(कविता)
आग
लगी दिल्ली
धूँ धूँ जलती
मचा हुआ
उत्पात ।
स्वार्थ
बढ़ रहा
आत्मीयता दिखा दिखा
वसूल रहे
मूल्य ।
पत्थर
मार कर
आग लगा कर
जलाते देश
आज
कहाँ
बह गया
ज्ञान का सागर
मिटा रहे
शान्ति ।
कर
दोहन हमारा
हतियाना चाह रहे
देश दुबारा
हमारा ।
कभी
नहीं होंगे
इनके मंसूबे पूरे
खामोशी टूटेगी
हमारी ।
हमारे
व्यवहार को
निस्वार्थता प्यार को
ठुकरा कर
आज
फैलाते
नफ़रत तुम
दहशत मचा मचा
डरा रहे
हमें ।
दिया
हिस्सा तुम्हारा
अब क्यूँ जलाते
देश तुम
हमारा ।
जाओ
जाकर रहो
तथाकथित अपने देश
दहशतगर्दो आतंकियों
बीच
भाता
नहीं जिन्हें
अमन चैन यहाँ
जाकर बसो
वहीं ।
-०-पता:
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