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Friday, 3 April 2020

•साहित्य का वायरस• (व्यंग्य) - गोविंद भारद्वाज

•साहित्य का वायरस•

(व्यंग्य)
कोरोना वायरस के डर से मुझे घर में जेल की तरह बंद रहना पड़ा। पत्नी के साथ कुछ दिनों तक साथ रहना मुझे किसी उम्र कैद से कम नहीं लग रहा था।बाहर पुलिस का डर और घर में पत्नी का भय। यानि आगे कुआं और पीछे खाई। जाऊं तो जाऊं कहां।
इस कैद से तंग आकर मैनें अपने लेखक दोस्त को फोन किया। उसका नाम है तोपचंद तिवाड़ी। मैने कहा,"तोपू भाई तंग आ गया हूं मैं इस घरेलू आपातकाल से।टाईम पास ही नहीं होता। सारा घर खाने को दौड़ता है।" वह जोर-जोर से किसी जोकर की तरह हंसा और बोला,"अरे गोपू भाई मुझे तो इस कैद का मजा आ गया। कोरोना वायरस की आड़ में एक नया व्यंग्य संग्रह लिखने की तैयारी में जुट गया। तू भी कुछ न कुछ लिख। हो सकता है तू भी मेरी तरह देश का एक बड़ा लेखक बन जाए।" उसकी बात का मुझ पर ऐसा असर हुआ कि मुझे लगने लगा कि मुझ में कोरोना वायरस की जगह साहित्य का वायरस घुस गया। इस वायरस ने इतनी जबरदस्त उंगली की कि मैं कुछ न कुछ लिखने लगा। यूं कहिए कि जबरदस्ती साहित्यकार बनने की राह पर चल पड़ा। रोज दो से तीन घंटे तक कागज काले करने लगा। लिखने के नाम पर तो बहुत लिखा लेकिन छपने के नाम पर ठेंगा। मैं साहित्य के वायरस के सहारे अपने दोस्त तोपचंद तिवाड़ी जैसा महान साहित्यकार बनना चाहता था। पत्नी ने मेरा नाम ही साहित्य का वायरस रख दिया। उसका बड़बडाते रहना और मेरा लिखते रहना ऐसा लगता जैसे कोई दो पागल एक ही लाॅकअप में डाल दिए हों और दोनों की विचारधारा उत्तर -दक्षिण जैसी।
मित्रों साहित्य का वायरस मेरे भीतर धीरे-धीरे किसी महामारी का रूप धारण कर रहा था। इसके लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगे थे। खुद को आइशोलिस्ट कर लिया था। सबसे मिलना जुलना बंद कर दिया मैनें। कागजों के ढेर लगा लिए थे अपने चारों तरफ।पहले लिखना और बाद में लिखकर कागज फाड़ देने के दौरे पड़ने लगे थे मुझे। न भूख का पता था न प्यास की अनुभूति होती। बस नये-नये आइडिया खोजने में दिन- रात गुजरने लगे। कई दिनों तक दाढ़ी नहीं बनायी तो बीवी दूर भागने लगी। उसे मैं कैक्टस के पौधे जैसा दिखने लगा था। फिर अचानक तोपचंद पुलिस से बचते- बचाते मेरे घर आया। शायद मेरी हरकतों से घबराकर मेरी बीवी ने उसे बुलाया होगा। पहली ही नजर में वह मुझे पहचान गया कि मुझ में साहित्य का वायरस फल-फूल गया है। उसने मेरी बीवी को समझाते हुए कहा,"भाभी गोपू के शरीर में साहित्य का वायरस कूट-कूट कर भरे हैं।" वह तोपू की बात सुन कर घबरा गयी और बोली,"नहीं भैया जी मैने तो कूट-कूट कर कुछ भी नहीं भरा...हां आप ने उस रोज फोन पर न जाने क्या मंत्र फूंक दिया कि इनको साहित्यकार बनने की सनक सी पैदा हो गयी।" तोपचंद समझ गया कि मेरी बीवी ने कूट-कूट का अर्थ क्या निकाल लिया। वह बोला,"भाभी जी इसको कौन समझाए कि नया लेखक पहले चोर होता है और फिर धीरे-धीरे ईमानदारी से लिखता है।" "चोर होता है...मैं कुछ नहीं समझी भैया?" मेरी बीवी लाडो ने कहा। जी हां मेरी बीवी का नाम लाडो ही है। ये आपको बता रहा हूं। किसी और से मत कहना। तोपू भैया ने कहा,"दूसरे का लिखा चुरा-चुरा कर छपते रहो और धीरे-धीरे लिखने का ज्ञान बढ़ जाए तो स्वयं का लिखना शुरू कर दो। जैसे मैने किया।" उसकी बातें मैं अपने आईशोलेशन वार्ड से चुपचाप सुन रहा था। उसका ये कड़वा डोज सुनते ही मेरे अंदर घुसा साहित्य का वायरस बाहर निकल गया था। और मैं आम आदमी बन गया।
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पता:
गोविंद भारद्वाज
अजमेर राजस्थान


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अब जाग जाओ (कविता) - डॉ. शैल चन्द्रा

अब जाग जाओ
(कविता)
फुदकती चिड़िया देखकर आँगन सुनसान।
पूछती है सबसे कहाँ गया इंसान।
हो रही है वो बेहद हैरान।
ये क्या से क्या हो गया भगवान।
हमेशा भीड़ से घिरा रहना चाहता था कामयाब इंसान।
अब एकदम अकेले रह गया है चाहे वो बहुत धनवान।
कोरोना अस्त्र आया मारण यंत्र।
नहीं चल रहा उसके सामने कोई तंत्र।
भयानक मौत का तांडव करने वो आया।
सुनामी की लहर की तरह सबको डुबाया।
बचना है तो बच सको हे मानव।
वरना पल भर में लील जाएगा ये दानव।
सुरक्षा अपने हाथ में है कर लो।
जीवन को चाहो अपनी मुठ्ठी में भर लो।
मनुष्य में जिजीविषा है भारी।
हरा कर कोरोना को जीत रखेगा जारी।
घर पर रहो लोगों ,बाहर खतरा है।
दरवाजे पर सबके मौत का पहरा है।
नहीं जागे तो अब जाग जाओ।
हाथ धो कर पीछे पड़ कर कोरोना को भगाओ।
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पता
 डॉ. शैल चन्द्रा
धमतरी (छत्तीसगढ़)

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शांति की सत्ता ! (कविता) - अशोक 'आनन'


शांति की सत्ता !
( कविता )
न कहीं दंगा , न कहीं फ़साद है ।
हर तरफ शांति की सत्ता आबाद है ।

देखा नहीं कभी ऐसा मरघटी सन्नाटा -
सभी बंद हैं घरों में , नहीं कोई आज़ाद है ।

लोग खिड़कियों से झांक रहे हैं कुछ ऐसे -
मानों द्वार की उन्हें नहीं कुछ याद है ।

दूरियां दिलों की जो पाटी थी आदमी ने -
नज़दीकियां आज वे हो गईं बर्बाद हैं ।

आदमी को शक़ की नज़र से देखता आदमी -
संकट में हर मां - बाप , संकट में औलाद है ।

सन्नाटा पसरा है हर गांव , गली , शहर में -
आदमी से आदमी का आज बंद संवाद है ।

वक़्त ही कुछ ऐसा ज़ालिम आज ये आया -
फ़िज़ूल उसके सामने आज हर विवाद है ।

पीड़ा आज यह सह रही है जो ये मानवता -
इस पीड़ा का कहीं नहीं कोई अनुवाद है ।

प्रभु की जो सेवा , की है जो आराधना -
उसी पूजा का समझ लो यह प्रसाद है ।

मिल - जुलकर सामना कर हम दिखाएंगे -
भारत विश्व में इसका एक अपवाद है ।
-०-
पता:
अशोक 'आनन'
शाजापुर (म.प्र.)

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अहसास (लघुकथा) - माधुरी शुक्ला

अहसास
(लघुकथा)
सुहानी सुबह से चिढ़ रही है। एक तो ऑफिस में मार्च आखिर के कारण बढ़ा हुआ काम और यहां घर में काम वाली बाई बिना बताए गायब। पड़ोस वाली शर्मा आंटी से दो बार पूछ आई है रमा बाई की कोई खबर है क्या? वह भी बता चुकीं नहीं है कोई खबर मैं भी परेशान हूं। अब सुहानी बड़बड़ा रही है इस बार इसकी छुट्टी कुछ ज्यादा ही हो गई पैसे काट लूंगी।

तभी बेल बजती है वह गेट खोलती है तो सामने रमा का बेटा था। क्या आज नहीं आएगी तेरी माँ? सुहानी ने गुस्से में पूछा। उसने डरते हुए कहा - पांच दिन नहीं आएगी। क्यों अब ऐसा क्या हो गया? सुहानी ने ऊंची आवाज़ में पूछा। मेरी नानी बीमार है उसका इलाज अब शहर में कराएंगे। मां उन्हें लेने गांव गई है। रमा के बेटे की बात सुन सुहानी को याद आया परसों मां का फोन आया था - दादी बीमार है और रोज तुझे याद करती हैं आकर मिल जा किसी दिन। बिना देर किये वह छुट्टी के लिए आफिस फोन लगाती है और बस का टिकट बुक कराती है।
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पता:
माधुरी शुक्ला 
कोटा (राजस्थान)


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