कैसे खेलूं होली
(कविता)
घटा घनी आतंकी छायी , खून भरी लगती होली ।
चिर निद्रा हैं वीर धरा के ,कैसे फिर खेलूँ होली ।
धूमिल होती सब आशाएं, सो गई हैं कामनाएं ।
रुद्र गीत ही धमनियों में ,गा रही हैं वेदनाएं ।
नाचूँ गाऊँ कैसे फिर.मैं ,कैसे फिर खेलूँ होली ।
चिर निद्रा हैं वीर धरा के ,कैसे फिर खेलूँ होली ।
धरा बहाती आँसू बूंदे , सुन विलाप विधवाओं का ।
पुँछना है सिन्दूर अभी तो , कितनी ही सधवाओं का।
धरा रंग जब लाल रक्त से ,कैसे फिर खेलूँ मैं होली ।
चिर निद्रा हैं वीर धरा के ,कैसे फिर खेलूँ होली ।
जलती शहीदों की चिताएं ,है ज्वाल भरती श्वास में ।
तब ही जलेगी होलिका जब ,दुश्मन हो मृत्यु पाश में ।
घायल अभी सम्वेदनाएँ , कैसे फिर खेलूँ होली ।
चिर निद्रा हैं वीर धरा के ,कैसे फिर खेलूँ होली ।