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Friday, 15 January 2021

हरियाली फिर से छाएंगी (कविता) - डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'

   

हरियाली फिर से छाएंगी
(लघु एकांकी)
सूखे पत्तें, सूनी-सी डाली
गुम हो रही , है हरियाली।

घांस सूख कर हुईं उदास 
प्राणी कोई न आएं पास।

टहनी ने अपना रंग है बदला
गिरगिट नहीं, रहा अब पहला।

पंछी सारे घुम रहें हैं 
एक-एक दाना ढूंढ रहें हैं। 

पेड - पत्ते छलनी हुएं हैं 
 पत्थर, पर्वत दिख-छुप रहें हैं। 

राह में जंगल,अब सूख चुका है 
पता वर्षा का पूछ रहा है। 

उम्मीद है बनीं, 
बरखा फिर आएगी।
हरियाली इस जंगल में,
फिर से छाएगी।
-०-
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
-०-

***
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*मेरा गांव* (कविता) - डॉ. अरविंद श्रीवास्तव 'असीम'


*मेरा गांव* 

(कविता)

                सड़क किनारे गांव मेरा है

                  उसकी याद सताती है ।

भीड़ -भाड़ है सदा वहां 

एक लगता सुंदर मेला है ।

छोटी- मोटी कई दुकानें 

और पान का ठेला है।

 कटती फसल अन्न घर आता

 हर घर खुशियां आती है ।

सड़क किनारे गांव ••••••

उसकी याद•••••••।

          अपनापन है सदा वहां 

           सब मेल -जोल से रहते हैं।

           बड़ों का करते मान सभी

          दुःख-दर्द साथ में  सहते हैं ।

          काकी- दादी शुभ पर्वों पर

           मधुर स्वरों में गाती है।

          सड़क किनारे गांव •••••

          उसकी याद•••••।

 

गांव को किसकी नजर लगी है 

राजनीति की हवा चली ।

नेता गीरी, नारे  बाजी 

गूंज उठी हर गली गली।

 जिन गलियों में खेला -कूदा 

वे मुंह मुझे  चिढाती है 

सडक  किनारे गांव •••••

उसकी याद ••••••••।

-०-

पता 
डॉ. अरविंद श्रीवास्तव 'असीम' 
दतिया (मध्य प्रदेश)


-०-

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यादों की गठरी (कविता) - रानी प्रियंका वल्लरी

 

यादों की गठरी
(कविता)
यादों की गठरी है कुछ 
पीड़ बन दबी हृदय में 
तमाम यादें मुश्किलें 
अंतर्मन में सिकुड़ी हुई है।

सफ़ेद कोहरे की तरह 
हृदय पर छाई हुई है 
खिली धूप सी है यादें 
मुस्कुराना चाहती हैं 

स्मृति का अलाव जलाकर 
सेंकती हुई हाथे कंपकपाती
भावनाओं के अनंत लहर में 
डूब कर सहम जाती है।

व्यथा,निराश निंदा रस का 
हाला पीकर मदमस्त हृदय 
पहाड़ की खाई में लुप्त 
होकर विलीन हो जाती है 

रिश्ते नाते परखने लगे 
भावनाओं और विचार में 
प्रतिदिन जूझती ज़िंदगी 
अभिसार को आतुर है 

निर्वस्त्र हृदय की आकुलता 
व्यथा का घट पीकर सदा
आश्वस्त कर रहा यह  मन 
शीतल विराम  में अपना 
स्थिर अस्तित्व ढूँढ़ती है 
-०-
पता: 
रानी प्रियंका वल्लरी
बहादुरगढ (हरियाणा)

-०-

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जनता की मूल प्रवृत्ति (आलेख) - श्रीहरि वाणी

जनता की मूल प्रवृत्ति 

(आलेख)

       मनुष्यों का समूह आज जनता के रूप में दिखता हैं,  मूल रूप से तो मनुष्य स्वच्छंद ही होता हैं, यह तो हम उसे अपनी सामाजिक,  धार्मिक, देशज परम्परा, अनुशासन, व्यवस्था के नाम पर विभिन्न तरीकों से बाँधने का प्रयत्न करते रहते हैं, लेकिन वर्जित फल का आकर्षण शनैः शनैः बढ़ता ही रहता हैं.. परिणाम में हमें दिखता हैं विभिन्न कारणों के बहाने होने वाले दंगे.. उन्माद.. अराजकता.. अनैतिकता.. आये दिन होती बलात्कार.. हत्या.. लूटपाट.. दबंगई और बढ़ता भ्रष्टाचार.. जिसकी पराकाष्टा हैं की हमें ट्रेन के उच्चतर दर्जे के शौचालय में भी शौच के डिब्बे जंजीर से बाँध कर रखने पड़ते हैं फिर भी वे गायब होते रहते हैं.. सार्वजनिक प्याऊ पर भी प्लास्टिक के मग रस्सी से बांधे जाने पर भी लोग रस्सी काट इन्हें भी ले जाते हैं.. मन्दिर.. धर्मस्थान.. प्रवचन स्थल जहाँ विशाल जनसमूह नैतिकता.. धार्मिकता.. मानवता के विचार ग्रहण करने... सुनने.. जाता हैं वहाँ भी जूते तक सुरक्षित रखने की व्यवस्था करनी पडती हैं.. लोगों की चेन.. आभूषण चोरी हों जाते या छीन लिए जाते हैं... जहाँ राम ने पिता की आज्ञा पालन में राजपाट छोड़ने में एक क्षण नहीं लगाया.. भरत ने अवसर.. आग्रह के बाद भी भाई की चरण पादुका सिंघासन पर प्रतिष्ठित कर प्रतिनिधि रूप में राज संभाला और वापस लौटते ही उन्हें सहर्ष सौंप दिया उसी राम के देश में पिता की हत्या तक संपत्ति हेतु करने.. भाइयों से संपत्ति विवाद का मुकदमा जीतने पर उसी राम का आराधन करते अखण्ड रामायण पाठ आयोजित कर उल्लास पूर्वक मित्रों.. परिचितों को भोज कराने की घटनाएँ भी सामने आती रहती हैं.. कितना सीख सके कृष्ण से हम..? नीतिशतक यहाँ लिखा तो गया माना नहीं गया.. राम द्वारा शबरी के झूठे बेर खाने की कहानियाँ खूब सुनी सुनाई गयीं लेकिन सवर्ण /अछूत का, जात पांत का भेद हमें खूब रुचता रहा इसमें राम की बात हम भूल गये..राम ने तो वनवासी.. जंगली.. निषाद वानर ऋक्ष सवर्ण.. अवर्ण सभी से मित्रता की सम्मान दिया.. कृष्ण भी सवर्ण अवर्ण का भेद किये बगैर सभी से हिले मिले, मित्र बनाया उनके यहाँ खाया पिया कितना माने हम उन्हें?  सिर्फ ताली पीट खड़ताल बजाते नाचते कूदते हम स्वयं को राम कृष्ण का अनुयायी मान बैठे.. यह सब ढ़ोंग नहीं तो क्या हैं?नारी को भी हमने देवी बना दिया.. खूब कन्या पूजन लगातार कर रहे हैं, वर्ष में दो बार नवरात्र भी मना लेते हैं.. शक्ति की आराधना भी करते हैं.. दूसरी ओर सड़कों पर बेटियां सुरक्षित भी नहीं हैं, आये दिन उनके साथ अनाचार रुक नहीं रहे हैं.. कैसी देवी..? कैसी पूजा कर रहे हैं हम..? घरों में माँ - पिता असहाय उपेक्षित टुकड़ों की आस लगाए जीवन के शेष दिन काटते तिल तिल मर रहे हैं, समाज में सदैव सम्मान पाने वाले वृद्ध जनों के वृद्धाश्रमों की सँख्या बढ़ रही हैं, उनके लिए दान एकत्र करने अनेक एन. जी. ओ. निकल पड़े हैं इसे भी कमाई का साधन बना लिया, दरअसल चतुर लोग मनुष्य की प्रत्येक कोमल सम्वेदना का शोषण बखूबी करने की कला में पारंगत हैं..  शासन -सत्ता भी धार्मिक.. जातीय.. भाषाई.. क्षेत्रीय भावनाएं उभार कर जनता को उन्माद में झोंक कर अपना हित साधने का प्रयास यदाकदा करती रहती हैं.. बुद्धिजीवी.. चिन्तक.. सुविधाभोगी हों चले हैं.. आदर्शवाद.. नैतिकता सिर्फ भाषणों और पुस्तकों में सिमट चुके हैं... व्यवहार में इनका अस्तित्व नगण्य ही हैं.. हम सब पता नहीं कितने मुखौटे लगाए घूम रहे हैं.. सोचते हैं सिर्फ हम बुद्धिमान हैं मुखौटों से दूसरों को बेवकूफ बना लेंगे.. जबकि असलियत यह हैं की दूसरे भी मुखौटे लगाए हैं.. सब एक दूसरे को उपदेश देते अपनी अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगे हैं.. जो तुलनात्मक रूप में जितना चतुर हैं वह उतने ही लोगों से अपना मतलब निकाल लेता हैं.. अंधी दौड़ में सब भाग रहे हैं.. 

     विडंबना हैं यह सब उस देश के हाल हैं जो आज भी अपने गौरवशाली अतीत के दम्भ से फूला नहीं समाता.. कल तक जिसे विश्व गुरु कहा जाता था.. हम अक्षम.. अकर्मण्य.. कपूत रहे जो अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा भी न बचा सके.. बढ़ाने की तो बात ही छोड़िये.. अपने निहित स्वार्थों से जो था उसे भी गँवा दिया.. फिर भी हमें जरा भी संकोच.. लाज.. नहीं.. कुछ सोचने की जरूरत नहीं.. संसार के सर्वाधिक प्रवचनकर्ता.. यहीं हुए,  उन्होंने संसार को प्रभावित किया होगा लेकिन यहाँ अपनी जमीन पर मनुजता.. नैतिकता की फसल नहीं उगा सके.. 

   अब और कब तक कितनी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी.. अथवा यह सब ऐसा ही चलता रहेगा और हम सब तटस्थ.. मूक दर्शक बन अपने अतीत का भजन कीर्तन करते रहेंगे.. ❓❓❓

-०-

पता 
श्रीहरि वाणी
कानपुर (उत्तर प्रदेश)


-०-

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