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Monday 2 December 2019

● बालसाहित्य लेखन एवम चुनौतियाँ (आलेख) -राजकुमार जैन राजन●

● बालसाहित्य लेखन एवम चुनौतियाँ ●
(आलेख)
राजकुमार जैन राजन
संपादक: सृजन महोत्सव 


बालक किसी भी देश, समाज, संस्कृति का ही नहीं अपितृ सम्पूर्ण मानव जाति की पूंजी होता है। बच्चों में हमारा

भविष्य दिखाई देता है। वे कल की उम्मीद बंधाते हैं।बालक ईश्वर की बनाई वह अनुपम कृति है जिससे कायम है जीवन धारा ,संस्कृति और शाश्वत मूल्य। बालक जितने सुकोमल होते है उतने ही जिज्ञासु भी। यही कारण है कि बालमन सबसे अधिक संवेदनशील होता है। अपने आस- पास की घटनाओं से सबसे पहले यही प्रभावित होता है।

बच्चों के मानसिक विकास के लिए साहित्य की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध है । सवाल यह है कि बालसाहित्य किसे कहें ? बालसाहित्य के मनस्वी रचनाकार निरंकारदेव सेवक के शब्दों में कहें तो, "जिस साहित्य से बच्चों का मनोरंजन हो सके, जिसमें वे रस ले सकें और जिसके द्वारा वह अपनी भावनाओं और कल्पनाओं का विकास कर सके…. वह बालसाहित्य है।" साहित्य की अनेक परिभाषाएं विद्वान विचारक अत्यंत प्राचीनकाल से करते आए हैं, पर किसी एक को भी बाल साहित्य की सम्पूर्ण परिभाषा नहीं कहा जा सकता। बच्चों का मन इतना चंचल और कल्पनाएं इतनी तेज होती है कि किन्ही निश्चित नियमों में बंधा हुआ साहित्य उसके लिए लिखा नहीं जा सकता।

बालक जिस अवस्था मे बोलना , सुनना और जानना शुरू करता है, उस अवस्था में उसके मनोविज्ञान में बराबर एक जैसी स्थिति बनी होती हैं। बच्चे के लिए पहली रचना का जन्म उसी दिन शुरू हो जाता है जब उसके मन मे जिज्ञासा का जन्म होता है। बालसाहित्य की परंपरा वाचन और श्रवण से शुरू होती है। बाद में "पंचतंत्र" व "हितोपदेश" की कहानियों के माध्यम से लिखित रूप से बालसाहित्य स्थापित हुआ। "शिशुवय में माँ की लोरियों एवम दादा- दादी की कहानियों के रूप में बाल रचनाओं का ही आस्वाद होता है। धीरे - धीरे कहानी, कविता, लोककथा, लोरी, जीवनी, नाटक, संस्मरण, यात्रा साहित्य, पत्र लेखन और कई विधाओं का साहित्य पत्र -पत्रिकाओं, पुस्तकों के रूप में बालकों के सामने आता रहा। अब तो डिजिटिलाइजेशन के बाद ऑडियो, वीडियो, ई-पत्रिका के रूप में बालसाहित्य प्रसार पा रहा है। कुल मिलाकर बालक और बालसाहित्य का रिश्ता पुराना होते हुए भी नित नए रंगों, विधाओं से सज रहा है और बालकों में प्रेरणा का संचार कर रहा है।

यह मेरी अप्रतिभा ही है कि आज तक मैं यह नहीं समझ पाया कि बालसाहित्य को वादों, सिद्धांतों, नियमों में क्यों बांधा जाता है। बालसाहित्य के प्रति जो थोड़ी बहुत समझ पिछले दो दशक में बनी उस आधार पर मैं बस इतना ही कह सकता हूँ कि आज के बाल साहित्यकार और हम बच्चों के प्रति संवेदनशील है लेकिन सरकारी नुमाइंदे अपनी राजनीतिक स्वार्थपरता के कारण बच्चों के मौलिक अधिकारों और उनकी समस्याओं के प्रति उदासीन हैं और अनदेखी कर रहे हैं। ये लोग गहराई में जाना नहीं चाहते और महिमा मंडित भी होना चाहते हैं।ऐसी परिस्थिति में अब अभिभावक, शिक्षक और साहित्यकारों से ही आशा की किरण नज़र आती है। बच्चों में संस्कार जागृत करने, उन्हें मानवीय व नैतिक मूल्यों से जोड़ने के लिए बालसाहित्य से जुड़ाव आवश्यक है। बालसाहित्य से मेरा आशय बच्चों के लिए लिखे जाने वाले साहित्य से है जो बालक को संस्कार, जीवन जीने की राह, आत्मविश्वास, स्वावलम्बन, राष्ट्र प्रेम और परिवेश को समझकर सकारात्मक करने की प्रेरणा दे।

आज हर विधा में बालसाहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है। बालसाहित्य सृजन का 120 वर्ष से भी पुराना इतिहास होने के बावजूद आज भी अधिकांश हिन्दी बालसाहित्य रचनाकारों के समक्ष आधुनिक बाल साहित्य की अवधारणा स्पष्ठ नहीं है। बावजूद पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। प्रतिवर्ष धड़ल्ले से बाल साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित हो रही है।

आज साइबर दुनिया के कारण बच्चों की भाषा और सोच बदल रही है। वे जो देख रहे हैं वही भाषा बोल रहे हैं। ऐसे में बालसाहित्य रचनाकारों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
वर्तमान में बालसाहित्य समझने वालों की महत्ता बढ़ रही है। वर्तमान परिवेशानुसार सृजन करने वाले कई नए- नए नाम भी सामने आ रहे हैं। यहां मैं कहना चाहूंगा कि बड़ों के लेखन की अपेक्षा बच्चों के लिए लिखना अधिक प्रतिबद्धता, जिम्मेदारी, निश्चलता, मासूमियत जैसी खूबियों की मांग करता है। बच्चों के लिए लिखना कठिन होता है। इसके लिए आवश्यक है कि लेखक अपनी शैली, शब्द भंडार तथा उसकी प्रस्तुति के लिए स्वयम को उसी आयु वर्ग के बच्चे के मानसिक स्तर के धरातल तक उतारे, जिनके लिए वह लिख रहा है। उसे बालक बनकर ही लिखना होगा क्योंकि बालक ही उसका पाठक भी होगा, वही उसका समीक्षक भी होगा।

आज साहित्य में स्थापित, अनुभवी तथा प्रतिष्ठित लेखक बालसाहित्य लेखन में रुचि नहीं दिखाते । फिर भी कुछ लेखकों ने कलम उठाई है और बच्चों के लिए अच्छी रचनाएँ लिखी एवम लिख रहे हैं। इधर स्थिति तेज़ी से बदल रही हैं। बाल साहित्यकार भी सहित्य जगत में प्रतिष्ठित हो रहे हैं और बाल साहित्यकार के रूप में उनकी मान्यता तथा बच्चों के लिए बहुत उपयोगिताओं, कल्पनाओं, को आधार बनाकर तरह -तरह का बालसाहित्य लिखा जा रहा है। बच्चों के लिए ज्ञान कोष, शब्द कोष भी आये हैं। वर्तमान में पशु- पक्षियों, प्रकृति और पर्यावरण आदि को माध्यम बनाकर बहुत कुछ सृजित किया जा रहा है। हम देखते हैं कि हमारा बालसाहित्य परम्परागत लोक कथाओं और परि कथाओं से शुरू होकर ज्ञान विज्ञान की रोचक और मनोरंजक जानकारियों से समृद्ध होता जा रहा है जिससे बालक के ज्ञान का क्षितिज बहुत विस्तृत हो रहा है।

जहां बालसाहित्य लेखन, प्रकाशन बहुलता से हो रहा है, वहीं बालसाहित्य जगत चुनौतियों का सामना भी कर रहा है। बच्चों के लिए लिखना और उसे सुंदर चित्रों सहित प्रकाशित करना...सचमुच एक कला है। एक पुस्तक का प्रकाशन कार्य पूर्ण करने के बाद लेखक अपने को गौरवान्वित महसूस करता है। पत्र -पत्रिकाओं में समीक्षा आ जाती है….और जैसे तैसे उस बालसाहित्य की पुस्तक पर सम्मान/ पुरस्कार का प्रबंध भी हो जाता है। यह जता दिया जाता है कि लेखक ने बाल साहित्य को अमूल्य अवदान दिया है। बधाइयां ही बधाइयां...चर्चे ही चर्चे….। क्या तब कहीं कोई चिंतन करता है कि बालसाहित्य के नाम पर बच्चों के लिखी गई ये पुस्तकें बालकों तक कितना पहुंच पाती है….?? शायद नहीं।

ऐसा नहीं है कि सब जगह ऐसा ही हो रहा है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, एकलव्य प्रकाशन, चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट, रूम टू रीड, संपर्क फाउंडेशन, राजकुमार जैन राजन फाउंडेशन, दिल्ली प्रेस प्रकाशन, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, अभिनव बालमन, बाल प्रहरी, बाल वाटिका एवम सलिला जैसी संस्थाएं व व्यक्ति अपने -अपने प्रयासों से बाल साहित्य बालकों तक पहुंचाने और उनमें पठन -पाठन की रुचि पैदा करने में समर्पित भाव से लगे हुए है… पर ये प्रयास भी 'ऊंट के मुंह में जीरा' ही साबित हो रहे हैं। वस्तुतः बालसहित्य समारोहों में बालसाहित्य बच्चों तक नहीं पहुंच पाने की चर्चा से आगे बढ़ ही नहीं पाता। देखा जाए तो बालसाहित्य लेखक ,प्रकाशक, पत्रिका संपादक, समीक्षक व पुरस्कार प्रदाता संस्थाओं से आगे उसके वास्तविक हकदार "बालक" तक पहुंच ही नहीं पा रहा है।

इंटरनेट के कारण व्हाट्सएप्प, फेसबुक आदि पर बाल साहित्य के कई ग्रुप संचालित हो रहे हैं। जहां भी बाल साहित्य पर सार्थक विमर्श हो रहे हैं। नए लोग लिखना व बाल साहित्य की गहराई सीख रहे है। यह प्रयास भी स्तुत्य है। पर देखा गया है स्वनाम धन्य कुछ बाल साहित्यकारों ने बाल साहित्य के पटल (ग्रुप) संचालित कर रखे हैं और एडमीन बन इस आत्म मुग्धता में जी रहे हैं कि बाल साहित्य के लिए वो जो कुछ कर रहे हैं वही श्रेष्ठ, दूसरे कुछ कर रहे हैं वह निर्थक। ले दे कर 5-7 अपने को महापंडित समझने वाले बाल साहित्यकार एडमिन का ही प्रशस्तिगान करते रहते है। किसी नए बाल साहित्यकार ने उनकी विचार धारा से इतर कुछ पोस्ट किया नहीं कि उसकी हालत ख़स्ता। बेचारा दूसरी बार न कुछ प्रतिक्रिया कर सकता है न अपनी रचना पोस्ट कर सकता है। यदि आपमें एडमिन की तारीफ करने का माद्दा है और उन तथाकथित विशेषज्ञों की बात की हां में हां मिलाने की हिम्म्मत है तो ही वहां आपकी स्वीकार्यता है, अन्यथा हासिये पर ढकेले जाने का खतरा बरकरार रहेगा ही।
अब प्रश्न यह है कि यहां भी बालक कहीं दूर दूर नज़र नहीं आता।तो क्या बाल साहित्य केवल बड़ों की चर्चा, प्रसंशा के लिए ही है। होना तो यह चाहिये कि रुचिवान बालकों को ग्रुप में जोड़ा जाए और रचनाकार अपनी रचना पटल पर लगाये और बच्चे उस पर टिप्पणी करें। अपनी पसंद ,ना पसंद बताए तो बाल साहित्य की उपादेयता समझ मे आती है अन्यथा एक दूसरे की पीठ थपथपाते रहने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता।
पिछले कुछ वर्षों से अपने नाम के साथ "डॉक्टर", "डॉ" लिखने का प्रचलन भी बहुत बढ़ गया है। बाल साहित्य जगत भी इससे अछूता नहीं है। कई वरिष्ठ, प्रतिष्टित बाल साहित्यकार भी बिना किसी मान्य विश्व विद्यालय से शोध कार्य संपादित किये, भागलपुर आदि स्थानों की फर्जी संस्थाओं से एक हजार या पंद्रह सौ रुपये में "विद्या वाचस्पति" का प्रमाणपत्र हासिल कर, अपने नाम के साथ डॉक्टर लिखने की आत्म मुग्धता में जी रहे हैं। यह कानून अपराध तो है ही उन वास्तविक शोधकर्ताओं का अपमान भी है जो वर्षों अपना शोधकार्य सम्पन्न कर यह डिग्री हासिल करते हैं। इन फर्जी डिग्री लगाने वाले साहित्यकारों से इस विषय मे बातचीत की जाए कि आपने किज विश्विद्यालय से, किस शोध निर्देश के अधीन किस विषय पर शोध किया है? आपका सिनॉप्सिस स्वीकृत हुआ? तो बगलें झांकने लगते हैं। ऐसे डॉक्टर लगाने वालों को आत्म मंथन करना चाहिए। क्या महज अपने नाम के साथ डॉक्टर लगा देने से आपके रचनाकर्म की श्रेष्ठता सिद्ध होती है? प्रश्न यह भी है कि अपने बाल साहित्य द्वारा ऐसे रचनाकार बालकों के जीवन मे क्या दिशा दे पाएंगे? यह शोध व चर्चा का ही नहीं बाल साहित्य जगत के लिए भी चिंतन का विषय है। ऐसे फर्जी डॉक्टर लगाने वालों की कार्य प्रणाली कैसे असरकारक हो सकेगी। वैसे इस बाबत सबको जानकारी है । विरोध करके कोंन हासिये पर धकेला जाना पसंद करेगा। ये नाम भी सार्वजनिक होने ही चाहिए।

मेरी समझ में आज तक यह नहीं आ पाया कि क्यों वादों ओर गुटों में बंटे बालसाहित्य की दुनिया में कुछ लोंगों ने स्वयं को बालसाहित्य का खेवन हार मान लिया है….. बालसाहित्य को बच्चों तक पहुंचाने में सबसे बड़ी बाधा बाजारवाद एवम मठाधीशी है…. कई तरह की बौद्धिक बहसें भी जारी है...हमें इससे कोई मतलब नहीं। आज हर मंच व अकादमियां बालसाहित्य को चर्चा के केंद्र में रख रहे हैं….यह खुशी की बात है...। इस वर्ष राजस्थान के यशस्वी मुख्यमंत्री माननीय अशोक गहलोत की अनुकरणीय पहल रही कि बाल साहित्य अकादमी की वर्षों से चली आ रही मांग को उन्होंने स्वीकार किया और राजस्थान में "जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी" गठन की घोषणा की है जो यह दर्शाता है कि उनके मन में बाल साहित्य उन्नयन व बाल कल्याण के लिए विशेष सम्मान है। बाल साहित्य अकादमी के गठन से बड़े पैमाने पर बाल साहित्य गतिविधियां संचालित हो सकेंगी।

एक प्रश्न यह भी उठता है कि इतना बालसाहित्य प्रकाशित होता है तो जाता कहां है?? विडम्बना ही है कि ज्यादातर पुस्तकें सरकारी खरीद के खाते में जाकर अलमारियों में कैद हो जाती हैं ? यदि कुछ बाज़ार में पहुंचती भी है तो उनका मूल्य इतना अधिक होता है कि अभिभावक उस पुस्तक को खरीद कर बच्चों को देने में कोई उत्साह नहीं दिखता।

आज विश्व नई तकनीक के दौर में है।जहाँ सोशल मीडिया हमारे जीवन का अनिवार्य अंग बन गया है। बालक कम्प्यूटर मोबाइल में ही उलझा रहता है। एक जमाने में हर दैनिक अखबार सप्ताह में एक या दो बार बालसाहित्य परिशिष्ट प्रकाशित करते थे, वे बन्द हो गए हैं या बाल साहित्य के नाम पर कुछ दे भी रहे हैं। इंटरनेट से ली गई सामग्री, विदेशों से आयातित अनुदित सामग्री दे रहे है। यही हाल कमोबेश कई बाल पत्रिकाओं का भी हो गया है। इससे बालसाहित्य सृजन करने वालों का मनोबल टूटा है। आज न बालसाहित्यकार को न ही उसके द्वारा रचित साहित्य को वह महत्व मिल पा रहा है जिसका वह अधिकारी है। उसको मिलने वाली पुरस्कार राशि मे भी भेदभाव किया जाता है। उसके साहित्य के लिए न पर्याप्त निष्पक्ष पत्र -पत्रिकाएं है न समीक्षक। कुछ अपवाद हो सकतें है। साहित्य के इतिहास में उसके उल्लेख के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। कुछ पत्रिकाओं में बालसाहित्य के इतिहास अथवा विमर्श पर चर्चा होती तो है, वह भी केवल उसी लेखन की जो लिखने वालों तक पहुंच गया होता है। कई समीक्षक लेखक के प्रति पूर्वाग्रहों के चलते उसकी उत्कृष्ठ कृति की चर्चा तक नहीं करते।

बाल साहित्यकारों को जो पुरस्कार सम्मान दिए जातें हैं उसकी राशि भी सम्मान जनक नहीं होती, केवल प्रोत्साहन के भाव से ये पुरस्कार दिए जाते हैं। साहित्य अकादमियां इस दिशा में उदासीन हैं। भारतीय बाल साहित्यकारों को बिना भेद भाव एक मंच पर आने की आवश्यकता है ताकि बाल साहित्य सृजन को सही दिशा मिल सके।

आज एक खतरनाक प्रवृत्ति बाल साहित्यकारों में घर करती जा रही है…...तू मुझे सम्मानित कर,...मैं तुझे सम्मानित करुंगा….सैंकड़ों उदाहरण सामने हैं….इस वर्ष आपकी संस्था फलां बाल साहित्यकार को सम्मानित कर रही है… अगले वर्ष वो आपको सम्मानित करेंगे या आप मंचस्थ दिखाई देंगे या उनकी पत्रिका ने आप पर विशेषांक प्रकाशित किया, आपने अपने मंच से उनको संम्मानित कर दिया। एक दूसरे के प्रशस्तिगान की परंपरा निरन्तर बढ़ती जा रही है। यह परंपरा भी बालसाहित्य के लिए एक चुनौती बन कर सामने खड़ी है। हमने 2001 से अब तक होने वाले आयोजनों की सूची तैयार की है जिसमे बाल साहित्य के असल मुद्दे गौण हो गए और एक दूसरे की पीठ थपथपाने का कार्य ही अधिक हो रहा है। कई बाल पत्रिकाओं का उद्देश्य येन केन प्रकारेण सरकारी
विज्ञापनों का जुगाड़ करना भर रह गया है….प्रतिवर्ष लाखों रूपयों के सरकारी विज्ञापन व संस्थाओं से प्राप्त कर उस राशि को बालकल्याण अथवा बालसाहित्य उन्नयन में कितना लगा रहे हैं, इस पर भी चर्चा होनी चाहिए। यह कहने का मतलब यह कत्तई नहीं समझा जाए कि सब जगह ऐसा ही हो रहा है। नहीं, बहुत लोग बालसाहित्य उन्नयन और बाल कल्याण के साथ साथ बालसाहित्य को बाल पाठकों तक पहुंचाने की मुहिम व बालकों को इससे जोड़ने के काम में समर्पण भाव से लगे हुए हैं, वे बधाई के पात्र हैं। हमने भी कोई गलती अनजाने में की तो सार्वजनिक इसे स्वीकार भी किया और क्षमा याचना भी की। इसी कारण आज हम इतनी मुखरता से बाल साहित्य जगत के सामने उपस्थित चुनोतियों पर चर्चा करने का साहस कर पा रहे है, यह जानते हुए भी कि कई लोंगों को इससे तकलीफ होगी और हमारे विरुद्ध दुष्प्रचार किया जाता रहेगा। धरातल पर काम करने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

हम सबको मिलकर बालसाहित्य को लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों, समीक्षकों, पुरस्कार प्रदाता संस्थाओं और भाषणों के केंद्र से निकालकर इसके सही हकदार बच्चों तक पहुंचाने के लिए एक आंदोलन के रूप में कार्य करना होगा अन्यथा हम कितने ही बड़े बाल साहित्यकार हो जाएं...लेकिन बच्चों में पढ़ने लिखने की ललक पैदा न कर सके... अभिभावकों व बच्चों को पुस्तकों से जोड़ने को प्रेरित न कर सके तो हमारी दर्जनों बाल केंद्रित पुस्तकें किस काम की ? आओ, हम सब मिलकर प्रण करें कि बालसाहित्य बच्चों तक पहुंचाने की मुहीम को यथार्थ के धरातल पर साकार करेंगे। बालसाहित्य की सच्ची सेवा तभी होगी जब हम बालसाहित्य में उत्कृष्ट कार्य करने वाले लेखकों के साहित्य एवम पत्र- पत्रिकाओं को तन- मन- धन से सहयोग करें। आज साइबर युग में हमें परंपरा और संस्कृति से जुड़ा बाल साहित्य बच्चों को उपलब्ध करवाना है। यह काम बाल साहित्यकर ही कर सकता है जो समाज को नई दिशा देता है।

आइए! हम अपने घर, परिवार, गली - मोहल्ले, गांव,शहर से ही बालसाहित्य को चुनौतियों से मुक्त कर, इस पवित्र कार्य की शुरुआत करें। अपनी ही पीठ थपथपाने से न हम महान साहित्यकार हो जाएंगे, न बाल साहित्य के प्रहरी कहलायेंगे और न ही इक्कीसवीं सदी के बच्चे हमें याद रखेंगे।
-०-
राजकुमार जैन राजन
बालसाहित्यकार 
संपादक 'सृजन महोत्सव'
अकोला (राजस्थान)
-०-


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रिश्तों की मर्यादा (आलेख) - अलका 'सोनी'

रिश्तों की मर्यादा
(आलेख)
सामाजिक व्यवस्था जिन तानो-बानों से गुंथी है, उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण 'रिश्ते' हैं। हर रिश्ते का अपना नाम व उससे जुड़ी जिम्मेदारियां होती हैं। स्वस्थ रिश्ते की शुरूआत ही मान-सम्मान और मर्यादा से होती है। किसी व्यक्ति का सलीके से किया गया व्यवहार ही हमें उसकी ओर खींचता है। रिश्तों के मजबूत और हेल्दी बने रहने के लिए उनका मर्यादा में रहना अनिवार्य है। जब हम अपनी हद पार करने लगते हैं तो रिश्तों में दरार आने लगती है।
मनोविज्ञान कहता है कि रिश्तों में मर्यादा का मतलब किसी को बाध्य करना या बंदिशें लगाना नहीं है। वरन स्वयं को व अपने रिश्तों को सुरक्षित रखना है। अर्थात मर्यादित रहना हर रिश्ते की कामयाबी का मूलमंत्र है।
प्रकृति का दिया सबसे अनमोल उपहार है 'रिश्ता'। फिर चाहे वो पति-पत्नी का हो या माता-पिता का। हर रिश्ता सुनहरा और अनमोल होता है। रिश्तों की अहमियत दो लोगों की आपसी समझदारी और सामंजस्य पर टिका होता है अगर एक पक्ष भी कमजोर हुआ तो उसका टिकना मुश्किल हो जाता है। इसे निभाने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत की आवश्यकता नहीं होती। जरूरत होती है तो सिर्फ आदर, सम्मान और विश्वास की। एक -दूसरे से कुछ छिपाने से मनमुटाव बढ़ता है। आज रिश्तों की खोती मर्यादा के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? आधुनिक जीवन-शैली, सर्वसुलभ इंटरनेट सेवाएं ,सिनेमा या फिर स्वयं मनुष्य को ?? 
मेरा मानना है कि केवल किसी एक को दोषित ठहराना गलत है। इसके लिए बहुत से घटक जिम्मेदार हैं। मनुष्य एक विचारशील और चेतनायुक्त प्राणी है। उसे ज्ञात होने चाहिए कि वह क्या कर रहा है? क्यों कर रहा है?उसकी हरकतों का उसके परिवार पर क्या असर पड़ सकता है?? पूर्ण मर्यादित इंसान ही परिवार एवम समाज में सम्मानित जीवन व्यतीत करता है। अधिक बहस करना, आलोचनाएं या चापलूसी करना, किसी को प्रताड़ित करना भी मर्यादा भंग की श्रेणी में आता है। जो व्यक्ति को अव्यवहारिक सिद्ध करते हैं। आचरण की मर्यादा केवल चरित्र हीनता से ही भंग नहीं होती, अपितु झूठ बोलने, बुराई का साथ देने,उधार लेने, नशा करने, जुआ खेलने से भी भंग होती है। नशा करने के बाद व्यक्ति को किसी बात का होश नहीं रहता। वह पवित्र से पवित्र रिश्ते को भी भंग कर देता है। 
रिश्ता कितना भी प्रिय क्यों न हो, निजी कार्यों में बिना अनुमति दखल देना अनुचित माना जाता है। बुरे वक्त पर रिश्ते सहायक होते हैं, किंतु रिश्तों से नित्य सहायता की अपेक्षा करना गलत है। समाज में पारिवारिक रिश्तों के अतिरिक्त मित्रता का रिश्ता भी होता है, जो कभी कभी पारिवारिक रिश्तों से भी बढ़कर हो जाता है। यह एक वैचारिक सम्बन्ध है, किंतु कितना भी प्रिय मित्र हो मर्यादा लांघने के बाद वह भी अप्रिय लगने लगता है।
लोभ ,मोह, काम, क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या, घृणा, प्रेम ,इत्यादि कोई भी विषय हो। जब तक मर्यादा में हो तबतक ही सही है अन्यथा हानिकारक हो जाते हैं। जैसे अग्नि, जल, वायु संसार को जीवन प्रदान करते हैं किंतु मर्यादा की रेखा लांघते ही प्रलयंकारी बन जाते हैं।जिसका परिणाम सिर्फ तबाही होता है।
-०-
अलका 'सोनी'
मधुपुर (झारखंड)




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अजनबी चहरे (कविता) - नेहा शर्मा


अजनबी चहरे
(कविता)
फुटपाथ पर बैठे
वे अजनबी चेहरें
लाचार और बेबस
नजर आते हैं
नन्ही आंखों के सपने
दूर कहीं खो जाते हैं
आशान्वित निगाहों से
हर राहगीर को वे ताकते हैं
पेट की भूख के लिए
बार-बार हाथ फैलाते हैं
गर्म लू के थपेड़ों से
नन्हा बचपन झुलस जाता है
नंगे पैरों के पदचिन्हों से
खिलता पुष्प सिमट जाता है
कुछ पैसों व रुपयों के लिए
घंटोंतक वे
लोगों के सामने गिड़गिड़ाते हैं
लेकिन दुराचार व कटु वचनों से
हरबार
अपमानित वे हो जाते हैं।।-०-
नेहा शर्मा ©®
अलवर (राजस्थान)


-०-


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जीवन साथी (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला



जीवन साथी
                (कविता)
जीवन साथी तेरे बिन
ये दुनिया दुनिया नही लगती
जब तक हो ना दो चार बातें
ये ज़िन्दगी बढिया नही लगती

चाहे हो तोहफ़े का मामला
या घूमने फिरने का माजरा
मै उत्तर तो तू है दक्षिण
मै दस तो तू नंबर ग्यारह

गर मुझको जाना हो पीहर
रूक जाऊँ तंरी हँसी देखकर
क्यों इतना ख़ुश हो जाते हो
मुझे अपनी ससुराल भेजकर

जब होती ख़र्चे की बात
बंद हो जाती तेरी ज़ुबान
दुनिया भर का ख़र्च तो करते
मेरे वक़्त कमान कस जाती

कम करो तुम अपना ख़र्चा
कह के मेरा जीना दूभर किया
और मैंने तेरा कहा मान
एैसा ही जीवन जी लिया

बात आये जब बच्चों की
उनकी परवरिश मुझे है करना
मै तो पैसा दे देता हुँ
अब आगे सब तुम्ही को करना

जब बच्चा कुछ अच्छा करता
बच्चे का पापा नाम कमाता
और जब हो कुछ उलटा सीधा
सारा इल्ज़ाम बस माँ पर आये

वाह मेरे प्यारे जीवन साथी
हम तुम दोनो एैसे दीपक बाती
साथ तो चलते रहते हरदम
पर राह कभी भी मिल नही पाती
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

-०-

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स्वछता के दोहे (दोहा) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे


स्वछता के दोहे
(दोहा)

बिखरी हो जब गंदगी,तब विकास अवरुध्द !
घट जाती संपन्नता,बरकत होती क्रुध्द !!

वे मानुष तो मूर्ख हैं,करें शौच मैदान !
जो अंचल गंदा करें,पकड़ो उनके कान !!

धन्य वही जो स्वच्छता, को देता आयाम !
सुलभ केंद्र अब बन गया,जैसे तीरथ धाम !!

फलीभूत हो स्वच्छता,कर देती सम्पन्न !
जहॉं फैलती गंदगी,नर हो वहां विपन्न !!

बनो स्वच्छता दूत तुम,करो जागरण ख़ूब !
नवल चेतना की "शरद", उगे निरंतर दूब !!

अंधकार पलता वहॉं,जहॉं स्वच्छता लोप !
जागे सारा देश अब,हो विलुप्त सब कोप !!

मन स्वच्छ होगा तभी,जब स्वच्छ परिवेश !
नव स्वच्छता रच रही,नव समाज,नव देश !!

है स्वच्छता सोच इक,शौचालय अभियान !
शौचालय हर घर बने,तब बहुओं का मान !!

शौचालय में सोच हो,कूड़ा कूड़ादान !
तन-मन रखकर स्वच्छ हम,रच दें नवल जहान !

जीवन में आनंद तब,कहीं नहीं हो मैल !
रहें स्वच्छ,दमकें सदा,गलियां,सड़कें,गैल !!

सभी जगह हो स्वच्छता,तो सब कुछ आसान !
यही आज कहता "शरद",है स्वच्छता मान !!-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मप्र)
-०-

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बिहारीपन में रँगी दुनिया (आलेख) - डॉ अवधेश कुमार अवध

बिहारीपन में रँगी दुनिया
(आलेख)
अंग्रेजों द्वारा भारत को पर्वों की भूमि कहा जाना आज भी उतना ही प्रासंगिक है। भारत की आत्मा धर्म पर आधारित है जिसमें नैतिकता, शुचिता और परोपकार भी भावना कूट कूटकर भरी है। हजार वर्षों के विदेशी दमनकारी कुचक्र के बावजूद भी हमारी पावन वसुधा का मूल प्राण अक्षुण्ण है। इतना असर जरूर हुआ है कि विकास के चकाचौध में कुछ पर्व आधुनिकता एवं प्रदर्शन के रंग में रँग गए हैं। होली, दशहरा, दिवाली, लोहड़ी, बिहू, ईद व क्रिसमस साल दर साल आधुनिक पथ पर सरपट दौड़ रहे हैं। इन बहुतायत त्यौहारों की भीड़भाड़ में बिहारी माटी में उपजा छठ पर्व आज भी अपनी पवित्रता पर कायम है।

छठ पर्व जो पवित्र षष्ठी तिथि को सूर्य उपासना पर आधारित है, बहुत प्राचीन एवं वैज्ञानिक है। कई पुराण, रामायण और महाभारत में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है जो कार्तिक शुक्ल पक्ष की तृतीया से लेकर सप्तमी तक पंच दिवसीय सबसे बड़ा हिंदू पर्व है। विज्ञान सिद्ध है सूर्य में निहित असीम सकारात्मक ऊर्जा जिससे सचराचर क्रियान्वित है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में सूर्य - रश्मियों की प्रवणता का प्रभाव शरीर के लिए अनमोल स्वास्थ्यदायक है। त्वचा सहित शरीर के सकल परमाणु ज्योतिर्मय हो जाते हैं, ऊर्जा से भर जाते हैं। लालमलाल फूल और फल जो मौसमी होते हैं, का सेवन अत्यन्त लाभप्रद है। नदी या सरोवर में कमर तक जल निमग्न होकर घंटों बिताना योग, भक्ति और एकाग्रता से ओत प्रोत होता है।

यह त्यौहार नारी की पूर्ण श्रद्धा - भक्ति पर केन्द्रित है जिसमें पुरुष की भूमिका सहायक के रूप में होती है। बिना मूर्ति और पांडित्य - कर्मकांड के बिना घरेलू और आसपास की वस्तुओं से इस पर्व को मनाया जाता है। इसमें आर्थिक और जातीय स्तरीकरण परिलक्षित न होकर समानता एवं समरसता का भाव निहित है। बाजारू तामझाम से यह सर्वथा पृथक है। पर्यावरणविदों ने इसको प्रकृति के सर्वथा अनुकूल माना है। मानना भी चाहिए क्योंकि यह प्रकृति के विभिन्न उपादानों के संरक्षण पर आधारित है। नदी- सरोवरों की सफाई तथा फूल, फल, फसल और अन्यान्य वनस्पतियों की सुरक्षा और संरक्षण पर जोर देता है।

पूर्ण बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की भोजपूरी- मैथिली माटी से सदियों पहले उपजा यह पावन पर्व चहुँओर बढ़ रहा है। इस पर्व पर गाये जाने वाले गीत सूर्य से गुहार का भाव लिए हुए अत्यन्त कर्णप्रिय होते हैं। अब न केवल भारत के समस्त राज्यों में बल्कि वैश्विक स्तर पर इस त्यौहार को मनाया जाने लगा है। आने वाले समय में यह दुनिया का सबसे लोकप्रिय और व्यापक पर्व होने वाला है। सर्वाधिक प्रसन्नता की बात यह है कि इसको मनाने का विधि - विधान सर्वत्र एक जैसा है। अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए न केवल हिंदू बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी इसके प्रति नतमस्तक हैं। डूबते और उगते सूर्य की उपासना का यह पर्व दुनिया को बहुत व्यापक और सकारात्मक संदेश देता है। पाँच दिनों के लिए दुनिया अपने राजनीतिक हदों को तोड़कर बिहारीपन में रँग गई है, कहना अतिशयोक्ति न होगा।
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डॉ अवधेश कुमार अवध
गुवाहाटी(असम)
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