(कहानी)
घर की बालकनी में बैठा हुआ,मैं अख़बार के पन्ने पलट रहा था।कोई खब़र मजेदार नहीं थी,वही रोज की तरह हत्या, लूट, बलात्कार की घटनाओं से पूरा अख़बार भरा था।उसे एक ओर पटककर सामने के पार्क में देखने लगा।पार्क खेलने वाले बालकों से भरा था।छुट्टियों के दौरान पार्कों की रोनक कुछ अलग ही होती है,छोटे बड़े समूह में बच्चें तरह तरह के खेल खेल रहे थे; तो कुछ एकाकी पार्क के मध्य में लगे फाउनटेंन से गिर रही ठण्डी बूंदों को हाथो में समेटने का प्रयास कर रहे थे।
मेरी नज़र पार्क के एक कोने से दूसरे कोने के बीच घूमने लगी; तभी नज़र एक बरगद के पेड़ के नीचे जा टिकी वहां दो बच्चें (एक लड़का और एक लड़की) उकडू बैठे खाना खा रहे थे।मैं अपलक उन्हें देखने लगा।उम्र यही कोई दस बारह साल होगी,पास ही दो मैले कुचेले थेले पड़े थे।
मैं बालकनी से उतर कर उनके पास चला आया ,मन में एक अजीब सा कुतूहल था जो मुझें उनकी ओर खींच रहा था।पास जाकर देखने पर लगा मजदूर से है। मेरा उनसे बात करने का मन हुआ पूछ ही लिया," क्या नाम है बेटा?"
'कुबेर ' काले अचार की फाँक से जूझते हुए लड़के ने झिझकते हुए जवाब दिया। शायद वह मेरे अचानक पास आने से डर गया था। " और तुम्हारा बेटी ?" 'मेरा लक्ष्मी है बाबूजी' एक नो दस बरस की लड़की ने अपने पतले होठों को धीरे से खोला।
मैं कुछ क्षण उन्हें यो ही देखता रहा,
तुम पढ़ने नहीं जाते?
नहीं बाबू जी लड़की ने गम्भीर विषाद की रेखाऐं उभारते हुए कहा ।लड़का अभी तक अचार की फाँक को दातों से कुचल रहा था। उनके पास पड़े थैले की ओर इशारा करते हुए मैंने पूछा और इसमें क्या है? क्या करते हो तुम।
कुछ नहीं है बाबू जी कचरे के ढैर से बीन बीन कर भरे हुए कागज,खाली डिब्बें,डिस्पोजल गिलास यही बस और कछु भी नहीं है बाबू जी,लड़के ने थैले का मुँह खोलते हुए मुझें दिखाकर कहा। इसे बेचकर कुछ पैसे कमायगे बाबू जी।
पर तुम्हारें माँ बाप कहा है? क्या वे नही करते कोई काम और इतने से पैसे से तुम्हारा गुजारा हो जाता हैं?
मैंने एक साथ कई प्रश्न पूछ डाले जो मेरी अधीरता का पर्याय थे।
" आई( माँ) करती है बाबू जी पर काका (पिता) नही करता वह बीमार है न।
इस बार लड़की ने बड़ी ही करुणा
से कहा।हम दोनों भाई बहन कचरा बीनते है ।
मैं विस्मित सा उन्हें देखने लगा। लडके की पूरानी कमीज जो शायद उससे दुगनी उम्र के किसी लड़के ने मन भर जाने के कारण उसे दे दी होगी घूटनों तक लटक रही थी,हाथ और पैर पूरी तरह काले थे जैसे बरसों से कोयले की खान में काम करता हो; आँखों में विषाद की रेखाऐं,चेहरे पर अजीब सी खामोशी।
लड़की का उलझा हुआ फाँक, नंगे पैर,सालो से न नहाने से रस्सी से बाल,बेबस आँखे ये सब उसकी गरीबी का मखौल उड़ा रहे थे।
मैं उन्हें लगातार देख रहा था,थोड़ी देर में बासी रोटियाँ काले अचार की फाँकों से खाकर पास लगे वाटर कुलर पर पानी पी लिया, फिर दोनों ने अपनी मैली कमीज की बाँह को मुँह पर फैर लिया।दोनों अपने अपने थैले उठाये जमीन को ताकते हुए आगे बढ़ गए।
मैं भी भगवान के बटँवारे पर विचार करता लोट आया।कितना विचित्र न्याय है ईश्वर का एक ओर हजारों रुपये के खिलोनों से खेलते बच्चें तो दूसरी ओर एक एक पैसे के लिए गंदगी के ढैर पर जद्दोजहद करते ये दोनों..... वाह रे ईश्वर।
कुछ दिनों बाद वे दोनों मुझें मेरे ऑफिस की इमारत के सामने मिले वही थैले वही कपड़े सब वही।
मैं कार से उतर ऑफिस के दरवाजे की ओर बढ़ा ही था कि एक पतली सी जानी पहचानी आवाज़ कानों में गुंजी ।
बाबू.... जी...... बाबू... जी....मैंने पीछे मुड़कर देखा वे दोनों बच्चें थैले लटकाये मेरी तरफ चले आ रहे थे।
अरे ! आप यहां इतनी दूर?
हा बाबू जी हम तो कहीं भी चले आते है जहां जो कुछ मिलता है बीनते रहते है ।
मैंने पास जा पूछा " और तुम्हारें पिता जी कैसे है?"
काका...काका तो बहुत बीमार है बाबू जी,डॉक्टर ने दवा नही दी ।
मैने विस्मय से पूछा ।
क्या? हा बाबू जी पैसे नही थे न तो डॉक्टर ने मना कर दिया। डॉक्टर भी ऐसे हो सकते है मुझें डॉक्टर के ऐसे व्यवहार पर क्रोध आ रहा था।लोग जिसे दूसरा भगवान कहते है वह ऐसा भी हो सकता है ? बच्चों की बेबसी उनके स्याह चेहरे पर उभर आयी थी ।मैने जेब से सो का नोट निकल कर लड़के की ओर बढ़ाया यह लो पैसे और अपने काका का इलाज करवाओं।
नहीं नहीं बाबू जी हम खुद पैसे जुटाकर दवा खरीद लेगे।बच्चों का साहस देख मैं भावुक हो गया।
ले भी लो, मैंने कहा,जब तुम्हारे पास आजाये तो वापस कर देना। किसी तरह मैं उन्हें पैसे दे कर ऑफिस की सीढ़ियाँ चढ़ गया।कुछ दिन बीत गए मैं अपने काम में व्यस्त हो गया न वो मिले न मुझें कोई ख्याल आया।
उस दिन किसी काम से बाजा़र से गुजरा रहा था कि सामने से अकेला लड़का आता दिखाई दिया।
गाड़ी रोक बुलाया अरे ! तुम आज अकेले लक्ष्मी कहां है ?
वह आज नहीं आयी बाबू जी काका की तबियत ज्यादा खराब है तो घर ही रुक गयी। उसकी आँखे डबडबा गयी।
मैंने उसे गाड़ी में बिठाया और उसके घर की ओर चल पड़ा।शहर से बाहर बनी झुग्गियों के पास लड़के ने गाड़ी रोकने को कहा।
गाड़ी सड़क के एक ओर खड़ी कर मैं उसके पीछे पीछे चल पड़ा। कई गलियाँ गंदी नालियाँ बदबूदार गीली सड़क को पार कर सरकण्डे की झोपड़ी में पहुँचा।पूरी की पूरी झोपड़ी बेतरतीब से फैली गंदी मैली चीजों से भरी थी।
एक ओर टुटे फूटे स्टील के बरतन पड़े थे तो एक कोने में चूल्हे के पास कुछेक डिब्बों में खाना पकाना का सामान पड़ा था, पास ही कण्डे और कटीलें झाड़ की टहनियाँ ।
दीवारों पर जगह जगह फटे पुराने कपड़े चिथडे़ से लटक रहे थे।दरवाजे की जगह टाट का पर्दा था।
घर की दीवार के सहारे टुटी चारपाई पर एक अधेड़ गठरी सा पड़ा करहा रहा था।सिरहाने पर बैठी औरत उसे ताक रही थी ।
मेरे अन्दर आते ही वह उठकर एक कोने में सिमट कर खड़ी हो गयी।कुबेर सरकण्डे का टुटा मुड्डा मेरी ओर सरकाता हुआ बोला।
काका ....काका...यह बाबू जी तुमसे मिलने आये है।तुझे दवा दिलायगे काका।
अधेड़ ने अपनी अन्दर धँसी बेबस आँखों को खोलने का प्रयास किया पर वह नाकाम रहा।उसके मुँह से कुबेर कुबेर लक्ष्मी लक्ष्मी की धुन लगी थी।वह बड़बड़ा रहा था।
मैंने आगे बढ़कर उठाने का प्रयास किया लेकिन उसका साहस जवाब दे गया था।जिन्दगी की डोर टुटती सी लगी।
देखते देखते ही वह मेरी आँखों के सामने कुबेर कुबेर करता हुआ दुनियाँ से चला गया। उसे खामोश देखकर पत्नी चीख पड़ी, माँ को देख दोनों बच्चें पिता के बेजान शरीर से लिपट कर चीख उठे।
मैं गीली आँखों से बेबस जमीन ताकने लगा।नियती का खेल भी अजीब था कितने कुबेर,लक्ष्मी रोज कचरे से जद्दोजहद करते हैं पर नियती ने सिवाये नाम के कुछ नही दिया।
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