चिता-विशेषज्ञ
(लघुकथा)
मेरे मित्र के पिताजी का देहावसान हो गया था। अंतिम यात्रा के साथ मोक्ष धाम पहुंचे।उस समय जुलाई का महीना था।बरसात का भरोसा नहीं।आ भी जाय और नहीं भी। इस कारण टीन शेड के नीचे अंतिम संस्कार शुरू हुआ। मुखाग्नि दी गई। उसके बाद सभी अपने अपने स्थान पर बैठ गये।
यही कोई दस मिनट बाद दो युवक मोटरसाइकिल पर वहां आए। दोनों ने चिता का मुआयना किया और मृतक के निकट संबंधी के बारे में पूछताछ की।
उनमें से एक मेरे मित्र से कहने लगा-" साहब बरसात का मौसम है। वो चिता के सिर की ओर वाली लकड़ी सही नहीं है। कभी भी लाश बिखर सकती है।"
"तो....?"मेरे मित्र ने घबराते हुए कहा।
" हम इसे सही कर देंगे। आप बस हमारा मेहनताना दे दें।"
मेरे मित्र ने सौ सौ के दो नोट निकाल कर उन चिता-विशेषज्ञों को दिए।
दोनों ने एक बार फिर मुआयना किया और हाथों में बांस लिए आसपास की लकड़ियों को इधर उधर किया। फिर दोनों मोटरसाइकिल स्टार्ट कर तेज स्पीड में वहां से चम्पत हो गये।
देखने वाले तक खामोश थे।ऐसे अवसर पर भला क्या किया जा सकता है? कुछ इंसानों के ऐसे नैतिक पतन को देख कर मेरी आंखें शर्म से झुक गई जिन्होंने अंतिम समय में भी चिता तक को नहीं बख्शा।
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