(कविता)
मैं चलता रहा ,
मगर कदम मेरे रूके नहीं ।
हटे नहीं बहके नहीं कदम मेरे ,
तपती दोपहर में सब याद दिला गया ।।
मैं रोता रहा,
मगर हृदय पसीजा नहीं उनका ।
खाना नहीं पानी से भूख मिटाता रहा ,
राहों पर मंजिल को भटकता रहा ।।
मैं खोता रहा,
दुनिया के एहसानों तले मगर ।
खुद के हाथों की लकीरों में,
किस्मत की रेखा को ढुढ़ता रहा ।।
मैं दौड़ता रहा,
मीलों नगें पैरों से मगर ।
रोटी रोजी का ठिकाना न रहा ,
बेगाना कोई अपना न रहा ।।
मैं चलता रहा मगर ,
राहों पर ठिकाना न मिला ।
चलता रहा मद-मस्त चाल ,
मौत का सहारा ही मिला ।।
मैं तड़फता रहा मगर ,
इलाज को सहारा न मिला ।
मैं डुब गया उदय होते ही ,
मेरे उत्थान को कोई बहाना न मिला ।।
-०-
मगर कदम मेरे रूके नहीं ।
हटे नहीं बहके नहीं कदम मेरे ,
तपती दोपहर में सब याद दिला गया ।।
मैं रोता रहा,
मगर हृदय पसीजा नहीं उनका ।
खाना नहीं पानी से भूख मिटाता रहा ,
राहों पर मंजिल को भटकता रहा ।।
मैं खोता रहा,
दुनिया के एहसानों तले मगर ।
खुद के हाथों की लकीरों में,
किस्मत की रेखा को ढुढ़ता रहा ।।
मैं दौड़ता रहा,
मीलों नगें पैरों से मगर ।
रोटी रोजी का ठिकाना न रहा ,
बेगाना कोई अपना न रहा ।।
मैं चलता रहा मगर ,
राहों पर ठिकाना न मिला ।
चलता रहा मद-मस्त चाल ,
मौत का सहारा ही मिला ।।
मैं तड़फता रहा मगर ,
इलाज को सहारा न मिला ।
मैं डुब गया उदय होते ही ,
मेरे उत्थान को कोई बहाना न मिला ।।
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पता:
रवीन्द्र मारोठी 'रवि'
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