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Thursday 28 November 2019

आँसू (लघुकथा) - वाणी बरठाकुर 'विभा'

आँसू
(लघुकथा) 
परिणीता की माँ की बीमारी दिन ब दिन बढ़ती जा रही है । जिस दिन डाक्टर ने उसे साफ साफ जवाब देते हुए कहा था कि यह बीमारी ठीक नहीं होगी , इलाज से तीन चार महीने मौत टल सकती हैर । सुनकर परिणीता के पैरों तले से जमीन खिसक गई थी । पिता की मृत्यु के समय भी इतना दुख नहीं हुआ था उसे । माँ की हालत पर सम्वेदना देने बहुत आए, लेकिन हर किसी का मतलब छिपा था। परिणीता भी अब ना समझ नहीं रही । पड़ोस के दिवाकर चाचा पहले भी कई बार आए थे । पिताजी की मृत्यु के बाद माँ से कितने मीठे मीठे बोल रहे थे, तभी माँ ने परिणीता को बता दिया था कि ऐसे लोगों से सावधान रहना और वीर चाचा एवं कोमल चाची तो माँ की बीमारी की बात सुनते ही दौड़े आए और परिणीता से कहने लगे, "चिंता न करो बेटी, हम है न , तुम तो हमारी बेटी जैसी हो । इतने जमीन जायदाद हैं। मुसीबत में काम न आए तो किस काम की ! चाहो तो गिरवी रख सकती हो , तुम्हें देखने के लिए हम सभी है न ! वगैरह ....वगैरह ।" उसे पानी लाने के लिए भेजकर उसकी माँ से जो बात कही उसे सुनते ही उसका दिमाग गर्म हो गया और इतना लाड़ प्यार जताने के पीछे का दृश्य साफ हो गया । वो मर जाने के लिए तैयार है मगर वीर चाचा का पागल पियक्कड़ बेटे से शादी नहीं करेगी ।
परिणीता के न बताने से भी उसकी माँ जान गई थी कि वो चंद दिनों की मेहमान है । इसलिए उसे बोल रही थी ," मेरे चले जाने के बाद यह जालिम दुनिया तुझे अकेले पाकर खा जाएगी। मामा ने तेरे लिए जो लड़का देखा है, उससे शादी के लिए हाँ बोल दे ।" परिणीता मामा और माँ की बातों में सहमति दे दी । 
उस दिन सुबह सेे माँ बोल नहीं पा रही थी । डॉक्टर वक्त कम है बताकर चले गए । इष्ट कुटुम्ब सबको खबर दिया गया । शाम को माँ लम्बी लम्बी साँस ले रही थी और जोर से परिणीता के हाथ पकड़कर कुछ बताने की कोशिश कर रही थी लेकिन कुछ बोल नहीं पाई। केवल आँखों से आँसू टपक रहे थे । देखते देखते ही माँ की साँसें और आँसू दोनों ही बंद हो गए और परिणीता किसी नदी के तटबंध जैसे टूट गई ।
-०-
वाणी बरठाकुर 'विभा'
शोणितपुर (असम)

-०-

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पेड़ की दुर्दशा (मुक्तक गीत) - डॉ० धाराबल्लभ पांडेय 'आलोक'


पेड़ की दुर्दशा
(मुक्तक गीत)
आज पेड़ भयभीत हुआ है।
फरसाधर से डरा हुआ है।
कब किसकी दुर्दशा हो जाए,
इसी बात से कंपा हुआ है।।

हाथ दराती रस्सी कंधे।
निर्दयता से बनकर अंधे।
काटें शाखाएं क्रूर बन,
बेच-बेचकर करते धंधे।।

विवश पेड़ अब कहां को जाएं।
कोई ना उसकी मदद को आएं।
अपनी पीड़ा खुद ही सहकर,
अश्रुधार नित बहती जाएं।।

भीषण गर्मी में शीतलता।
वायु, छांव व जल निर्मलता।
दावानल का कोप सहनकर,
फिर भी मधुर, सरस फल फलता।।

पादप जग के महाप्राण हैं।
वहीं महान ऋषि प्रचेतान हैं।
इनकी महिमा-आश्रय पाकर,
ऋषि, मुनि, कवि बन सब महान हैं।।
-०-
डॉ० धाराबल्लभ पांडेय 'आलोक'
अध्यापक एवं लेखक
उत्तराखंड, भारत।


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प्लास्टिक मुक्त हो भारत (कविता) - सुरेश शर्मा

प्लास्टिक मुक्त हो भारत
(कविता)

स्वच्छ भारत के स्वस्थ्य भारत का,
सपना साकार करने मे अब ;
कोई कसर नही छोडेंगे ।
अपने भारतवर्ष को हम ,
प्लास्टिक मुक्त करके ही छोडेंगे ।

सुन्दर और सुखद जीवन -यापन के लिए ,
प्लास्टिक के विरूद्ध जंग छेडेंगे ।
विनाशकारी प्लास्टिक को अब ,
नेस्तनाबूत करके ही हम दम लेंगे ।

उन्मुक्त गगन मे जीने की ,
सही राह अब दिखाएंगे ;
अपने स्वच्छ भारत की मिट्टी को ,
सभी को विचरण करने योग्य ;
बेखौफ हो शुद्ध हवा मे सांस ले सके,
ऐसा प्लास्टिक मुक्त भारत बनाएंगे ।

प्रण लें आज से ही हम यह,
कगज और कपड़े का थैली अपनाएंगे;
दुनिया की गंदगी से आजाद करवाकर ,
प्लास्टिक मुक्त शुद्ध देश बसाएंगे ।

नर्क से भी बदतर हो रहे जीवन को ,
स्वर्ग जैसा सुन्दर बनाएंगे ;
अपनी भावी युवा पीढ़ी को ,
प्लास्टिक रूपी लगी लत से छुटकारा दिलाकर,
पंगु होने से हम- सभी को बचाएंगे।

हाथ से हाथ कंधे से कंधा मिलाकर ,
नव भारत का निर्माण कर ;
प्लास्टिक को दूर कर हटाएंगे ।
प्रदूषण मुक्त हो भारत हमारा ,
ऐसा सुन्दर दुनिया बसाएंगे ।

स्वच्छ वातावरण से सुगंधित हो,
जन जीवन प्रफुल्लित हो ,
घर घर मे लोग आनंदित हो ;
प्लास्टिक की बदसूरत दुनिया से हटकर
सुन्दर सा बगिया खिलाएंगे ।

अपनी भारतमाता की धरती को ,
प्लास्टिक की बीमारी से बचाएंगे ।
अपने भारतवर्ष को हम सब ,
अब प्लास्टिक मुक्त करवाएंगे ।
-०-
सुरेश शर्मा
कामरूप (आसाम)
-०-


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साहित्य प्रेमी (लघुकथा) - अर्विना


साहित्य प्रेमी
(लघुकथा)
ओह हो ! मां आप यहां प्रेमचन्द कि किताबों में ही अटकी पड़ी है ।
"घर नहीं चलना है।" लाईब्रेरी बंद होने का समय हो गया ।
अरे बेटा ! पढ़ने में इतने मशगूल हो गई कि समय का कुछ पता ही नहीं चला ।
पल्लवी झट से उठ खड़ी हुई ।
चलो बेटा जरा बाजार से सब्जी भी खरिदवा देना ।
स्कूटी पर बैठो मां आगे तिराहे पर से ले लेना सब्जी , जल्दी से घर पहुंच कर एसाइनमेंट भी तैयार करना है ।
मां एक बात बताओ आपको आज के समय में
प्रेम चंद की कहानी के ये अजीबो-गरीब केरेक्टर कैसे पसंद आ जाते ?
ओ माई गाड ! प्रेमचंद जी ने कैसे कैसे कैरेक्टर लिखे हैं । गोबर .... हा हा हा और ..और झुनियां , और बेचारी निर्मला लाचारी भरा जीवन बिता देती ।
तुम नहीं समझोगी बेटा माटी की सुगन्ध आती है जब हम इन किताबों को पढ़ते हैं आंखों में एक चित्र सा खिंच जाता है । मां क्या हे ना आप भी ना थोड़ा प्रेक्टिकल होकर सोचो ?
अब पूस की रात के हीरो को ठिठुरने की क्या जरूरत थी, कहीं से लकड़ियां ले आता और घास फूस की एक झुपड़िया ही बना लेता ।
कुछ क्रियेटिव सोचता ही नहीं था उनका हीरो ।
और हां मां गबन में तो कमाल ही कर दिया हीरो ने बीवी से मना भी तो कर सकता चुड़ियों के लिए... लेकिन नहीं किया ... आखिर में फस गया बेचारा ।
माँ कभी टालस्टाय को भी पढ़ कर देखो ?
जिस देश की धरती पर पैदा नहीं हुई उस की पृष्ठभूमि से जुड़ाव महसूस नहीं होता पढ़ कर भी पराया पन सा लगता है ।
हमारे हिंदी साहित्य को पढ़ कर लगता हैं जैसे उसी युग को जी लिया हिंदी में मिठास है शब्दों का भंडार है। आज हिंदी दिवस के दिन सेल्यूट करती हूं सभी हिंदी साहित्य सेवियों को।
वाह मां ! आपके हिंदी साहित्य प्रेम को नमन है।
-०-
अर्विना
प्रयागराज (उत्तरप्रदेश)
-०-

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