गुमसुम सी तितलियाँ
(कविता)
हम अपने घर से जो आज निकले,
चमक रही हर ओर बिजलियाँ है!
ख़ामोशी की चादर ओढ़े हैं बैठी,
ये अपने देश की ही बेटियाँ हैं!
कोई जाकर तो उनसे कह दो,
बहुत ही गुमसुम सी तितलियाँ हैं!
डरती सहमती वो अपने ही घर में,
चल रही कैसी ये आँधियाँ हैं!
एकबार झाँक कर अपने अंदर भी देखो,
कि तुझमे ही कितनी खामियाँ हैं!
जिनको पा कर हम धन्य हो गए थे,
खून से लथपथ आज वो परियाँ हैं!
माँ ने जिसे पैदा करने की सोची,
हैं क्या वो बेटे या वो गालियाँ हैं!
जिसके दामन को तार तार करते,
खिलती गुलिस्तां सी ये वादियाँ हैं!
अब तो सिसकियाँ भी रुक गयी हैं,
फट रही आज माँ की छातियाँ हैं!
है रो रो कर बेटी आज कहती
न छुओ मुझे ये मेरी अर्जीयाँ हैं!!!
-०-
नन्दनी प्रनय तिवारी
रांची (झारखंड)
-०-
बहुत सुन्दर है रचना, आप को बहुत बहुत बधाई है।
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