लोकतंत्र का मतलब है-लोक के लिए ,नीम के शुष्क तने की भांति तने हुए तंत्र की तांत्रिक व्यवस्था.इस की सबसे बड़ी और अनोखी विशेषता यह है कि इसमें आज तक यह तय नहीं हो पाया कि तंत्र पर लोक हावी है या लोक पर तंत्र.
यह एक दूसरे पर प्रेम दर्शाने-जतलाने-लुटाने के साथ साथ,एक दूसरे पर सवारी गांठते रहने का कोई भी मौक़ा नहीं चूकते.समय समय पर एक दूसरे को चमकाने की कोशिश करते रहने से लोकतंत्र का सौंदर्य ,फिल्मी नायिकाओं की रेशमी त्वचा की तरह निखरता है, इसमें दो मत नहीं.
इस लोकतंत्र को आपने ,देखा है ,जाना है ,समझा है ,और भुगता भी है कि छद्म लोकतंत्र ,इट मीन्स स्यूडो डेमोक्रेसी में,सदैव दो पक्ष होते हैं. एक सत्ता पक्ष यानि सुखी पक्ष ,दूसरा विपक्ष अर्थात दुखी पक्ष.यों दोनों का आचरण एक सा होता है किन्तु अपनी स्थिति अनुसार भंगिमायें बदलता रहता है.ठीक इसी तरह ,असली या वास्तविक लोकतंत्र में भी दो ही पक्ष होते हैं.एक वह-जो बोलता नहीं है,दूसरा वह-जो सुनता नहीं है.
लोकतंत्र कैसा भी क्यों न हो,उससे आच्छादित चरनोई भूमि में ऊंचे लेबल के छुटभैए मगर महान जनप्रतिनिधि सोद्देश्य आते-जाते बने रहते हैं .और ये जहां -जहां जाते हैं वहां के स्थानीय नेताओं को इन्हें हर हालत में ढोना पड़ता है.
इनके गले का बोझ बढ़ाने के लिए ढेर सारी फूल मालाएं और मीडिया को देखने दिखाने को ,बोर होने की हद तक झेलने लायक श्रोताओं की सम्मानजनक भीड़ बहुत ज़रूरी होती है.
पक्ष और विपक्ष दोनों में स्थानीय स्तर पर ,जिन सज्जनों को फूलमालाएं लाने का महती दायित्व सौंपा जाता है वह अपना घर श्मशान के ठीक सामने या उसके बगल में बनाते हैं .इससे उनका बोझ हल्का हो जाता है ,और मालाओं की कमी भी नहीं रहती .दिन भर आने वाली फूलमालाओं के गुलाल को हवा में उड़ा कर ,पानी में भिगोने मात्र से वह नालायक नेताओं के लायक हो जाती हैं. नेता कितने भी आएं, किसी भी दल के आएं, आपसी तालमेल और सही जगह पर सही आदमी के होने से फूल मालाओं की सप्लाई में कभी कोई बाधा नहीं आती.
और जिन्हें भीड़ जुटाने की जिम्मेदारी दी जाती है,उनके संयोजकत्व में गठित ‘भीड़ जुटाओ समिति’ में दल से लाभान्वित,बिगड़े हुए धन्नासेठ भी होते हैं .इन्हें समय समय पर पब्लिसिटी की महामारी छूती रहती है. यह पुराने भामाशाह की स्टाइल में अपनी थैली खोलते हैं ,दिखाते हैं और उसमें से चंद चांदी के टुकड़े पालतू दल-संयोजक के सामने फेंक देते हैं.हाथ का मैल हाथ में आते ही संयोजक साहब चुटकी बजाते, बाजगिरी दिखाते दिहाड़ी कामगारों को सभा या रैली में जुटाकर अपनी कर्मठता का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं.इससे राजनीति में नैतिकता के गिरते स्तर के अनुपात में ,उनके नेताओं की ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है .
लोकतंत्र में सामने वाले को ग़ैरजरूरी सलाह देने का ,आलोचना की आड़ में निंदा करने का ,दूरबीन जैसा चश्मा लगा कर दूसरों के घरों में झांकने का मौलिक अधिकार होता है .कुछ सभ्यता की सीमा लांघकर दूसरों के बेडरुम व बाथरूम में भी झांकने लगते हैं.तब पता नहीं पड़ता कि वह आदमी हैं या लोक सेवक.
लोकतंत्र में ,लोक की लाज को उघाड़ने के लिए ,पहले उसकी इकलौती लंगोटी की धज्जियां उड़ाई जाती हैं .फिर इन्हीं धज्जियों को एकत्र कर ,उनसे उसकी लाज ढकने की निर्लज्ज कोशिश की जाती है.ऐसा होते ही चुनाव की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक सम्पन्न मान लिया जाता है.और परिणाम स्वतः घोषित हो जाता है.
लोकतंत्र में एक एक वोट की क़ीमत होती है .यह बात अलग है कि अलग-अलग स्तरों पर उसकी क़ीमत अलग-अलग होती है .इसके मूल्य निर्धारण की पद्धति राष्ट्रपति चुनाव की तरह किसी की समझ में नहीं आती. लोकसभा, विधानसभा, नगर निगम, नगर पालिका अध्यक्ष और वार्ड मेंबर के उलटे प्रतीत होने वाले क्रम में भी इनकी क़ीमत सीधे बढ़ती जाती है .इससे निचले स्तर के चुनाव भी राज्यसभा सदस्य या राष्ट्रपति चुनाव जैसी गरिमा पा लेतेे हैं.
लोकतंत्र पढ़े लिखे समझदार लोगों के मुल्क की पद्धति है.यह जानते हुए भी हमने इसे अपनाया क्योंकि हमें मतदाताओं को पकड़ने और अपने पाले में खींचने का हुनर आता है.इसमें अशिक्षित एवं गंवार ही अधिक उपयोगी होते हैं.
यों लोकतंत्र में इसके वाशिंदे भी कम खेले खाए नहीं होते.इनमें से बहुसंख्यक को जब जहां जो मिलता है उसे ले ही लेते हैं,फिर देने वाले को ‘रिटर्न गिफ्ट’ देने के नाम पर अंगूठा दिखा देते हैं.
जो जैसे तैसे जीत जाता है वह मर्द से कम नहीं होता ,भले ही तीसरे जेंडर का क्यों न हो.लोकतंत्र में समय समय पर बहुत से मर्द सामने आते हैं. सफलता जब उनके चरण चूमती है और वह मंत्री बन जाते हैं ,तब मर्द नहीं रहते क्योंकि तब वह अपने मुखिया के सामने स्त्रियोचित अंदाज़ में हर तरह से ,और हर तरफ़ से झुकने को तैयार रहते हैं. इसी से लोकतंत्र की महत्ता प्रतिपादित होती है.
लोकतंत्र में ब्राह्मणों के, दलितों के, अल्पसंख्यकों के, वैश्यों आदि के व्याधि सम्मेलन भी होते रहते हैं .लेकिन फख़्र की बात है,इन हालातों में भी वेश्याओं ने ख़ुद को नेताओं से दूर रखा हुआ है.
वैश्य पहले भी व्यापार करते थे .अब राजनीतिक दल विशेष के सहयोग और संरक्षण से राजनीति में अब भी व्यापार करते हैं.यह जब भी पीटते हैं,पैसा पीटते हैं, फिर चाहे किसी भी प्रदेश के क्यों न हों.इस समय हिन्दी बेल्ट के बनियों के तो कहने ही क्या?हमें तो अब ज्ञात हुआ कि गांधी जी भी पक्के बनिया थे.
लोकतंत्र को परम विद्वानों ने भीड़तंत्र भी कहा है.क्योंकि भीड़ का बाहुल्य ही राजा का चयन करता है.इस संदर्भ में डॉ.इक़बाल का एक शेर याद आता है.
जम्हूरित इक तर्जे हुकूमत है कि जिसमें
बंदों को गिना जाता है ,तौला नहीं जाता.
लोकतंत्र में जो लोक और तंत्र को समझ ले वो समझदार ,जो न समझे वो अनाड़ी है.जय हिन्द.जय भारत .
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पता:
डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
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