आध्यत्म,संस्कृति सब हमारे देश का प्रितिनिधित्व करती है।
हमारे देश की संस्कृति से प्रभावित होकर कई विदेशी हमारे देश मे आये ।कोई ज्ञान प्राप्त करने,  कोई राज करने,कोई व्यवसाय करने। सभी हमारे देश के गौरव को देख दाँतों तले ऊँगलियाँ दबाते थे।
हमारे देश को पराधीन करने की योजना कई वर्षों तक होती रही।
जो भी विदेशी यहाँ आता हमारे देश को पाने की इच्छा रखता।
पहले पारसी हमारे देश मे आये और बस गए,फिर यूनानी ,फिर मुगल आये और उन्होंने कई सालों तक हमारे  भारत देश पर राज किया।एक पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा समुन्द्र मार्ग से व्यापार की दृष्टि से हमारे देश मे आया।और अंत मे ब्रिटिश लोग आए ,जिन्होंने 200 वर्ष तक हमारे देश को गुलाम बना कर रखा। हमारे देश ने कई वर्षों
तक गुलामी सही।पर कहीं न कहीं देश के सपूतों ने  इस पराधीनता को मन से स्वीकार नहीं किया था।उनके मन मे आक्रोश पनप रहा था।अपनी आजादी के लिए वे प्रयत्नशील थे।

पर सही मायने में अगर स्वत्रंतता संग्राम का प्रारम्भ हुआ तो वह 10 मई सन 1857 में  मेरठ में मंगल पांडे के द्वारा हुआ ।
इसका मुख्य कारण था चर्बी वाले कारतूस जो कि गाय और सुअर की चर्बी से बने थे,जिसे मुँह से छीलकर उपयोग में लाना था।
इन सबमें एक ब्राह्मण युवक मंगल पाण्डे ने इस कार्य को करने से मना कर दिया।और यही से भारतीय स्वत्रंतता संग्राम की शुरूआत हुई।

नाना साहब ,महारानी लक्ष्मी बाई,तात्या टोपे ,चन्द्रशेखर आजाद आदि कई वीरों ने आजादी का बिगुल बजा दिया।

लगभग 200 वर्षों तक अंग्रेजों की दासता को अंत करने का समय आ चुका था।
कई क्रांतिकारी दल बन गए थे जिन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए अपना बलिदान दिया।बच्चे,बुजुर्ग,महिलाओं सबने इन आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और अंग्रेजों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया।
बेगम हजरत महल,चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि वीर सपूतों ने अपना सर्वस्व देश पर अर्पित कर दिया।
अंग्रेजों के बढ़ते  अत्याचार से देश का प्रत्येक व्यक्ति जूझ रहा था।
लगान वसूली,कई प्रकार के कर  विदेशी वस्तु के उपयोग पर दबाव और न जाने कितने अत्याचारों को हमारे देश वासियों ने सहा।
भारतीयों पर इतने अत्याचार बढ़ गए कि उनका साँस लेना मुशिकल हो गया। सजा के तौर पर काले पानी की सजा,ऐसी अंधेरी कारागृह जिसमें व्यक्ति प्राण छोड़ दे ,ऐसी जगह भारतीयों को बंधक बनाए रखना।
इतनीं यातनाओं के बाद भी हमारे देश के वीर क्रांतिकारियों के अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने का उत्साह कम नहीं हो रहा था।

हमारे देश को आजाद करवाना इतना आसान नहीं था, क्रांति से भी स्वत्रंतता नही मिल पा रही थी।
इसी बीच हमारे देश के कई महान विचारक आगे आये और उन्होंने  भी अपना योगदान दिया।गुलामी के अलावा और भी बहुत कुछ था जैसे बाल विवाह, स्त्री शिक्षा ,विधवा विवाह, अश्पृश्यता  सती प्रथा,इन सबसे भी हमें मुक्ति दिलाना।
राजा राम मोहन राय,विवेकानंद, दयानंद सरस्वती  बंकिमचंद्र चटर्जी आदि कई लोगो ने इस हित मे प्रयास किया।
स्वत्रंतता संग्राम में क्रांतिकारी योजना होने के बाद भी आजादी मिलना मुश्किल हो रहा था।
1886  में  भारतीय कॉंग्रेस की स्थापना हुई  जिसके बाद कई राजनेतिक दल बनने लगे।
सभी ने अपने अपने स्तर पर देश को आजाद कराने के प्रयत्न किए।
हम यहाँ हमारे देश के क्रांतिकारियों के योगदान को भूल नही सकते।

लेकिन हमें उस समय एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो सबका प्रतिनिधित्व करे और देश की आजादी में अपना योगदान दे।
लाला लाजपत राय,गोपाल कृष्ण गोखले,विपिनचन्द्र पाल, सुभाष चन्द्र बोस आदि अपने अपने स्तर पर प्रयासरत थे।सुभाषचंद्र बोस ने तो आजाद हिन्द फ़ौज की स्थापना भी की।
देश की दशा को सुधारने के लिए गोखले जी ने 1913 में महात्मा गांधी जी को भारत बुलाया ,वे उनके दक्षिण अफ्रीका आंदोलन से काफी प्रभावित हुए। गाँधी जी उनके बुलावे पर भारत लौट आये।
उधर अंग्रेजों का अत्याचार बढ़ता ही जा रहा था।
और इसका सबसे क्रूर अत्याचार था "13 अप्रेल 1919 "उस दिन बैसाखी का पर्व था ।और उस पर्व को मनाने सभी लोग इकट्ठा हुए थे।जब ये खबर अंग्रेज अधिकारी
जनरल डायर को पता चली तो उसने सैनिकों को उन तमाम बुजुर्ग,महिलाओं, बच्चों पर जलियांवाला बाग में अंधाधुंध गोलियां चलाने का आदेश दे दिया।
कुछ लोग अपनी जान बचाने कुएं में कूद पड़े फिर भी सिपाहियों ने कुँए में भी गोली दाग दी।
इस भीषण हत्याकांड ने पूरे देश को आक्रोशित कर दिया।
अब तो आजादी की लहर मानो अपने उफान पर थी ।
लोगो ने विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया।

गाँधी जी के सहयोग से देश की आजादी के लिए कई आंदोलन किये गए। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी अपनाओ, असहयोग आंदोलन, नमक कानून तोड़ो आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन में " करो या मरो"का नारा दिया।इस आंदोलन ने देश की सभी जेल को आंदोलन कारियो से भर दिया।
1857 से प्रारंभ हुई  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई अब अपने अंतिम चरण पर थी।
देश की आजादी में अपने प्राणों की आहुति देने वाले ऐसे कई वीर सपूतों को हम कभी नही भुला सकते जिनके योगदान के बिना ये आजादी सम्भव नही थी।
अंग्रेजो की हम भारत वासियों में फूट डालने की नीति प्रारम्भ से ही रही ,वे ये भी नही चाहते थे कि भारतीय शिक्षा प्राप्त करें और आगे बढ़े।
उन्होंने हमारे देश के हिंदु-मुस्लिम भाइयों को अलग करने की योजना बनाकर "1913 में बंगाल विभाजन"की घोषणा कर दी।
और इस तरह हमारे भारत के टुकड़े होना प्रारम्भ हो गया।

गाँधी जी के सत्य अहिंसा के मार्ग के पर चलते हुए आखिरकार 1942 में आजादी के लिए आंदोलन को तेज कर दिया।हमारे देश को स्वाधीन कराने का समय लगभग आ चुका था।
सभी के योगदान की वजह से आखिर वह समय आ ही गया जब हमारा देश स्वाधीन हो ही गया।
इतने सालों की मेहनत और कुर्बानी  रंग लाई और अब हम अपने आजाद देश की खुली हवा में साँस लेने जा रहे थे।
पर हमें इसका भुगतान देश के 2 टुकड़ों में करके भुगतना पड़ा।

14 अगस्त की 1947 की मध्य रात्रि को आखिर हमारा देश स्वत्रंत हो ही गया 200 वर्षो की दासता से सभी भारत वासियों को छुटकारा मिल ही गया।
भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए  पंडित जवाहर लाल नेहरू जी को  देश का प्रधानमंत्री बनाया गया।
और दूसरी तरफ हमारे ही देश का दूसरा अंश जिसे पाकिस्तान का नाम दिया गया,उसके प्रधानमंत्री के रूप में मोहम्मद अली जिन्ना को चुना गया।
"इतने वर्षों का संघर्ष आसान नहीं था हर भारतीय का।पर हम उन सभी देश के महान सपूतों को नमन करते है जिन्होंने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप इस धरा को स्वंतत्र कराया।
हम उन सभी वीरों के आभारी रहेंगे जिनकी वजह से आज हम सभी एक स्वतंत्र भारत मे चैन की साँस ले रहे है।
-०-
पता:
सपना परिहार 
उज्जैन (मध्यप्रदेश)


-०-
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तिरंगा भारत की शान (कविता ) - अतुल पाठक 'धैर्य'



तिरंगा भारत की शान
(कविता)
तिरंगा भारत की शान है,
माँ भारती की अमिट पहचान है।

हम देशप्रेमियों के दिल की धड़कन,
यही हमारी जान है।

हिम शिखर पर लहराता,
गौरव राष्ट्र का बतलाता।

हर हिन्दुस्तानी दिल का,
बढ़ाता ये सम्मान है।

इसकी खातिर हर फौजी,
देना अपनी जान है।

हर देशभक्त का सपना,
तिरंगे का मान है।

जो शौर्य की गाथा रचता,
वो दहाड़ता हिन्दुस्तान है।

हर हिन्दवासी की जान,
और वतन का अभिमान है।

तिरंगा भारत की शान है,
माँ भारत की अमिट पहचान है।
-०-
पता: 
अतुल पाठक  'धैर्य'
जनपद हाथरस (उत्तरप्रदेश)

-०-

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मेरा वतन हिन्दुस्तान (कविता) - मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'



मेरा वतन हिन्दुस्तान
(कविता)
मेरा वतन - मेरा वतन प्यारा है हिन्दुस्तान
सबसे प्यारा मेरा प्यारा वतन है हिन्दुस्तान

गगन को छूले ऊँचा शिखर जहाँ हिमालय
जहाँ से निकले नदियाँ वो मेरा हिन्दुस्तान

उतर का बड़ा मैदान नदियों से है खुशहाल
खाद्यान जहाँ निपजे वो वतन है हिन्दुस्तान

विभिन्नता मेंभीएकता जहाँ नजर आती हो
विभिन्न जाति धर्मो का प्यारा है हिन्दुस्तान

काशमीर से केरल तक एकता का संचार
पूर्व से पश्चिम एक सूत्र में बंधा हिन्दुस्तान

एक संविधान की छत्रछाया में सवा अरब
एक भाषा से जुड़ा मेरा प्यारा हिन्दुस्तान

हिन्दु मुस्लिम सिक्ख ईसाई वतन के लाल
इनकी ताकत से फले-फूले मेरा हिन्दुस्तान

मेरे वतन की महक से महके दुनियाँ सारी
'नाचीज'तकदीर से तू जन्मा वो हिन्दुस्तान
-०-
मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'
मोहल्ला कोहरियांन, बीकानेर

-०-
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स्वतंत्रता इतिहास हमारा (कविता) - रामगोपाल राही


स्वतंत्रता इतिहास हमारा
(कविता)
उस काल के बुरे हाल की,
 सच्चाई कुछ ऐसी थी |
 अपना देश विदेशी शासन ,
बात यह उलझनजैसी थी ||

 कैसे मिली स्वतंत्र हमको ,
लंम्बी बड़ी कहानी है |
प्रारंभ से संघर्ष अंत तक ,
देश भक्ति कुर्बानी  है ||

 मंगल पांडे देश भक्त ने ,
अँग्रेजों को कँपा दिया |
 फाँसी के फंदे पर लटका ,
मगर देश को जगा दिया ||

चला सिलसिला लिया मोर्चा
 तब झाँसी की रानी ने |
तेजस्वी भारत की नारी,
 दुर्गा वीर भवानी ने ||

स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध में ,
महानायक बलिदान हुए |
जागी जनता लिया मोर्चा ,
क्रांति ओर रुझान हुए ||

क्रांति दल ने अलख जगाया ,
मची खलबली भारी थी |
अँग्रेजों को चैन  न पल भर ,
 लहर क्रांति की जारी थी ||

लहर उठी स्वदेश प्रेम की ,
भारत माँ जय कारों से |
जन जागरण वंदे मातरम ,
स्वतंत्रता के नारों से ||

जग्गी चेतना गाँव शहर में ,
प्रातः झंडा गीतों से |
स्वतंत्रता के लिए तराने ,
जोश जगाते गीतों से ||

व्यापारी बन बैठे शासक,
की  उनने गद्दारी थी |
अपने  देश में अपना शासक ,
उनसे माँग हमारी थी ||

 क्रांतिकारी जूझ  पढ़े थे ,
अपना देश बचाने को |
टूट पड़े थे अंँग्रेजों पर ,
तत्थर थे  कुर्बानी को ||

देश भक्ति में बलिदानों का,
 संघर्षों का दौर चला |
अँग्रेजों का दमन चक्र अब  ,
देश में चारों ओर चला ||

देशभक्त कई कुचल दिए थे ,
दौड़े उन पर घोड़े थे |
सही यातना फाँसी फंदे ,
पड़े पीठ पर कोड़े थे ||

अँग्रेजों के विरुद्ध बगावत ,
चहुँ खिलाफत नारे थे ||
अँग्रेजों तुम भारत छोड़ो ,
बोल उठे जन सारे थे ||

बुलंन्द हौसले हाथ हथकड़ी ,
जज्बा जोश नजारा था |
भारतमाँ के जयकारों संग ,
स्वतंत्रता का नारा था ||

दीर्घ सिलसिला संघर्षों का ,
वर्षों तक आवाहन हुए |
उग्र प्रदर्शन देश भक्ति में ,
क्रांतिवीर बलिदान हुए ||

जलियाँवाला बाग की घटना,
 दहला भारत सारा था |
 उबल  पड़ा  था सारा भारत ,
हिंसक हुआ नजारा था ||

भगत सिंह सुखदेव राजगुरु ,
आजाद स्वाभिमानी को |
 भूल न सकते भारतवासी ,
क्रांतिवीर  बलिदानी  को||

नेताजी सुभाष का गूँजा ,
जय हिंन्द का नारा था |
इनकी गतिविधि देख हतप्रभ,
 ब्रिटिश राज तब सारा था ||

राष्ट्रवादी गांधी नेहरू ,
देशभक्त कई जेल गए |
सावरकर से क्रांतिकारी ,
कई  प्राणों पर खेल गए ||

सत्याग्रह व आंदोलन का ,
फैला विकट नजारा था |
अंग्रेजी सत्ता के सम्मुख ,
बचा न कोई चारा था

अँग्रेजों को चैन नहीं था ,
पल-पल में हैरानी थी |
सत्याग्रह व आंदोलन ने,
लिक्खी नई कहानी थी ||

सन उन्नीसौ सैतालिस  में,
परतंत्रता का अंत हुआ |
15 अगस्त को मिली स्वतंत्रता ,
 भारत देश स्वतंत्र हुआ ||

अपने देश में अपना शासन ,
आधिपत्य अधिकार हुआ ||
लाल किले पर उड़ा तिरंगा ,
अवगत सब संसार हुआ ||

चहुँ  देश में जश्न मना था,
स्वतंत्रता के नारे थे |
लहरा  फहरा चहुँ तिरंगा ,
भारत माँ जय कारे थे ||

बलिदानों का  रहा सिलसिला ,
गुजरा देश  तबाही  से ,
स्वतंत्रता इतिहास हमारा ,
लिखा खून की स्याही से ||
-०-
पता
राम गोपाल राही
बूंदी (राजस्थान)
-०-



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आजादी का पर्व (कविता) - सूर्य प्रताप राठौर


आजादी का पर्व
(कविता)
शायद बिसर गए वो दिन जब हम गुलाम कहलाते थे,
हर सुबह इक नई उमंग से आजादी की सौगंध खाते थे।
स्वतंत्रता को धर्य व साहस से लड़कर हमने पाया है,
देश को उन्नति व प्रगति का सही मार्ग दिखलाया है।
गांधी, तिलक व वीर शिवाजी ने हमको सब सिखलाया है
धैर्य, एकता और अखंडता का पाठ हमें पढ़ाया है।
रहे तिरंगा ऊंचा जग में बस इतना ही अरमान है,
इसके तीनों रंग ही बस बन गए हमारी पहचान हैं।
किंतु प्रतीत होता है ऐसा इन विकट परिस्थितियों में
नहीं संजो पाए शहीदों को हम अपनी स्मृतियों में।
फिर से बटे हुए हैं आज हम मंदिर और मस्जिदों में ,
नहीं बचा उबाल देश हित का हमारे लहू के कतरों में।
जुड़ना है फिर साथ-साथ ही इस मुश्किल के दौर में,
संग संग चले थे जैसे बापू एक लाठी के जोर में।
जैसे संग लड़ कर पाया हमने अपनी इस आजादी को
बंद कर एक सूत्र में फिर हम पाएंगे कामयाबी को।
-०-
सूर्य प्रताप राठौर
सांगली (महाराष्ट्र)

-०-



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एक शहीद ऐसा भी (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला



एक शहीद ऐसा भी
                (कविता)
रो रही थी माता एक फूट फूट के
कि चल दिया था उसका लाल उसको छोड़ के

परेशान हो गयी वो उसको ढूंढ ढूंढ के
मिल ना रहा था बेटा कहॉं बैठा छोड़ के

जब बीते कई दिन और बीती कई रात
लोगो ने माँ को बोली फिर एक नयी बात

थाने मे जाके रपट लिखवा दो माँ हर हाल
इनके ही प्रयासों से अब मिलेगा तेरा लाल

कहने से सबके बूढी माता थाने पहुंच गयी
बेटे की फोटो देकर दरखास्त ये करी

लाल मेरा खो गया है कई दिन से सरकार
ढूंढ करके लादो ये माँ मानेगी उपकार

गजब का था निशाने बाज करता था बस कमाल
दुश्मन को मारने की ही करता था वो बात

कहता था फौज जाऊंगा पर ना था कोई ठिकाना
शिक्षण ना कोई प्रशिक्षण कैसे लगता उसका निशाना

मॉं रोये जा रही थी ना कोई था सपोर्ट
आखिर को अॉफिसर ने लिख दी उसकी रिपोर्ट

अफसर ने कहा जा मॉंअब चैन से घर जा
हम ढूंढ कर लायेंगे तेरा बेटा चुप हो जा

काफी दिनो के बाद मॉं को एक सूचना मिली
शिनाख्त बेटे की करने की उसे सजा मिली

लिपटा था लाल उसका आज तिरंगे झंडे मे
और देश गर्व कर रहा था उसके मरने मे

ना जाने कैसे पहुचा वो युद्ध के मैदान
 दुश्मन को मार स्वयं तज दिये थे प्राण

शरीर छलनी था सारा लगता था देख के
हैवानियत की हद पार कर दी थी बैरी  ने

गर्म लोहे की राड से उसके कानो को फोड़ा था
नाखुनो को खींच के सारी हड्डियो को भी तोडा़  था

धारदार शस्त्र से आँखे निकाल ली गयी थी
इंसानियत की सारी हदे पार कर दी गयी थी

सरहद मे जाके उसके पुत ने एैसा कमाल दिखलाया था
माँ ने देखा जब लाल को एैसे , फक्र उसे हो आया था

जो रो रही थी अब तक बेटे के विरह व्यथा से
अब हंसने लगी थी सुन कर बेटे के वीर कथा पे

धन्य हुयी मै आज हे धरती मॉं जो मुझको जनम दिया
इस पावन भूमि पे जन्म के एैसे लाल को जनम दिया

अट्टहास कर उठी अचानक हाँथ मे तिरंगा उठा लिया
जय हिन्द जय भारत जय मेरा लाल कहके उसने भी दम तोड़ दिया ।

एक नही अनेक हैं माता एैसी मेरे भारत देश मे
शत शत नमन है उनको आज अपने इस स्वदेश मे ।
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

-०-



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लोक नायक रघु काका (कहानी) - सूबेदार पाण्डेय 'आत्मानंद'


लोक नायक रघु काका
(कहानी)
(दो शब्द रचनाकार के------ अलाव घास फूस तथा‌ लकडी  के उस ढेर को कहते हैं जो जाड़े के दिनों में दरवाजों पर जलाया जाता है, जिससे लोग हाथ सेकते है जिसके अलग अलग भाषाओं में अनेक नाम हैं,जैसे , कौड़ा, तपनी, तपंता ,धूनी आदि न जाने ऐसे कितने नाम अनेक भाषाओं में,जिसे जाड़े से मुक्ति के लिए लगभग हर दरवाजे पर लकड़ी तथा घासफूस का ढेर जलाया जाता है ,ठंढ़ से मुक्ति पाने के लिए,यही वो जगह है जहां  कथा  कहानियों की अविरल धारा बहती थी। यहीं गीता रामायण महाभारत की कथाओं  का आकर्षण खींच लाता था लोगों को, अगर अलाव न होते तो आज सारी दुनियां मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचनाओं से  बंचित ही‌ रहती,और कफ़न जैसी काल जयी रचना का जन्म न हो पाता। शायद  इस कथा का जन्म भी यहीं हुआ था। इसके उद्गम स्थल का उद्गम श्रोत भी अलाव ही है।) ‌

हमारे बगल वाले गांव के ही रहने वाले थे रघु काका, उन्होंने अपने जीवन में बहुत सारे उतार चढ़ाव देखे थे। हमारे दादा जी जब कभी अलाव के पास बैठ रघु काका के बहादुरी पर चर्चा छेड़ते तो लगता जैसे वे उनके साथ बीते दिनों की स्मृतियों में कहीं खो जाते। क्योकि वे उनके बिचारों के प्रबल समर्थक थे और इसके साथ हम बच्चों के ज़ेहन में रघू काका का ब्यक्तित्व तथा उनके निष्कपट ब्यवहार की यादें बस‌ जाती, तभी वे हमारे लोक कथा के नायक बन उभरे। यद्यपि आज वो हमारे बीच नहीं रहे, दिल की लगी गहरी भावनात्मक चोट ने उन्हें बिरक्ति के मार्ग पर पर ढकेल दिया, लेकिन वे और उनका चरित्र हमारी स्मृतियों में बसा हुआ आज भी कहानी बन कर पल रहा है। अब जब कभी स्मृतियों के झरोखे खुलते हैं, तो उनकी यादें  बरबस ही फिर ताजा हो उठती है, तथा उनके द्वारा बचपन में सुनाये गये गीतों के स्वर लहरियों की ध्वनितरंगे  कानों में मिसरी सी घोलती गूंजउठती है। उनका प्रेमपगा ब्यवहार संस्मरण बन जुबां ‌पे मचल उठता है।
रघू काका ने पराधीन भारत माता की अंतरात्मा की पीड़ा, बेचैनी की  छटपटाहट को बहुत ही नजदीक से अनुभव किया था।वे भावुक हृदय इंसान थे।वो उस समुदाय से आते थे,जो अब भी यायावरी करता जरायम पेशा से जुड़ा हुआ है। जहां आज भी अशिक्षा, नशाखोरी, देह व्यापार गरीबी तथा कुपोषण के जिन्न का नग्नतांडव देखा जा सकता है सरकारों द्वारा उनके विकास की बनाई गई हर योजना उनके दरवाजे पहुंचने के पहले ही दम तोड़ती नजर आती है। उनके कुनबों के लोगों का जीवन आज भी आज यहां तो कल वहां सड़कों के किनारे सिरकी तंबुओं में बीतता है।ढोल बजाकर गाना भीख मांग कर खाना तथा आपराधिक गतिविधियों का संचालन ही उस समुदाय का पेशा था। उसी समुदाय की उन्हीं परिस्थितियों से धूमकेतु बन उभरे थे रघू काका जिनका स्नेहासिक्त  जीवन व्यवहार उन्हें औरों से अलग स्थापितकर देता।वो तो किसी और ही मिट्टी के बने थे।वो भी अपनीरोजी-रोटी की तलाश में वतन से दूर साल के आठ महीने टहला करते, बहुत दूर दूर तक उनका जाना होता।
लेकिन वे बरसात के दिनों का चौमासा अपने गांव जवार में ही बिताते। वो बरसात के दिनों में गांवों-कस्बों में घूम घूम आल्हा कजरी गाते सुनाते, इश्वर ने उन्हें अच्छे स्वास्थ्य का मालिक बनाया था।शरीर जितना स्वस्थ्य हृदय उतना ही कोमल चरित्र बल उतना ही निर्मल,बड़ी बड़ी सुर्ख आंखें, घुंघराले काले बाल  रौबदार घनी काली मूंछें, चौड़ा सीना लंबी कद-काठी,मांसल ताकतवर भुजाओं का मालिक बनाया था उन्हें,बांये कांधे पर लटकती ढोल थामें दांये कांधे पर अनाज की गठरी ही उनकी पहचान थी, वे बहुत ज्यादा की चाह न रख बहुत थोड़े में ही संतुष्ट रहने वाले इंसान थे। वे भले ही चौपालों में गीत गा कर पेट भरते रहे हो, लेकिन हृदय दया से परिपूर्ण था, और हम बच्चों के तो वो महानायक हुआ करते थे, लोकगायक होने के नाते वे भावुक हृदय के मालिक थे।
वो बरसात में जब हमारे चौपालों में आल्हा या कजरी गीतों के सुर भरते तो मीलों दूर से लोग उनकी आवाज़ सुन उसके आकर्षण से बंधे खिंचे चले ‌आते और चौपालों में भीड़ मच जाती, वे भावों के प्रबल चितेरे थे, कभी आल्हा-ऊदल केशौर्य चित्रण करते जोश में भर नांच उठते तो कभी कजरी गीतों में राम की बिरह बेदना का चित्रण करते रो पड़ते। अथवा सुदामा द्रोपदी के चीर हरण कथा सुना लोगों को रोने पर बिबस कर देते।वे जब कभी रामचरितमानस की चौपाइयों में
बानी जोड़ ‌गाते-----------
लछिमन कहां जानकी होइहै, ऐसी बिकट अंधेरिया ना।
घन घमंड बरसै चहुओरा, प्रिया हीन तरपे मन मोरा।
ऐसी बिकट अंधेरिया ना।। (अरण्यकांड रामचरित मानस ) से
                तो उनकी भाव बिह्वलता से सबसे ज्यादा प्रभावित महिला ‌समाज ही‌ होता और उसके ‌बाद चौपालों में बिछी चादर पर कुछ पलों में ही अन्नपूर्णा और लक्ष्मी दोनों ही बरस पड़ती,और गांवों घरों की‌ महिलाएं अन्न के रूप में स्नेहबर्षा से उनकी झोली भर देती।जिसे बाजार में बेच वे नमक तेल लकड़ी तथा आंटे का प्रबंध कर लेते, और उनकी गृहस्थी की गाड़ी ‌आराम से चल जाती।वे जब भी बाजार से लौटते तो हम बच्चों के लिए रेवड़ियों तथा नमकीन का उपहार लाना कभी भी नहीं भूलते, हम बच्चों से मिलने का उनका अपना खास अंदाज था ।वे जब हमारे झुण्डों के करीब होते तो खास अंदाज में ‌ढ़ोलक पर थाप देते, हम बच्चों का झुंड उस ढ़ोलक की चिर परिचित आवाज के ‌सहारे आवाज की दिशा में दौड़ लगा देते,उनकी तरफ कोई गले का हार बन उनसे लिपट जाता तो कोई पांवों में जंजीर बन, इसी बीच कोई शरारती बच्चा उनके हाथ का थैला छीन भागता तो तो दौड़ पड़ते उसके पीछे पीछे,और नमकीन का थैला ले सबको बराबर बराबर बांट देते ।
निम्न‌ कुल में जन्म लेने के बाद भी उन्होंने अपना एक अलग‌ ही आभामंडल विकसित कर लिया था।इसी लिए वे उच्च समाज के महिला पुरुषों के आदर का, बन कर उभरे थे।मुझे आज भी वो समय‌ याद है,जब देश अंग्रेजी शासन की ग़ुलामी से आजादी का आखिरी संघर्ष कर रहा‌ था। महात्मा गांधी की अगुवाई में अहिंसात्मक आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था, हज़ारों लाखों भारत माता के अनाम लाल  हंसते हुए फांसी का फंदा चूम शहीद हो चुके थे।इन्ही परिस्थितियों ने रघू काका के हृदय को आंदोलित और  उद्वेलित कर दिया था । वे भी अपनी ढ़ोल‌क ले कूद पड़े थे दीवानगी के आलम में आजादी के संघर्ष में अपनी भूमिका निभाने, तथा अपना योगदान देने।अब उनके गीतों के सुर लय ताल बदले हुए थे,वे अब प्रेम बिरह के गीतों के बदले देश प्रेम के गीत गाकर नौजवानों के हृदय में देशभक्ति जगाने लगे थे, अब उनके
गीतों में भारत मां के उर अंतर की‌ वेदना मुख्रर हो रही थी।
              इसी क्रम में एक दिन वे गले में ढोल लटकायेआजादी के दीवानों के दिल में जोश भरते जूलूस की अगुवाई ‌कर रहे थे। उनके देशभक्ति के भाव‌ से  ओत-प्रोत ओजपूर्ण गीत सुनते सुनते जनता के हृदय में देशभक्ति का ज्वार उमड़ पड़ा था,देशवासी भारत माता की जय , अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे लगा रहे थे।तभी अचानक उनके जूलूस का सामना अंग्रेजी गोरी फौजी टुकड़ी से हो गया था । अपने अफसर के आदेश पर फौजी टुकड़ी टूट पड़ी थी निहत्थे भारतीय आजादी के दीवानों  पर, सैनिक उन निहत्थों पर‌ घोडे़ दौड़ाते हुए हंटरो तथा बेतों से पीट रहे थे।तभी अचानक उस जूलूस का नजारा बदल गया,  भारतीयों के खून की प्यासी फौजी टुकड़ी का अफसर  हाथों से तिरंगा थामे बूढ़े आदमी को जो उस जूलूस का ध्वजवाहक था, को अपने आक्रोश के चलते  हंटरो से पीटता हुआ  पिल  पड़ा था उस पर। वह बूढ़ाआदमी दर्द और पीड़ा  से बिलबिलाता बेखुदी के आलम में भारत माता की जै के नारे लगाता चीख चिल्ला रहा था,वह अपनी जान देकर भी ध्वज झुकाने तथा हाथ उसे छोड़ने के लिए तैयार न था, और रघू काका उस बूढ़े का अपमान सह नहीं सके, फूट पड़ा था उनके हृदय का दबा आक्रोश,उनकी आंखों में खून उतर आया था ।
उन्होंने झंडा झुकने नहीं दिया , उस बूढ़े को पीछे ढ़केलते हुए अपनी पीठ आगे कर दी थी,  आगे बढ़ कर सड़ाक सड़ाक सड़ाक  पीटता जा रहा था अंग्रेज अफसर ,तभी रघूकाका ने उसका हंटर पकड़ जोर से झटका दे घोड़े से नीचे गिरा दिया था । जो उनके चतुर रणनीति का हिस्सा थी। उन्होंने अपनी ढोल को ही अपना हथियार बना अंग्रेज अफसर के सिर पर दे मारा था, अचानक इस आक्रमण ने उसको संभलने का मौकानहीं दिया ‌था । वह अचानक हमले से घबरा गया ,फिर तो जूनूनी अंदाज में पागलों की तरह पिल पड़े थे उस पर  और मारते मारते भुर्ता बना दिया था उसे,उसका रक्तसना उसका चेहरा बड़ा ही बीभत्स तथा विकृत भयानक दीख रहा था।वह चोट से बिलबिलाता गाली देते चीख पड़ा था,(ओ साला डर्टीमैन टुम अमको मारा ,अम टुमकों जिन्डा नई छोरेगा,)और फिर तो उस गोरी टुकड़ी के पांव उखड़ ‌गये, थें।और वह पूरी टुकड़ी जिधर से आई थी उधर ही भाग गई थी ,और रघु काका ने‌अपनी‌ हिम्मत से स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक नया अध्याय ‌लिख दिया था आज की जीत का सेहरा‌ रघु काका के सिर सजा था और उनका सम्मान और कद लोगों के बीच बढ़ गया ‌था वे लोगों की श्रद्धा का केन्द्र ‌बन बैठे थे।
                            लेकिन कुछ ही दिन बाद रघु काका अपने ही‌ स्वजन बंधुओं के ‌धोखे का शिकार बने थे,वे मुखबिरी व गद्दारी के चलते रात के छापे में पकड़े गये थे , लेकिन उनके चेहरे पर भय आतंक व पश्चाताप का कोई भाव नहीं,वे जब घूरते हुए अंग्रेज अफसर की तरफ दांत पीसते हुए देखते तो,उसके शरीर में झुरझुरी छूट जाती।‌उस दिन उन पर अंग्रेज थानेदार अफसर ने बड़ा ‌ ही बर्रबर अत्याचार किया था , लेकिन वह रघु के‌ चट्टानी हौसले‌‌को तोड़ पाने में ‌विफल रहा ,वह हर उपाय‌ शाम दाम दंड भेद अपना चुका था  , लेकिन असफल रहा था मुंह खुलवाने में,। न्यायालय से रघु काका को लंबी‌जेल की सजा सुनाई गई थी , और उन्हें कारा गृह की अंधेरी तन्हाई काल कोठरी में डाल दिया ‌गया था, लेकिन वहां जुल्म सहते हुए भी उनका जोश जज्बा और जुनून कम नहीं हुआ।उनके जेल जाने पर उनके एकमात्र वारिस बचे पुत्र  राम खेलावन ‌ के पालन पोषण की‌जिम्मेदारी  समाज के वरिष्ठ मुखिया लोगों ने अपने उपर ले लिया था । राम खेलावन ने भी अपनी विपरित परिस्थितियों के नजाकत को समझा था ,और अपनी पढ़ाई पूरी मेहनत के ‌साथ की थी, तथा उच्च अंकों से परीक्षा ‌पास कर निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ते हुए अपने ही जिले के शिक्षा विभाग में उच्च पद पर आसीन हो गये थे ।वे जिधर भी जाते, स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र होने के नाते उनको भरपूर सम्मान मिलता, जिससे उनका हृदय आत्मगौरव के प्रमाद से ग्रस्त हो गया था ,वे भुला चुके थे अपने गरीबी के दिनों को,।

अब देश स्वतंत्रत हो गया था,रघु काका जैसे लाखों अनाम शहीदों की कुर्बानी रंग लाई थी तथा रघु काका की‌त्याग तपस्या सार्थक ‌हुई , उनकी सजा के दिन पूरे हो चले थे,आज उनकी रिहाई का दिन था, जेलके मुख्य द्वार के सामने आज बड़ी ‌भीड़ थी, लोग अपने नायक को  अपने सिर पर बिठा‌अभिनंदन करने को आतुर दिख रहे थे। उनके बाहर आते ही वहां उपस्थित अपार जनसमूह ने हर हर महादेव के जय घोष तथा करतलध्वनि से मालाफूलों से लाद कर  कंधे पर उठा अपने दिल में बिठा लिया था । लोगों से इतना प्यार और सम्मान पा छलक पड़ी थी रघु काका की आंखें,।
इस घटनाक्रम से यह तथ्य बखूबी‌साबित हो गया कि जिस आंदोलन को समाज के संभी बर्गो का समर्थन मिलता है, वह आंदोलन जनांदोलन बन जाता है, जो व्यक्तित्व सबके हृदय में बस मानस पटल पर छा जाता है , वह जननायक बन सबके दिलों पर राज करता है।
 इस प्रकार समय चक्र मंथर गति से चलता रहा चलता रहा,और रघु काका जेल में बिताए यातना भरे दिनों  अंग्रेज सरकार  द्वारा मिली यातनाओं को भुला चले थे। और एक बार फिर अपने स्वभाव के अनुरूप कांधे पर ढोलक टांगें जिविकोपार्जन हेतु घर से
निकल पड़े थे,यद्यपि उनके पुत्र राम खेलावन अच्छा पैसा कमाने लगे थे,वो नहीं चाहते थे कि रघु काका अब ढोल टांग भिक्षाटन को जाय, क्यो कि इससे उनमें हीनभाव पैदा होती लेकिन रघु तो रघु काका ठहरे,उन्हें लगता कि गांव जवार की गलियां बड़े बुजुर्गो का प्यार बच्चों की‌ निष्कपट हंसी अपने ‌मोह पास में बांधे अपनी तरफ खींच रहीं हों,इन्ही बीते पलों की स्मृतियां उन्हें अपनी ओर खींचती ,और उनके कदम चल पड़ते गांवों की गलियों की ओर,।
                             आज महाशिवरात्रि का पर्व है, सबेरे से ही लोग-बाग जुट पड़े हैं भगवान शिव का जलाभिषेक करने, तथा शिवबराती बन शिव विवाह के साक्षी बनने, महाशिवरात्रि पर पुष्प अर्पित करने, मेला अपने पूरे यौवन पर, था,पूरी फिजां में ही दुकानों पर छनती कचौरियो जलेबियों की तैरती सोंधी-सोंधी गंध जहां श्रद्धालु जनों की क्षुधा को उत्तेजित कर रही थी,तो कहीं बेर आदि मौसमी फलों ‌से दुकानें पटी पड़ी थी,और कहीं घर गृहस्थी के सामानों से सारा बाज़ार पटा पड़ा था, तो कहीं जनसमूह भेड़ों मुर्गों  तीतर बुलबुल के लड़ाई का कौशल देखने में मसगूल था, कहीं लोक कलाकारों के लोक नृत्य तथा लोकगीतों की स्वरलहरियां लोगों के बढ़ते कदमों को अनायास रोक रही थी,इन्ही सबके बीच, मंदिर प्रांगण से गाहे-बगाहे उठने वाले हर-हर महादेव के जयघोष की तुमुल ध्वनि वातावरण में एक नवीन चेतना एवं ऊर्जा का संचार कर रही थी।
                                उन सबसे अलग -थलग पास के प्रा०पाठशाला पर कुछ अलग‌‌ ही ऱंग बिखरा पड़ा था महाशिवरात्रि के अवकाश में विद्यालय में वार्षिक सांस्कृतिक प्रतियोगिता चल‌ रही थी, निर्णायक मंडल के
मुख्य अतिथि जिले के मुख्य शिक्षाधिकारी श्री राम खेलावन को बनाया गया था। क्यो कि उनके ऊंचे पद के साथ एक स्वतंत्रता सेनानी का पुत्र होने का सम्मान भी जुड़ा था, जो उस समय मंचाशीन थे, प्रतियोगिता में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर्ता को संम्मानित भी राम खेलावन के हाथों होना था। प्रतियोगिता में एक से बढ़ कर एक धुरंधर प्रतियोगी अपनी कला प्रदर्शित कर‌ रहे थे।
ऐसे में सर्वोच्च प्रतिभागी का चयन ‌मुस्किल हो रहा था, एक कीर्तिमान स्थापित होता असके अगले पल ही‌ टूट जाता। उसी मेले में सबसे अलग-थलग जमीन पर आसन ज़माये अपनी ढोल की थाप पर रघूकाका ने आलाप लेकर अपनी सुर साधना की‌ मधुर तान छेड़ी तो, जनमानस विह्वल हो आत्ममुग्ध हो गया। उनकी आवाज़ का जादू तथा भाव प्रस्तुति का ज्वार सबके सिर चढ़ कर इस कदर बोल उठा कि,वाह बहुत खूब, अतिसुंदर, अविस्मरणीय, लोगों के जुबान से शब्द मचल रहे थे,कि तभी आई प्राकृतिक आपदा में सब ऱंग में भंग कर दिया।सब गुड़गोबर हो गया। पहले लाल बादल फिर उसके बाद तड़ितझंझा तथा काले मेघों के साथ ओलावृष्टि ने वो तांडव मचाया कि मेले में भगदड़ मच गई। जिसे जहां ठिकाना मिला वहीं दुबक लिया।उसी समय अपनी जान बचाने रघूकाका भी भाग चलें पाठशाला की तरफ, पाठशाला प्रांगण में घुसते ही सबसे पहले  मंचाशीन रामखेलावन से ही रघूकाका की नजरें चार हुई थी, लेकिन दो अपरिचितों की तरह, रघूकाका को देखते ही रामखेलावन ने अपनी निगाहें चुरा ली थी, उनके कलेजे की धड़कन बढ़ गई, मुंह सूखने लगा कलेजा मुंह को आ गया। वे अज्ञात ‌भय तथा आशंका से थर-थर कांप रहे थे, पसीने से तर-बतर बतर हो गये । उन्हें डर था कि कहीं ‌यह बूढ़ा मुझसे अपना रिस्ता सार्वजनिक कर के अपमानित न कर दे, इसलिए इन परिस्थितियों से बचने हेतु लोटा उठाये शौच के‌ बहाने रामखेलावन विद्यालय के ‍पिछवाडे छुप  आकस्मिक परिस्थितियों से बचने का‌ प्रयास कर रहे थे।रघूकाका की अनुभवी निगाहों ने रामखेलावन के‌ हृदय में उपजे भय तथा अपने प्रति‌ उपजे‌ अश्रद्धा के भावों को पहचान लिया था ।वो लौट पड़े थे थके थके पांवों बोझिल कदमों से, मेले की तरफ़,दिल पे लगी आज की भावनात्मक चोट  अंग्रेजों द्वारा दी गई यातना की चोट से ज़्यादा गहरी एवम् दुखद‌ थी, जिसने आज उनके सारे हौसलों को तोड़ कर अरमानों का गला घोट दिया था।
अब तूफ़ान थम चुका था। उनके सारे सपने बिखर गये थे। वे वापस  लौट चलें थे, अपने गांव की उन गलियों की ओर जिसके निवासियों ने उन्हें अपार स्नेह दिया था। वहीं पर उनके अपने ने घृणा नफरत का उपहार दिया था।उन्हें प्रांगण से ‌बाहर निकलता देख रामखेलावन की जान में जान आई थी,और तुरंत मंचाशीन हो अपनी कुर्सी संभाल चुके थे। प्रतियोगियों को पुरस्कृत भी किया था , लेकिन उनके हृदय का सारा उत्साह जाता रहा था, उन दोनों बाप बेटों के मन में अपने ही विचारों के अंतर् द्वंद की आंधियां चल रही थी, दोनो की व्यथा अलग अलग थी, रामखेलावन सोच रहे थे कि यही स्थिति रही तो एक न एक दिन बूढ़ा बेइज्जती कर ही देगा। पिता जी के आचरण से मुझे अपमानित होना पड़ेगा। उन्होंने अपने मन‌मे झूठी शानो-शौकत तथा बड़प्पन का दंभ पाल लिया था।वे शायद यह भूल चुके थे कि वह आज जो कुछ भी है ,वह रघूकाका के त्याग तपस्या व ब्यवहार का परिणाम था,उसी के चलते ऊंचा ओहदा ऊंची कुर्सी मिली थी।वे आज दृढ़ निश्चय कर घर को चले थे कि  अब और नहीं वे आज ही बुढऊ की ढोल खूंटी पर टांग देंगे।एक तरफ जहां रामखेलावन के‌ के हृदय में आक्रोश की ज्वाला क्षोभ का लावा उबाल मार रहा था , वहीं रघूकाका किसी हारे हुएजुआरी की तरह  ‌बोझिल कदमों से घर लौट रहे थे
ऐसा लगा जैसे ‌जीवन के जुये में एक ही दांव पर वेअपना सबकुछ अपनी ‌सारी पूंजी एक बार में ही हार बैठे हों। आज चोट बलिष्ठ शरीर पर नहीं भावुक दिल पर लगी थी।,वे सोच रहे थे कि काश उस दिन अंग्रेजों की एक गोली उनके छाती में उतर गई होती तो अपमान जनक जिंदगी से संम्मानजनक मौत भली होती।इस प्रकार भावनाओं के भंवर मे‌डूबते उतराते ही रघूकाका घर पहुंचे थे।तब तक राम खेलावन का तांगा भी घर के दरवाजे पर आ लगा था,।
                      लालटेन की‌ पीली जलती हुई लौ की रोशनी के साये में उन दोनों बाप-बेटे का‌ सामना हुआ था,
एक ही रोशनी में बाप बेटों का रंग अलग अलग दिख रहा‌था। रघूकाका का चेहरा जहां जूड़ी के बुखार के मरीजों की तरह पीला म्लान एवम् उतरा दीख रहा था
वहीं रामखेलावन के चेहरे की‌ भाव भंगिमा बता‌ रही थी कि आक्रोश की आग‌मे जलते दजहकतेअंगारों सी लालिमा लिए रामखेलावन रूपी उगता सूरज आज अवश्य कहर ढ़ायेगा।
                   रघूकाका के सामने आते ही ना दुआ ना सलाम फट पड़े थे बारूद के गोले की तरह, रामखेलावन----------
(का हो बुढ़ऊ!  काहे हमरे इज्जत के कबाड़ा करत हउआ,अब तक ई ढोल रख द, तोहार सारी कमी हम पूरा करब,)।   अब रघूकाका से भी रहा नहीं गया----
उनके हृदय में पक कर मथ रहा भावनाओं का‌ फोड़ा फूट‌ पडा़ और वे भी अपने ‌ताव में आ गये और बोल पडे़
(राम खेलावन जी आज ई जे कुर्सी  तोहके मिलल ह, ई
एही ढोल के कमाई ह, हमें खुशी तो तब होत जब तूं सारे समाज के सामने सीना तान के कहता कि हम‌ एगो आल्हा गावे‌ वाला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के लडिका हई, जेवन अपने मेहनत अ इनके ‌परिश्रम के पसीना से इहा तक पहुंचल हइ,। औ अपने समाज के उदाहरन‌ बनता, लेकिन जे समाज में अपना बाप के बाप ना कहि‌ सकल उ बेटा के रिस्ता का निभाई,जा बेटा‌ तू आपन सम्मान के‌ जिनगी में सुखी रहा, हमें हमरे हाल पे छोडि दा  तू भले छूटि जईबा लेकिन  ई समाज अ ढोलक हम ना छोडि पाईब)इस‌प्रकार रघूकाका के ब्यंगबाणो ने रामखेलावन को आहत तो किया ही ,निरूत्तर भी,और बह चली उस सेनानी की आंखों से अश्रु धारा और फिर एक बार लौट चलें अपनी‌ सहचरी  ढोल को कंधे पे‌ लटकाये नीम स्याह काले घने अंधेरे के बीच जीवन की पथरीली राहों परअपने जीवन की नई राह तलाशने, उस राह पे चल पड़े उल्टे पांव जिस राह से चलकर वे घर आये थे।
               उन्होंने उस नीम अंधेरी घनी  कालीआजकी ‌रात  अपने मन में मचलते अंतर्दद्व के साथ शिवान में खेतों बीच बने भग़्न शिवालय में ‌बिताने का निश्चय कर लिया था आखिर वे जाते भी तो कहां राम खेलावन की उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं हुई थी,वो सोच रहे थे कि कल की मंजिल सुबह की सूर्योदय के साथ नई उम्मीद के सहारे ढ़ूढ़ ही लेंगे ।
वो मंदिर के बरामदे में बैठे कुछ सोच रहे थे, गतिशील समय के साथ रात गहराती जा रही‌थी,और उसी गहराती रात के साथ रघूकाका के हृदय का अंतर्दद्व तीव्र हो चला था,और ओ उसी अंतर्दद्व में फंसे अपनी स्मृतियों डूबते चले गयेथे। जब विचारों की गहनता बढ़ी तो रघूकाका के‌ स्मृतिपटल पर पत्नी का  चेहरा नर्तन कर उठा, ऐसा लगा जैसे वे उन बीते पलों से संवाद कर उठे हो , उन्हें पत्नी के साथ बिताए ‌पल हंसाने व रूलाने लगे थे, सहसा उनके स्मृतियों में पत्नी के मृत्यु के समय का दृश्य उभर आया था,और जीवन के आखिरी पल में कहे पत्नी के शब्द याद आ रहे थे।(आखिरी समय में उनकी पत्नी ने प्यार से उनका हाथ थामते हुए आशा भरी नजरों से उन्हें देखते हुए कहा,*देखो जी रामखेलावन अभी बच्चा है इसे पाल पोस कर अच्छा इंसान ‌बनाना , मेरे मरने पर इसी के‌ सहारे जीवन बिताना, अपना बुढ़ापा काटना, लेकिन दूसरी शादी मत करना।*) इसके बाद वह कुछ नहीं कह पाई क्यो कि रघूकाका ने उसको ओंठो पर अपना हाथ रख दिया।अब जीवन के आखिरी पलों में बिछोह‌ पीड़ा का भाव रघूकाका के हृदय में कटार की तरह चुभ रहे थे, जिसे सहने में वे असहाय नजर आ रहे थे। और फिर अगली सुबह उनकी पत्नी उनको रोता बिलखता छोड़ नश्वर संसार से बिदा हो गई।
                           पत्नी के क्रिया कर्म के बाद रघूकाका ने अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया रामखेलावन को पढ़ा लिखा अच्छा इंसान बना पत्नी ‌की आखिरी इच्छा पूरी करने का। रामखेलावन की परवरिश में उन्होंने कोई कमी नहीं की , लेकिन रामखेलावन के आज के ब्यवहार से आज वे टूट गये थे।इन्ही परिस्थितियों में जब स्मृतियो के सागर में तूफान मचा तो उन्हें लगा जैसे स्मृतिपटल का पर्दा फाड़ प्रगट हो उनकी पत्नी उनके आंसू पोंछ टूटे हृदय को दिलासा दे रही हो और रघूकाका बर्दाश्त नहीं कर सके थे अपने हृदय की‌ पीडा़ को,और उनके हृदय की पीड़ा आर्तनाद बन कर फूट पड़ी थी, और वे बिचारो में खोये हुए बुदबुदा उठे थे।-----------------
हाय प्रिये तुम कहां‌खो गई,अब मैं तुमसे मिल न‌ सकूंगा।
अपने दुख सुख मन की पीड़ा,कभी किसी से कह‌ न सकूंगा।
घर होगा परिवार भी‌ होगा, दिन होगा रातें भी होगी।
रिस्ते होंगे नाते होंगे, सबसे फिर मुलाकातें होंगी।
जब तुम ही न होंगी‌ इस जग में, फिर किससे दिल की बातें होंगी।
।।हाय प्रिये।।।1।।
तुम ऐसे आइ‌ मेरे जीवन में, जैसे ‌बहारें आई थी।
दुख सुख‌मे साथ चली मेरे, कदमों से ‌कदम मिलाई थी ।
थका हारा जब होता‌ था, सिरहाने तुमको पाता था।
कोमल स्पर्श और हाथ तुम्हारा,सारी पीड़ा हर लेता था
।।।हाय प्रिये।।।2।।।
जीवन ‌के झंझावातों में, दिन रात थपेड़े खाता था ।
उनसे टकराने का साहस तुमसे ही तो पाता था ।
रूखा‌ सूखा जो कुछ मिलता, उसमें ही खुश रह लेतीथी।
अपना ग़म अपनी पीड़ा, मुझसे कभी नं कहती थी ।
।।।हाय प्रिये ।।3।।
तुम मेरी जीवन रेखा‌ थी ,तुम मेरा हमराज थी।
और मेरे गीतों गजलों की,‌तुम ही तो आवाज थी ।
नील गगन के पार चली, शब्द मेरे खामोश‌ हो गये ।
ताल मेल सब कुछ बिगड़ा, और मेरे सुर साज खो गये।
               ।।।3।।।
अब शेष बचे दिन जीवन के, यादों के सहारे काटूंगा ।
अपने ग़म अपनी पीड़ा को, मैं किससे अब बांटूंगा ।
तेरी याद लगाये सीने से, बीते पल में मैं खो जाऊंगा।
ओढ़ कफ़न की चादर इक‌दिन , तेरी तरह ही सो जाऊंगा ।।4।।
इस प्रकार आर्तनाद करते करते, बुदबुदाते रघूकाका के ओंठ कब शांत हो गये पता नहीं चला,।वो गहननिंद्रा में
निमग्न हो गये, काफी‌ दिन चढ़ जाने पर ही चरवाहे बच्चों की‌ आवाजें सुन कर जागे थे,और अगल बगल छोटे बच्चों का‌ समूह खेलते पाया था,जिनकी मधुर आवाज से ही उनका मन खिलखिला उठा था,और वे एक बार फिर
सारी दुख चिंताये भूल कर बच्चों मे‌ बच्चा बनते दिखे।
और मेले से खरीदी रेवड़ियां और बेर फल बच्चों में बांटते दिखे ।तब से वह भग्न शिवालय ही उनका आशियाना बना।अब वे‌ विरक्त संन्यासी का जीवन गुजार ‌रहे थे, उन्हें जिंदगी को एक नये सकारात्मक दृष्टिकोण ‌से देखने
जरिया मिल गया था , औरएक दिन जीवन के मस्तीभरे क्षणों के बीच उन्हीं खंडहरों में रघूकाका का पार्थिव शरीर मिला था, उस दिन, सहचरी ढोल सिरहाने पड़ी आंसू बहा रही थी, कलाकार मर चुका था कला सिसक रही थी, उनके शव को चील कौवे नोच रहे थे,शायद यही उनकी आखिरी इक्षा थी  कि मृत्यु हो तो उनका शरीर उन‌भूखे बेजुबानों के काम‌आ जाय । वे लाख प्रयास के बाद भी उस समाज का परित्याग कर चुके थे , जहां अपनों से नफ़रत गैरों से बेपनाह मुहब्बत मिली थी, प्यार मुहब्बत और नफरतों का ये खेल ही उनके  दुख का कारण बना था । आज सुहानी सुबह उदास थी,और चरवाहे बच्चों की आंखें नम थी, जो कल तक रघूकाका के साथ खेलते थे ।इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम सेना के‌ एक महावीर ‌योद्धा का चरित्र एक‌ किंवदंती बन कर रह गया , जिनका उल्लेख इतिहास के किताबों में नहीं मिलता।
उपसंहार------यद्यपि मृत्यु के पश्चात पार्थिव शरीर पंच तत्व में बिलीन हो जाता है।मात्र रह जाती है, जीवन मृत्यु के‌ बीच बिताए ‌पलों की कुछ खट्टी मीठी यादें जो घटनाओं के रूप धारे स्मृतियों के झरोखों से झांकती कभी कथा, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र, की विधाओं में सजी पाठकों श्रोताओं के दिलो-दिमाग  को अपने इंद्र धनुषी रंगों से आलोकित एवम् स्पंदित करती नजर आती है।तो कभी‌ भावुक‌हृदय को झकझोरती भी है।
-०-
पता:
सूबेदार पाण्डेय 'आत्मानंद'
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)


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■■ देशभक्ति: आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ■■ (आलेख) - अलका 'सोनी'

■■ देशभक्ति: आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ■■

(आलेख)
' देशभक्ति या देश प्रेम ' की भावना का तात्पर्य है एक नागरिक का उसके राष्ट्र के प्रति समर्पण व प्रेम। यह किसी देश से उसके सांस्कृतिक ,ऐतिहासिक ,सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं से जुड़ा होता है। देशभक्ति शब्द आते ही हमारी आंखों के सामने भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस जैसे महान क्रांतिकारियों की छवि उभर आती है। जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था । यह देश प्रेम की पराकाष्ठा थी। ऐसे असंख्य क्रांतिकारियों और देश प्रेमियों की सूची है ,जिनका नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है तो वहीं अनगिनत देशभक्तों की कुर्बानी अनाम ही रह गई।जिनका नाम इतिहास में दर्ज़ नहीं हो पाया। जब देश गुलाम था तब जनता में एक क्रांति की धारा बह रही थी ,एक तरह का जुनून था कि किसी तरह देश को पराधीनता से मुक्ति मिल जाए ।इसके लिए आबाल-वृद्ध ,स्त्रियां देश के लिए क्रांति और संघर्ष की राह पर चल पड़े थे।

काफी बलिदानों और संघर्षों के बाद आखिरकार 15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता मिल ही गई। लेकिन लंबी गुलामी के बाद जो देश हमें मिला था अब उसके पुनरुत्थान के लिए नई चुनौतियों के दुष्कर मार्ग पर चलने की बारी आई। वर्षों की क्रांति ने देश को स्वतंत्र तो कर दिया, हमारा स्वयं का तिरंगा झंडा और संविधान तो अस्तित्व में आ चुका था लेकिन अब देश भक्ति का एक नया स्वरूप सामने लाने की बारी आई। जिसमें देश को प्रगति पथ पर अग्रसर करना था ।

दुनिया के बाकी देश तब तक विकास के मार्ग पर आगे बढ़ चुके थे और भारत में वह अपनी शैशवावस्था में था। साथ ही छुआछूत ,निरक्षरता ,सांप्रदायिकता पग-पग पर प्रगति के रथ को रोक रही थी जो कि पराधीनता स्वरूप देश में गहरे पैठ जमा चुकी थी।

हमारा देश इन धार्मिक, सामाजिक कुरीतियों से लड़ते -लड़ते अपनी विकास- यात्रा पर बढ़ रहा था। इसी बीच पड़ोसी देशों के आक्रमण का हमारे बहादुर सैनिकों ने जमकर लोहा लिया। पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी। यह सब देशभक्ति का ही तो एक अलग रूप है। देश को विकास प्रदान करने के लिए सामरिक दृष्टिकोण से मजबूत बनने के साथ-साथ कृषि, अर्थव्यवस्था, अंतरिक्ष यात्रा भी करनी थी। इसी बीच पंचवर्षीय योजनाओं और श्वेत-हरित क्रांति की शुरुआत हुई। यह सब हमें देश के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है। अंग्रेजों के जाने के बाद भारत को फिर से विश्व के सामने मजबूती से खड़ा करने के लक्ष्य ने सभी देशवासियों को देशभक्ति का एक नया अवसर प्रदान किया।

इस दिशा में देश के कृषक, पशुपालक, वैज्ञानिक, चिकित्सक, सैनिक और आम जनता सभी क्रांतिकारियों की भूमिका में खड़े हो गए ।
जिसके फलस्वरूप दुग्ध और कृषि क्षेत्र में आशा अनुरूप वृद्धि हुई । विज्ञान और सैन्य शक्ति के क्षेत्र में भी देश अपने पैरों पर खड़ा होने लगा।
यह सब देशभक्ति का आधुनिक रूप ही तो था। जो भारत को विकसित राष्ट्र बनने की दिशा की ओर ले जाने लगा। आज हमारी अर्थव्यवस्था विश्व समुदाय में अपनी पहचान बना चुकी है । फिर भी इसकी चुनौतियां खत्म नहीं हुई है।

कोई भी देश तभी शक्तिशाली बन सकता है ,जब वहां की जनता में देशप्रेम और निष्ठा हो। वास्तविक रूप में हमारी कर्तव्य -परायणता और सद्चरित्रता ही देश को तरक्की के मार्ग पर ले जा सकती है। एक चरित्रहीन व्यक्ति कभी तरक्की नहीं कर सकता और यही आज देश भक्ति की मांग भी है कि हम अपनी -अपनी जगह पर रहते हुए एक अच्छे नागरिक बने। ऐसा कोई कार्य न करें जिससे देश की हानि हो। आज देश भक्ति केवल प्राण नहीं मांगती वरन हम छोटे-छोटे कार्य कर देश के विकास में सहायक बन सकते हैं।
जैसे घरेलू स्तर पर बिजली की बचत कर के, प्लास्टिक का उपयोग कम करके, इंधन को बचाकर। पेड़ लगाकर या फिर अपनी जरूरतें कम करके ,ताकि हर नागरिक को जीवन जीने के लिए 'बेसिक' चीजें मिलती रहें तथा पर्यावरण भी सुरक्षित रहें।

अगर देश में किसी तरह की आपदा भी आए तो उससे सूझबूझ से निपटना देश -भक्ति का ही एक रूप होता है । जैसे वर्तमान समय में संपूर्ण विश्व कोरोना से जूझ रहा है । भारत में भी इसका आंकड़ा चार लाख तक पंहुच चुका है। 4 महीने से हमारा देश अनेक तरह की परेशानियों से जूझ रहा है । प्रारंभ में ढाई महीने के लॉक डाउन के समय जनता को बेहद कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।
लेकिन हम सब ने धैर्य के साथ देश का साथ देकर देश भक्ति का अनुपम उदाहरण पेश किया।

वास्तव में देशभक्ति एक पवित्र और सुंदर भाव है जो हर देशवासी में होनी चाहिए । इससे देश बनता है और प्रगति के मार्ग पर चलता है।
देशभक्ति का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हाथों में तिरंगा लेकर देश को हानि पहुंचाने का काम करते रहे। आज की युवा- पीढ़ी देशप्रेम का महत्व समझ कर उसका वास्तविक रूप अपनाये तो यह बेहतर होगा ।देश का भविष्य होने के नाते उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वह आगे आकर देश की बागडोर अपने हाथों में लें।
-०-
अलका 'सोनी'
बर्नपुर (पश्चिम बंगाल)

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मन हिन्दुस्तान बना दें ! (कविता) - अशोक 'आनन'


मन हिन्दुस्तान बना दें !
( कविता )
आदम   को   इंसान   बना   दें ।
तन - मन  हिन्दुस्तान  बना  दें ।

शकुन्तलाएं अब  बनकर मांएं  -
वीर भरत - सी संतान बना दें ।

वीरों  की  जहाॅं  जलें   चिताएं  -
तीरथ , वो  श्मशान   बना  दें ।

द्वार  जिसके  खुले  हों सबको   -
दिल  को  हिन्दुस्तान  बना  दें ।

प्रेम की सुबह जो लाए जग में -
भारत को वो दिनमान बना दें ।

सत्य ,  अहिंसा और  धर्म  को  -
मानव   का   ईमान   बना   दें ।

प्रात : बाइबिल , दुपहर गीता -
शाम हर  हम  क़ुरान  बना दें ।

तन गोकुल , वृंदावन बनाकर -
हम मन  को रसखान बना दें ।
-०-
पता:
अशोक 'आनन'
शाजापुर (मध्यप्रदेश)




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नमन चंद्रशेखर (कविता) - व्यग्र पाण्डे


नमन चंद्रशेखर
(कविता)
दैदिप्य चेहरा
मूँछों पर ताव
कांधे जनेऊ
रोवीले भाव
कहने में कम
करने में विश्वास
पिस्टल की भाषा
आती थी रास
आजाद हूँ मैं
शत्रु को जताया
जब तक रहे
प्रण को निभाया
नमन चंद्रशेखर
वंदन चंद्रशेखर
ॠणी देश सारा
स्मरण चंद्रशेखर ।
-०-
व्यग्र पाण्डे
सिटी (राजस्थान)



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भारत के वीर जवानों की हुंकार (कविता) - राज कुमार साव


भारत के वीर जवानों की हुंकार
(कविता)
जवानों का जोश हाई है
चीन की शामत आई है
गलवान घाटी हमारी है
आगे की पूरी तैयारी है
गलवान को हाथ लगाओगे
तो  मिट्टी में दफ़न कर दिये
          जाओगे
हमारी हिमालय से ऊंची हिम्मत
भुजाओं में चट्टानों जैसी ताक़त है
सुन लो चीन अब तुम्हारी सीनाज़ोरी नहीं चलेगी
तुम्हारी ये गलत धारणा है
कि भारत में सिर्फ चौदह सौ
सताइस शेर ही बचे हैं
तेरह लाख तो सीमा पर
ही सीना तान खड़े हैं
हमें हिन्दुस्तान की कसम है
ड्रैगन को करेगें भस्म
कारगिल हो या गलवान
हर बाजी जीतेगा हिन्दुस्तान।
जय हिन्द जय भारत
भारत माता की जय।
-०-
पता: 
राज कुमार साव
पूर्व बर्धमान (पश्चिम बंगाल)

-०-



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