(कविता)
बुलाये गर वतन तो जान की परवाह क्या करना?
तिरंगा हो कफन तो फिर दूजी चाह क्या करना?
वतन के वास्ते बह जाये लहू का एक-एक कतरा,
वतन की गोद के आगे दूसरी पनाह क्या करना?
सिक्के कमाने के तो हैं मौजूद हजारों रास्ते,मगर
वतनपरस्ती ही न हो जिसमें वो राह क्या करना?
सरहदें देश की जिन्हें बुलाएं,वे ख़ुशनसीब होते हैं,
कफन बाँधे जो चलते हैं उन्हें आगाह क्या करना?
अपना वतन बसर नहीं करता जिनमें सलीके से,
उन्हें मंदिर से क्या लेना,उन्हें दरगाह क्या करना?
सारी की सारी दुनिया उतर आये उनमें तो क्या?
देश का अक्स न हो जिसमें वो निगाह क्या करना?
वतन के नाम पर भी सर कटाने से जो डरे निलय!,
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