कालजयी दोहे
(दोहे)
नहीं शेष संवेदना,रोते हैं सब भाव !
अपने ही देने लगे,अब तो खुलकर घाव !!
स्वारथ का बाज़ार है,अपनापन व्यापार !
रिश्ते रिसने लग गये,खोकर सारा सार !
नित ही बढ़ती जा रही,अब तो देखो पीर !
अपनों के नित वार हैं,बरछी-भाला-तीर !!
अपनी-अपनी ढपलियां,सबके अपने राग ।
गुणा हो रहे स्वार्थ के,मतलब के सब भाग ।।
हर कोई बलवा करे,अमन-चैन है लुप्त ।
सबकी अपनी योजना,पर रखते सब गुप्त ।।
भीतर-बाहर भिन्नता,चहरे पर मुस्कान ।
अंदर दानव है डंटा,बाहर दैवी मान ।।
जंगल का पशु डर रहा,मानव से है दूर ।
रक़्त बहाना बन गया,इंसां का दस्तूर ।।
इंसां ना अब सात्विक,करता ना सत्कर्म ।
केवल निज ऐश्वर्य ही, उसका है अब धर्म ।।
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प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
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