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Thursday, 27 February 2020

आशियाना नहीं होता (कविता) - शालिनी जैन




आशियाना नहीं होता
(कविता)
जिन दरख्तों पर
हरियाली का ठिकाना नहीं होता
जरुरी नहीं 
वो किसी का आशियाना नहीं होता
सजती नहीं महफिले
सिर्फ महलो में ही
आरजूओं को पाने का
कोई पैमाना नहीं होता
ख्वाइशे तोड़ती है
दम रोज वहाँ
जहाँ अभिव्यक्ति का 
ताना बाना नहीं होता
दम तोड़ते रिश्तो को
दे रहे नाम बदलते परिवेश का
अपनी शिकस्तो को ना मान
दे रहे उलहाना उलझे रिश्तो का
जिन दरख्तों पर 
हरियाली का ठिकाना नहीं होता
जरुरी नहीं 
वो किसी का आशियाना नहीं होता
-०-
शालिनी जैन 
गाजियाबाद (उत्तरप्रदेश)
-०-

***
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हम हो स्वतंत्र (कविता) - डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'

हम हो स्वतंत्र
(कविता)
हम हो स्वतंत्र,
हम रहें समृद्ध, संपन्न ।
लिया था जिन्होंने,
अपने हृदय में प्रण।
सीख लेकर संस्कारों की,
त्याग एवं बलिदानों की,
माँ, के निर्देशों को,
गुरुओं के उपदेशों को,
लेकर ताना,बाजी और येसा जैसे मित्रों को ।
चल पड़ा था,
एक वीर ऐसा।
शेर दहाड़ा था,
शत्रुओं पर जैसा।
फूलों की माला और
गीतों की गुंज,
नहीं है यह सच्चा अभिवादन।
विचारों,तत्वों एवं सत्कर्मों का उनके,
गर करे नित , हम सब पालन।
आज ही नहीं,
कल भी रहेंगा।
स्वराज पर हमारा ,
नित ध्वज फहरेगा।
कृषि, जल एवं शिक्षा के क्षेत्र में ,
किया था जिन्होंने अतुलनीय-सा काम ।
जन्म लिया था आज के दिन जिन्होंने,
छत्रपति शिवाजी है,
जिनका नाम ।
करता हूँ, करता रहूँगा मैं उनके,
विचारों एवं तत्वों को,
नित,निरंतर प्रणाम।
नित,निरंतर प्रणाम।
नित,निरंतर प्रणाम।-०-
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
-०-

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यही बसंत है (कविता) - डॉ दलजीत कौर


यही बसंत है
(कविता) 
मैं
एक ठूँठ -सी
जीवन -जंगल में
महसूसती हूँ
नितांत नकारात्मकता |
देखती हूँ
सूखे पेड़
सूखी टहनियाँ
बिखरे फूल
बिछड़े पत्ते
वीरान वन मन
पतझड़ ही पतझड़ |
उड़ता है एक दिन
कोई सुनहरा पंछी
रंग -बिरंगे
तोते ,तितलियाँ
कबूतर -जोड़ा
चिड़िया ,कोयल
बैठती है गिलहरी
मेरे पास आ कर
और उमड़ता है
मन में विश्वास
जीवंतता का |
अगली सुबह
पाती हूँ मैं
दिल की जड़ो में
फूट आई है
कोई कोंपल
यही बसंत है
जीवन बसंत |

-०-
संपर्क 
डॉ दलजीत कौर 
चंडीगढ़


-०-

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वो सितमगर (गजल) - विज्ञान व्रत

वो सितमगर
(गजल)
वो सितमगर है तो है 
अब मेरा सर है तो है 

आप भी हैं मैं भी हूँ
अब जो बेहतर है तो है 

जो हमारे दिल में था 
अब ज़बाँ पर है तो है 

दुश्मनों की राह में
है मेरा घर है तो है 

एक सच है मौत भी 
वो सिकन्दर है तो है 

पूजता हूँ बस उसे 
अब वो पत्थर है तो है 
-०-
पता:
विज्ञान व्रत
नोएडा (उत्तर प्रदेश)


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मज़बूर पिताज़ी (ग़ज़ल) - डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'


मज़बूर पिताज़ी
(ग़ज़ल)
अपनों से जब दूर पिताजी होते हैँ
बेबस और मज़बूरपिताज़ी होते हैँ

बेटे साथ खड़े होते हैँ जब उनके
हिम्मत से भरपूर पिताज़ी होते हैँ

दादाजी से मिलनें जब भी जाते हैँ
थक कर के तब चूर पिताज़ी होते हैँ

अम्मा जबभी कोई फरमाईश करतीं हैँ
तब कितने मज़बूरपिताज़ी होते हैँ

बेटे बहुएँ मिलकर सेवा करते हैँ
ऐसे भी मशहूर पिताज़ी होते हैँ

बच्चों के संग मेंं बच्चे बन जाते हैँ
खुशियों से भरपूर पिताज़ी होते हैँ

पूरा कुनबा एक जगह जब होता है
रौशन सा इक नूर पीताज़ी होते हैँ

हर ग़लती पर सबको टोका करते हैँ
आदत से मज़बूर पिता ज़ी होते हैँ

बहन बेटियों के लिऐ है प्यार बहुत
पर पाकिट से मज़बूर पिता ज़ी होते हैँ

बच्चे जब उनकी बात नहीँ सुनते
हिटलर से भी क्रूर पिता ज़ी होते हैँ

उदास देखते हैँ किसीको जब अपने घर मेंं
तब ग़म से रन्जूर पिता ज़ी होते हैँ

जब कोई अच्छी कविता लिख लेते हैँ
कबिरा और कभी सूर पिताज़ी होते हैँ

सारा दिन मेहनत करते हैँ दफ़्तर मेंं
कभी अफ़सर कभी मज़दूर पिताज़ी होते हैँ
-०-
पता:
डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'
ग्वालियर (मध्यप्रदेश)
-०-



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