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Thursday, 27 February 2020

मज़बूर पिताज़ी (ग़ज़ल) - डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'


मज़बूर पिताज़ी
(ग़ज़ल)
अपनों से जब दूर पिताजी होते हैँ
बेबस और मज़बूरपिताज़ी होते हैँ

बेटे साथ खड़े होते हैँ जब उनके
हिम्मत से भरपूर पिताज़ी होते हैँ

दादाजी से मिलनें जब भी जाते हैँ
थक कर के तब चूर पिताज़ी होते हैँ

अम्मा जबभी कोई फरमाईश करतीं हैँ
तब कितने मज़बूरपिताज़ी होते हैँ

बेटे बहुएँ मिलकर सेवा करते हैँ
ऐसे भी मशहूर पिताज़ी होते हैँ

बच्चों के संग मेंं बच्चे बन जाते हैँ
खुशियों से भरपूर पिताज़ी होते हैँ

पूरा कुनबा एक जगह जब होता है
रौशन सा इक नूर पीताज़ी होते हैँ

हर ग़लती पर सबको टोका करते हैँ
आदत से मज़बूर पिता ज़ी होते हैँ

बहन बेटियों के लिऐ है प्यार बहुत
पर पाकिट से मज़बूर पिता ज़ी होते हैँ

बच्चे जब उनकी बात नहीँ सुनते
हिटलर से भी क्रूर पिता ज़ी होते हैँ

उदास देखते हैँ किसीको जब अपने घर मेंं
तब ग़म से रन्जूर पिता ज़ी होते हैँ

जब कोई अच्छी कविता लिख लेते हैँ
कबिरा और कभी सूर पिताज़ी होते हैँ

सारा दिन मेहनत करते हैँ दफ़्तर मेंं
कभी अफ़सर कभी मज़दूर पिताज़ी होते हैँ
-०-
पता:
डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'
ग्वालियर (मध्यप्रदेश)
-०-



***
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