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Thursday 7 November 2019

दायरा प्यार का (ग़ज़ल) - संजय कुमार गिरि


दायरा प्यार का 
(ग़ज़ल)
दायरा प्यार का बढ़ाना है
दोस्तों को भी आजमाना है

दोस्तों के लिए ही;जीता हूँ
फ़िक्र कैसी की क्या निभाना है

आज हम रूबरू हुए लेकिन
प्यार का सिलसिला पुराना है

बस रहे दिल में जो मेरे अपने
घर उन्हीं के ही' आना' जाना है

पार हद से कहीं ना हो जाऊं
आज ये दिल भी' आशिकाना है
शायरी का हुनर है जिसको भी
महफ़िलों में वही सयाना है

वायदा आज ये करो "संजय"
एक दिन रंग भी ज़माना है
-०-
संजय कुमार गिरि 
चित्रकार ,पत्रकार एवं कवि 
जे -288 /3 ,करतार नगर ,गली न 10 ,
सरस्वती मॉर्डन पब्लिक स्कूल, शिव मंदिर 
दिल्ली

-०-


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तुम्हारी यादें (कविता) - सविता दास 'सवि'


तुम्हारी यादें
(कविता)
खामोश नही 
रहने देती
शोर बड़ा
मचाती हैं
जबरदस्ती मुझसे
बाते करती हैं
तुम्हारी यादें

तुमसे मिली हूँ
जबसे
कुछ खिलने लगा
मन में
ये क्या सींचने लगी
बंजर मन में
तुम्हारी बातें

एहसासों का
रेशमी धागा
एक सिरा लिए
जिसका
फिरती थी तन्हा
दूसरे सिरे को
थामकर
बांधती है मुझको
तुम्हारे वादें

डरती हूँ बहुत
खोने से तुम्हे
लड़ती हूँ बहुत
हकीकत से अपने
कहीं हथेली से
रेत जैसी फिसल ना जाएँ
तुम्हारी यादें
-०-
सविता दास 'सवि'
शोणितपुर (असम) 

-0-







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एक वृक्ष की व्यथा (आत्मकथा) -पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'

एक वृक्ष की व्यथा
(आत्मकथा)
नन्हा अंकुर जब जमीन फाड कर उपर निकल आया तो बहुत खुश था । उसे ताजी-ताजी हवा , सूरज की नन्ही किरणें व सबके मुस्कुराते चेहरे बडे ही मनभावन से लग रहे थे । धीरे-धीरे अंकुर से पौधा व पेड और फिर वृक्ष बन गया । मौसम परिवर्तन के साथ नए पात आते और पुराने डाली का साथ छोड देते । अब फूल -फल वृक्ष पर लहराने लगे थे । भंवरे भी फूलों के पास मंडराने लगे । वृक्ष की हरियाली देख गांव भी खुश था । हरा-भरा पेड़ लोगो को शीतल छाया देता , कोई उसके नीचे अपना भोजन खाता तो कोई अपनी थकान दूर करता । पक्षीयों की चहचहाट से गांव मे खुश हो जाता था । कई पक्षियों के घोंसले भी उस वृक्ष पर थे । सुबह कोयल की मीठी सुरीली वाणी तो मानो सबके मन मे मिश्री ही घोल देती थी । अब तो वह वृक्ष मीटिंग पाइंट तक बन गया था और गांव की पहचान भी। 
समय आगे बढ़ने लगा । पेड पर धीरे धीरे फूल-फल कम होने लगे ।
गांव भी बदलने लगा । वृक्ष की हरियाली शीतल छाया देती ही रहती थी । लेकिन कुछ लकडहारों की नजर वृक्ष पर टिकी रहती थी । एक दिन कुछ लकडहारे कुल्हाड़ी लेकर वहां पहुच गए उन्हें देख पेड सिहर उठा उसके तनों ने पानी छोडने लगा ।पत्तों ने सिर झुका लिया ।शीत हवा के बहाव मे पत्ते धीरे-धीरे भयभीत से डोल रहे थे मानो उन्हें ज्ञात हो गया था कि उनकी जिंदगी अब बस समाप्त होने वाली है । लकडहारों ने जैसे ही एक डाली को कुल्हाडी से काटा तो सारी डालियां कांपने लगी पत्ते रुआंसे हो गए । अपने साथियों को नीचे जमीन पर गिरा देख दुखी हो गए थे । सब पत्ते एक दूसरे से लिपटने के लिए व्याकुल थे । उनकी पीडा असहनीय थी जो हम मानव समझ नही सकते । अंत मे लकडहारों ने बडा ही जोर लगाकर पेड के तने को काट डाला ।सारी डालियां जमीन पर पडी अपने लहराते पत्तों को देख रो रही थी । पक्षी अपना घोंसला ढूंढ रहे थे । कोयल अपनी डाली ढूंढ रही थी । गांव के बच्चे उस पेड के तने को ढूंढ रहे थे जिसपर चढकर वे कभी पेड पर चढते थे । गांव के लोग मीटिंग पाइंट ढूंढ रहे थे । पध का राही धूप की तपन मे वीरान रास्ते पर चलते ठिठक गया।सोच रहा कि कही तो शीतल छाया मिल जाए जहाँ वो सुकून से बैठ कर सांसे ले सके । वह पथिक तो बस चले आ रहे थे लेकिन छाया नही मिली,,,
वृक्ष के काटने के गम मे धरती भी बारिश के तेज प्रवाह को रोक ना सकी और पूरा गांव बाढ के पानी मे जलमग्न हो गया । 
वैसे भी ऐसी मान्यता है कि केले के पेड पर जब फल लगते है तो फल को काटने के लिए पूरा तना काटना होता है क्योंकि केले का पेड कहता है कि फल मेरा बच्चा है और उसे काटने के लिए मानव पहले उसे यानि तना काटे अन्यथा यह अपशगुन होता है ।
-०-
पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'
नागपुर (महाराष्ट्र)
-०-

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अस्तित्व (कविता) - तरुण कुमार दाधीच

अस्तित्व
(कविता)
नहीं था मेरा कोई अस्तित्व
हाथों से दीवारें दूर थी
पांव जमीं पर जमे नहीं थे
उपहास, तिरस्कार, उपेक्षा
घेरे रहते थे बादलों की तरह
जिस दिन से
लगन,उत्साह, निष्ठा के साथ
लक्ष्य का बीज वपन कर
पल्लवित-पुष्पित करने में लगा
पुरुषार्थ से
प्रारब्ध बनने लगा.
धारा की विपरीत दिशा में चलकर
जीवन संवरने लगा.
आज अस्तित्व लिये
अपनी जमीं पर खड़ा हूं
मेरे लिये
तेरे लिये
हम सबके लिये
-0-
तरुण कुमार दाधीच
उदयपुर (राजस्थान)

-०-

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मुट्ठी भर सुख (कविता) - प्रज्ञा गुप्ता


मुट्ठी भर सुख 
(कविता)
बंजारे की गाड़ी पर सिमटी हुई है गृहस्थी,
खाने-पीने ही नहीं सोने बैठने से लेकर,
मनोरंजन तक की सुविधाओं से युक्त गाड़ी,
सचमुच ! अचरज की चीज है,
जिस मुठ्ठी भर सुख के लिए,
आदमी विकल और बेचैन होता है,
काली लकीरें खींचता है, सौदे तय करता है,
झूठ बोलता है, दौड़-भाग करता है,
पर हर कीमत पर सुख को बांधे रखना चाहता है,
और सुख फिर भी पानी के बुलबुले की तरह
टूट-टूट जाता है,
वही सुख बंजारे की मुट्ठी में कैद है,
क्योंकि भोर होते ही बंजारा,
अपने हाथों की लकीरों को बदलता है,
गर्म रक्त लोहे को हथौड़े से पीट-पीटकर,
गढ़ता है औजार,
और खून उसकी पेशियों को चीरता हुआ,
पसीना बन बहने लगता है,
अनवरत आपादमस्तक,
तब देख कर सब,
श्रम की देवी का सिंहासन भी हिल उठता है,
और वह उसे सूखी रोटी में भी,
वह सुकून और सुख देने के लिए बेचैन हो उठती है,
जो ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओ के,
शहंशाहों को मयस्सर नहीं होता,
तभी तो रात्रि में खुले
आकाश तले लेटता है जब,
तो नीम के पेड़ की बयार भी,
उसे वह सुख देती है जो,
एयर कंडीशनर की हवा में लोगों को नहीं मिलता,
वह उसे मीठी नींद सुलाती है,
जो लोगों को स्लीपिंग पिल्स खाने पर भी नहीं आती,
यही तो वह सुख है जिसे उस बंजारे ने,
भाग्य से नही वरन हथेली की रेखाओं को,
श्रम से बदलकर,
अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया है।
-०-
प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा, (राज.)

-०-
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