•साहित्य का वायरस•
(व्यंग्य)
कोरोना वायरस के डर से मुझे घर में जेल की तरह बंद रहना पड़ा। पत्नी के साथ कुछ दिनों तक साथ रहना मुझे किसी उम्र कैद से कम नहीं लग रहा था।बाहर पुलिस का डर और घर में पत्नी का भय। यानि आगे कुआं और पीछे खाई। जाऊं तो जाऊं कहां।
इस कैद से तंग आकर मैनें अपने लेखक दोस्त को फोन किया। उसका नाम है तोपचंद तिवाड़ी। मैने कहा,"तोपू भाई तंग आ गया हूं मैं इस घरेलू आपातकाल से।टाईम पास ही नहीं होता। सारा घर खाने को दौड़ता है।" वह जोर-जोर से किसी जोकर की तरह हंसा और बोला,"अरे गोपू भाई मुझे तो इस कैद का मजा आ गया। कोरोना वायरस की आड़ में एक नया व्यंग्य संग्रह लिखने की तैयारी में जुट गया। तू भी कुछ न कुछ लिख। हो सकता है तू भी मेरी तरह देश का एक बड़ा लेखक बन जाए।" उसकी बात का मुझ पर ऐसा असर हुआ कि मुझे लगने लगा कि मुझ में कोरोना वायरस की जगह साहित्य का वायरस घुस गया। इस वायरस ने इतनी जबरदस्त उंगली की कि मैं कुछ न कुछ लिखने लगा। यूं कहिए कि जबरदस्ती साहित्यकार बनने की राह पर चल पड़ा। रोज दो से तीन घंटे तक कागज काले करने लगा। लिखने के नाम पर तो बहुत लिखा लेकिन छपने के नाम पर ठेंगा। मैं साहित्य के वायरस के सहारे अपने दोस्त तोपचंद तिवाड़ी जैसा महान साहित्यकार बनना चाहता था। पत्नी ने मेरा नाम ही साहित्य का वायरस रख दिया। उसका बड़बडाते रहना और मेरा लिखते रहना ऐसा लगता जैसे कोई दो पागल एक ही लाॅकअप में डाल दिए हों और दोनों की विचारधारा उत्तर -दक्षिण जैसी।
मित्रों साहित्य का वायरस मेरे भीतर धीरे-धीरे किसी महामारी का रूप धारण कर रहा था। इसके लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगे थे। खुद को आइशोलिस्ट कर लिया था। सबसे मिलना जुलना बंद कर दिया मैनें। कागजों के ढेर लगा लिए थे अपने चारों तरफ।पहले लिखना और बाद में लिखकर कागज फाड़ देने के दौरे पड़ने लगे थे मुझे। न भूख का पता था न प्यास की अनुभूति होती। बस नये-नये आइडिया खोजने में दिन- रात गुजरने लगे। कई दिनों तक दाढ़ी नहीं बनायी तो बीवी दूर भागने लगी। उसे मैं कैक्टस के पौधे जैसा दिखने लगा था। फिर अचानक तोपचंद पुलिस से बचते- बचाते मेरे घर आया। शायद मेरी हरकतों से घबराकर मेरी बीवी ने उसे बुलाया होगा। पहली ही नजर में वह मुझे पहचान गया कि मुझ में साहित्य का वायरस फल-फूल गया है। उसने मेरी बीवी को समझाते हुए कहा,"भाभी गोपू के शरीर में साहित्य का वायरस कूट-कूट कर भरे हैं।" वह तोपू की बात सुन कर घबरा गयी और बोली,"नहीं भैया जी मैने तो कूट-कूट कर कुछ भी नहीं भरा...हां आप ने उस रोज फोन पर न जाने क्या मंत्र फूंक दिया कि इनको साहित्यकार बनने की सनक सी पैदा हो गयी।" तोपचंद समझ गया कि मेरी बीवी ने कूट-कूट का अर्थ क्या निकाल लिया। वह बोला,"भाभी जी इसको कौन समझाए कि नया लेखक पहले चोर होता है और फिर धीरे-धीरे ईमानदारी से लिखता है।" "चोर होता है...मैं कुछ नहीं समझी भैया?" मेरी बीवी लाडो ने कहा। जी हां मेरी बीवी का नाम लाडो ही है। ये आपको बता रहा हूं। किसी और से मत कहना। तोपू भैया ने कहा,"दूसरे का लिखा चुरा-चुरा कर छपते रहो और धीरे-धीरे लिखने का ज्ञान बढ़ जाए तो स्वयं का लिखना शुरू कर दो। जैसे मैने किया।" उसकी बातें मैं अपने आईशोलेशन वार्ड से चुपचाप सुन रहा था। उसका ये कड़वा डोज सुनते ही मेरे अंदर घुसा साहित्य का वायरस बाहर निकल गया था। और मैं आम आदमी बन गया।
पता:
गोविंद भारद्वाज
अजमेर राजस्थान
गोविंद भारद्वाज
अजमेर राजस्थान