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Friday 31 July 2020

हां मैं खुश हूं...... (आलेख) - डॉ. रेनू श्रीवास्तव

हाँ मैं खुश हूँ......
(आलेख)
               एक वायरस ने सारी दुनिया में लॉक डाउन   कर दिया है। बाजार बंद ,स्कूल-कॉलेज बंद ,ऑफिस बंद, मॉल बंद, घर से बाहर निकलने पर पाबंदी है। हर किसी की जुबां पर है कि इस वायरस  ने सब कुछ बदल दिया है। ज़िंदगी रुक सी गई है, थम सी गई है ।चारों तरफ दहशत का माहौल है। आज किसी की एक छींक  आसपास के लोगों के चेहरे का रंग बदल देती है । ये बात अलग है कि इंसान ने  रंग बदलने में गिरगिट को भी पीछे छोड़ दिया है। इंसान इंसान से दूरी बनाने के लिए मजबूर हो चुका है ।सामाजिक दूरियां बनाने  की बात की जा रही है ।वेसे तो इस भागती दौड़ती जिंदगी में इंसान के पास पहले भी कहाँ  एक दूसरे के लिए वक्त था। पहले भी इंसान सिर्फ अपने में खोया हुआ था। बस एक रेस में दौड़ रहा था, उसे पूरी करने के लिए। हां ये जरूर है इस वायरस ने इस रेस में ब्रेक लगा दिये हैं, दौड़ती - भागती ज़िंदगी को रोक दिया है- लॉक डाउन कर दिया है।पर मेरी जिंदगी तो आज भी वैसे ही चल रही है ।मेरी जिंदगी में आज भी कोई लॉक डाउन नहीं है ।कोरोना वायरस ने मेरी जिंदगी को नहीं बदला है । आज भी मेरी सुबह -"अरे सुनती हो,  एक कप चाय तो देना , मम्मी नाश्ता तैयार है और कितना समय लगेगा"  से शुरू होती है।  मेरे लिए अब भी घड़ी की सुईओं की रफ्तार वही है।  आज सबके लिए समय बिताना मुश्किल है पर मेरा समय तो नहीं थमा वो कब कैसे बीत जाता है ,पता ही नहीं चलता है। पतिदेव बच्चों की फरमाइश को पूरा करते हुये  मैं आज भी कोरोना वायरस की वजह से हुई लॉक डाउन का मतलब खोज रही हूं और सोच रही हूं कि सच में सब कुछ लॉक डाउन है। फिर मुझे याद आता है कि मेरी सेवाएं तो आपातकालीन सेवाओं की श्रेणी में आती हैं जो कि 24 घंटे बिना रुके हर परिस्थिति में जारी रहती है।मैं भी सब की तरह भगवान से प्रार्थना कर रही हूं कि यह वायरस जल्दी से दुनिया को छोड़ कर चला जाए ताकि मेरी कामवाली के दर्शन मुझे हो सके।  लॉक डाउन शुरू होते ही मेरे पतिदेव ने बड़े प्यार से मुझे कहा-" देखो तुमको हमेशा मुझसे शिकायत होती थी कि मैं तुम्हारे साथ समय नहीं बिताता हूं ,अब यह 21 दिन का पूरा समय तुम्हारा है।" यह सुनकर मैं खुश हो गई और भगवान को धन्यवाद दिया कि भगवान ने मेरी सुन ली। पर उसी समय कहीं से मेरे कानों में आवाज आई कि " पगली ,ये सब छलावा है इस छलावे में मत आना ,तुमको तो बस जैसे  अब तक काम करती आ रही हो, बस वैसे  ही काम करना है"। मैंने इधर उधर देखा पर कोई नहीं था ,यह मेरे अंदर की आवाज थी ,इसी के साथ मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई और अपने को धिक्कारते हुये मैंने कहा "मैं भी क्या सोचने लगती हूं सच ही तो कह रहे हैं कि जब पूरी तरह से लॉक डाउन है तो इनका सारा समय अब मेरा ही तो है।"पर जैसे-जैसे समय बीतने लगा तो समझ आया कि मेरे अंदर की आवाज सही थी। लॉक डाउन का समय मेरा नहीं था, वह समय था मेरी सौतन का ,हां मेरी सौतन मोबाइल का । मेरे लिए तो  आज भी  वही स्थिति है जो लॉक डाउन से पहले थी।  मेरे लिए कुछ नहीं बदला है। पर फिर भी मैं खुश हूं , मैं खुश हूं चाय ,नाश्ता और परिवार के सदस्यों की फरमाइशों  को पूरा करके। मैं खुश हूं कि मेरा परिवार मेरे आंखों के सामने है।  मैं खुश हूं यह देखकर कि मेरे परिवार के हर सदस्य के चेहरे पर आज भी वो ही मुस्कुराहट है  जो पहले थी। मैं खुश हूं लॉक डाउन के  दौरान पति द्वारा कभी-कभी कहे गए इन शब्दों से "क्या दिन भर रसोई में काम करती रहती हो , दो घड़ी आराम भी कर लिया करो"।  मैं खुश हूं जब मेरे बच्चे मेरे गले में बाहें डालकर कहते हैं कि "मां तुम कितनी अच्छी हो "। उसी समय सारी थकान दूर हो जाती है,   जब वो अंगुली चाटते हुये कहते हैं कि " मां सब्ज़ी बहुत अच्छी बनी है ", मैं मुस्कुरा देती हूं और दुगुने उत्साह के साथ अपनी आपातकालीन सेवा में एक योद्धा की तरह लग जाती हूँ । हां मैं खुश हूं....
-०-
डॉ. रेनू श्रीवास्तव
कोटा (राजस्थान)

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आश्चर्य (लघुकथा) - सौरभ कुमार ठाकुर

आश्चर्य
(लघुकथा)
आज सुबह जितेश का फ़ोन आया; हिमांशु ने फ़ोन रिसीव किया बोला: हेल्लो, क्या हालचाल जितेश, कैसे हो ?
जितेश बोला; क्या भाई तबियत खराब है ?
"भाई जितेश तुम अब बार-बार बिमार कैसे हो जाते हो ?" हिमांशु ने पूछा !
"भाई याद है मुझे आज भी वह दिन जब मै बच्चा था,और गाँव में रहता था । कोई डर नही,कोई गम नही । जो मन में आया खाया,खेला ! कभी बिमार नही होता था । पर आज शहर में रहता हूँ,हर पंद्रह दिन पर बिमार हो जाता हूँ । आज भी वही खाना खाता हूँ,जो गाँव में खाता था । गाँव में कुएँ और चापाकल का पानी पीता था आज मिनिरल वॉटर पीता हूँ ।फिर भी मैं बिमार हो जाता हूँ ।"एक बात समझ नही आता गाँव के मुकाबले शहर में सेहत का ध्यान अच्छे से रखता हूँ, फिर भी यार हर पंद्रह-बीस दिन पर बिमार हो जाता हूँ ।जितेश बोला ।
"हिमांशु उसकी बातों को सुनकर आश्चर्य में पड़ा रह गया...!"
और अंत में कुछ सोचकर बोला; "हाँ यार बात तो सही है ।"
-०-
सौरभ कुमार ठाकुर
(बालकवि एवं लेखक)
मुजफ्फरपुर (बिहार)
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शिक्षा, शिक्षक और शैक्षिक परिवेश (आलेख) - सूर्य प्रताप राठौर

शिक्षा, शिक्षक और शैक्षिक परिवेश
(आलेख)
            शिक्षा एक प्रगतिशील प्रक्रिया है और शिक्षा प्राप्ति के इस चक्रीय भ्रमण में प्रेरक तत्व शिक्षक ही होता है। क्योंकि ज्ञानार्जन हो या मूल्यांकन शिक्षक ही इस चक्रीय परिभ्रमण का केंद्र बिंदु होता है। जहां अधिगम में लगभग संपूर्ण क्रियाकलाप का केंद्र बिंदु स्वयं शिक्षक होता है जो ना सिर्फ आवश्यकता है बल्कि शिक्षा प्राप्ति की मूलभूत संरचना का मुख्य आधार भी है, वहीं शिक्षक ही बालक के कोमल हृदय पटल पर तमाम तरह की अपनी क्रियाकलापों के द्वारा वो धूमिल रेखाएं  भी खींचता है जिससे बालक आगे चलकर उन्हीं रेखाओं की सहायता से अपने जीवन में विभिन्न प्रकार की आशाओं, इच्छाओं आकांक्षाओं के अनुरूप या यूं कहें कि अपने सर्वांगीण विकास रूपी पौधे का बीजारोपण भी करता है, जिसमें शिक्षक एक माली की भांति सदैव उसमें अपने अनुभव रूपी पोषण द्वारा उसे एक मजबूत, छायादार व फलदार वृक्ष बनाने में निरंतर अपना सार्थक योगदान भी देता है। शिक्षक द्वारा यही सार्थक प्रयास आगे चलकर बालक के ह्रदय में न सिर्फ परिवार बल्कि देश व समाज के प्रति प्रेम व त्याग का दीपक भी जलाता  है जिसे शिक्षक हमेशा प्रज्वलित रहने व उसे मोह,शोक मद व घृणा रूपी तूफानों से बचाता भी है ।शिक्षक आज भी अपने उसी कर्तव्य परायणता  का निर्वहन पूरी ईमानदारी वफादारी से करता आ रहा है और शायद आगे भी वह इसी प्रकार बिना किसी लोभ  व लालसा के करता रहेगा किंतु आज के इस दौर में शिक्षा व शिक्षक दोनों के चेहरों को आधुनिकता ने बदल कर रख दिया है आज न शिक्षा का ही रूप स्पष्ट है ना ही शिक्षक का । आज शिक्षा न  सिर्फ डिग्रियों के संग्रहण का एक मात्र साधन बन चुका है बल्कि समाज में अपने वर्चस्व व प्रतिष्ठा रूपी ध्वज को फहराने का उत्तम वह सहज संसाधन भी  बन चुका है । 
            शिक्षक अब न सिर्फ अपने कर्तव्य पथ बल्कि अपने व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में खुद को साबित करने के लिए मजबूर  भी हो चुका है। उन्हें हमेशा अपनी नौकरी के प्रति असुरक्षा के भाव ने मजबूर होकर अपने इस प्रतिष्ठित पहचान को लगातार बनाए रखने के लिए तनाव ग्रस्त जीवन जीने पर मजबूर कर दिया  है क्योंकि जिस तरह से शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक का स्थान अब इन कंप्यूटर ,मोबाइल और लैपटॉप  जैसे अत्याधुनिक उपकरणों ने ले लिया है उसे शायद ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले समय में शायद विद्यालय जैसे परंपरागत संस्थानों के केंद्र बिंदु माने जाने वाले शिक्षक का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा और इसकी शुरुआत व इसकी गहरी पैठ की झलकियां अब कोरोना काल में शायद दिखने भी लगी हैं जहां शिक्षक तो ऑनलाइन अपनी सेवाएं देकर छात्र-छात्राओं के भविष्य को उज्जवल बनाने की भरसक कोशिश में लगे हैं किंतु अब बहुत सारे ऐसे संगठन भी अब ऑनलाइन पाठ्यक्रम जिसमें खासकर शिक्षकों के रिकॉर्डेड व्याख्यान को छात्र छात्राओं को उपलब्ध कराने के व्यवसाय में लग चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि निश्चय ही इस तरह के नए प्रयासों से सभी बच्चों को एक समान सीखने व आगे बढ़ने में आसानी होगी किंतु शिक्षकों के नजरिए से देखें तो यह एकतरफा निरर्थक प्रयास ही माना जाएगा क्योंकि अगर सिर्फ घर बैठे चलचित्रों के माध्यम से ही बच्चों का सर्वांगीण विकास संभव होता तो शायद विद्यालय जैसे परंपरागत व प्रतिष्ठित संस्थान बहुत पहले ही विलुप्त हो चुका होता।  
            यहां यह बात समझना अति आवश्यक है कि विद्यालय न  सिर्फ शिक्षा प्रदान करने का भवन मात्र है बल्कि यह बच्चों के मानसिक पटल पर शिष्टाचार ,अनुशासन ,संयम विवेक ,धैर्य मानवता व सहनशीलता जैसे आवश्यक गुणों को अंकित करने का एक परंपरागत व अग्रणी संस्थान भी है ।शिक्षा के रूप में शिक्षक न सिर्फ उन्हें पाठ्यक्रमागत  विषयों का ज्ञान कराता है बल्कि उनमें बौद्धिक, शारीरिक व सामाजिक विकास हेतु विभिन्न प्रकार की गतिविधियों व और क्रियाकलापों से परिचित भी कराता है जो आगे चलकर उनमें सामाजिक प्रतिबद्धता, देश प्रेम व कर्तव्य परायणता की भावना को भी जागृत करता है।
            इस वैश्विक महामारी ने न सिर्फ हमें शारीरिक ,मानसिक व सामाजिक चोट पहुंचाई है बल्कि हमारे सदियों से चली आ रही कुछ संस्कृतियों व  परंपराओं का खात्मा भी करना शुरू कर दिया है। संभव है कि यह मेरी कल्पना मात्र हो किंतु अगर ऐसा ही रहा तो निश्चित तौर पर शिक्षा ,शिक्षक व शैक्षिक परिवेश के मायने भी बदल जाएंगे क्योंकि इस महामारी के दौर में न सिर्फ शिक्षा और शिक्षक बल्कि शैक्षिक परिवेश भी बदलता हुआ नजर आ रहा है बीते कुछ महीनों में जिस तरह के वातावरण में हम और हमारे भावी कर्णधार जी रहे हैं उसमें अब ना तो विद्यालय जाने का उत्साह ही है ना ही दोस्तों से मिलने की चाह। ना ही  अब अपने द्वारा किए गए घरेलू आविष्कारों को शिक्षकों के साथ साझा करने की चाह बची है, ना ही उनसे आत्मीयता के साथ विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा करने की इच्छा। छात्र-छात्राओं की दैनिक क्रियाओं की शुरुआत से उनमें शिक्षा व शिक्षक के द्वारा ग्रहण किए गए संपूर्ण अधिगम की स्पष्ट झलक दिखती है ।किंतु अब यह सब स्वप्न मात्र ही प्रतीत होता है अधिगम की प्रक्रिया में जिस माहौल की आवश्यकता होती है अब अभिभावकों के लिए भी मुश्किल है उस परिवेश को नौनिहालों को उपलब्ध करा पाना। इस वैश्विक महामारी ने न सिर्फ  शिक्षक, शिक्षा व शैक्षिक परिवेश इन महत्वपूर्ण अंगों को प्रभावित किया है बल्कि उन को ध्वस्त करने की ओर कदम भी  बढ़ा दिया है ।
            अगर इसे मैं मात्र कल्पना समझूं  तो शायद वर्तमान  परिस्थितियों में सुधार के पश्चात  शिक्षा, शिक्षक व शैक्षिक परिवेश के बदलते मायने को हम न सिर्फ पूरी सजगता के साथ समझेंगे बल्कि उसमें सुधार हेतु कुछ आवश्यक व ठोस कदम की पहल भी कर पाएंगे जिससे कि इसमें सूक्ष्म बदलाव के बाद भी इनकी मौलिक संरचना में कोई परिवर्तन ना हो।
-०-
सूर्य प्रताप राठौर
सांगली (महाराष्ट्र)

-०-



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संबंध (कविता) - मोहम्मद मुमताज़ हसन


संबंध
(कविता)

रिश्तों में-
आ जाता है जब
ख़ालीपन,

खड़ी होती हैं अकारण ही
सन्देह की दीवारें,

आदमी- उलझ जाता है
किसी भरमजाल में,

कमज़ोर होने लगती है
विश्वास की डोर-

ऐसे में अक्सर ही टूट जाते हैं
सम्बंध - आपस के
-0-
पता:
मोहम्मद मुमताज़ हसन
गया (बिहार)

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