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Sunday, 26 July 2020

उजियारे को तरस रहा हूँ (गीत) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे



उजियारे को तरस रहा हूँ
(गीत)
उजियारे को तरस रहा हूं,अँधियारे हरसाते हैं !
अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!

अपने सब अब दूर हो रहे,
हर इक पथ पर भटक रहा
कोई भी अब नहीं है यहां,
स्वारथ में जन अटक रहा

सच है बहरा,छल-फरेब है,झूठे बढ़ते जाते हैं !
अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!

नकली खुशियां,नकली मातम,
हर कोई सौदागर है
गुणा-भाग के समीकरण हैं,
झीनाझपटी घर-घर है

जीवन तो अभिशाप बन गया,
मायूसी से नाते हैं !
अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!

रंगत उड़ी-उड़ी मौसम की,
अवसादों ने घेरा है
हम की जगह आज 'मैं ' 'मैं ' है,
ये तेरा वो मेरा है

फूलों ने सब खुशबू खोई,पतझड़ घिर-घिर आते हैं !
अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!
-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
-०-


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