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Wednesday 21 October 2020

☆☆बेटियाँ☆☆ (कविता) - अनवर हुसैन

 

☆☆बेटियाँ☆☆  
(कविता)
बेटियां  गज़ल  है ये बेटियां  नज़्म  हैं
सबके जीवन में  ये  गूंजती सरगम हैं

गुलशन की  कली  है वो
पर नाखुशी में पली है वो
जो दर्द  में  लब  न खोले
वक्ती ढांचे में ढली  है वो
जो दर्द  की  दवा है
गमों में जो मरहम है
बेटियां  गज़ल  है ये बेटियां  नज़्म  हैं
सबके जीवन में  ये  गूंजती सरगम हैं

हरदम ये साए - सी  हमारी
सबको क्यू है इनसे दुश्वारी
जो खुशी  से भरा  खजाना
जिनसे चलती दुनिया सारी
ये  नूर  है  ज़मीं  की
आसमां  की नज़्म है
बेटियां  गज़ल  है ये बेटियां  नज़्म  हैं
सबके जीवन में  ये  गूंजती सरगम हैं

मोहब्बती  की  बारिशों से
बनाया  गया है  जिस को
माटी की मूरत है वो जिस
में खुदा ने उतारा खुद को
ये जन्नत की चाबियां है
आख़िरत का ये जश्न हैं
बेटियां  गज़ल  है ये बेटियां  नज़्म  हैं
सबके जीवन में  ये  गूंजती सरगम हैं

जिनसे  दिल  को सुकून है
ये  ज़िदंगी  का   जनुनू  है
जिन पे  नाज  है सभी को
की  ये  हमारा  ही  खून है
ये पहाड़ों की है रेे गंगा
सहरा में रेत सी गर्म है
बेटियां  गज़ल  है ये बेटियां  नज़्म  हैं
सबके जीवन में  ये  गूंजती सरगम हैं

सबकी राहों में फूल बिछाती
जो सब की बाहों  में समाती
जो हर  दिल की  आरज़ू  है
जो हर  घर को  घर  बनाती
जो दिए सी है जलती
रोशनी की किरण है
बेटियां  गज़ल  है ये बेटियां  नज़्म  हैं
सबके जीवन में  ये  गूंजती सरगम हैं

यह रण  में  झांसी  बनती है
कभी पन्ना का रूप धरती है
ये   दुर्गा  के  नौ  रूपों वाली
हर रूप में सजती संवरती है
पथरीले  इस  जहां में
दिल जिसका नरम है
बेटियां  गज़ल है  ये बेटियां  नज़्म  हैं
सबके जीवन में  ये  गूंजती सरगम हैं
-०-
पता :- 
अनवर हुसैन 
अजमेर (राजस्थान)

***
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क्या... ढूंढ रहे हैं (कविता) - प्रीति शर्मा 'असीम'

  

क्या... ढूंढ रहे हैं
(कविता)
जो जीवन की, साथर्कता बतलायें।
मानव जीवन के,
सोपानों को, सिद्ध कर जायें ।

नई सोच से, नई लग्न से,
जीवन के आयाम बनायें ।
ऐसा ही कुछ ढूंढ रहे है। 

हर मुश्किल से जा टकरायें।
हिम्मत बांध खडा हो जायें।

झूठ के सौ पैर हुए,....तो क्या?
सच के साथ अडिग रह जायें।

सच्चा प्यार हो दिलों में, 
ढोंग न दिखावा हो ।
चेहरों के अनगिणत मुखौटों में,

जो चेहरा एक चेहरे वाला हो।
ऐसा ही कुछ ढूंढ़ रहें है।
-०-
पता:
प्रीति शर्मा 'असीम'
नालागढ़ (हिमाचल प्रदेश)

-०-


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■■ शहर ■■ (कविता) - अलका 'सोनी'

 

■■ शहर ■■
(कविता)
मैं शहर हूं 
जागा हुआ रहता  
रात भर हूं 
चैन की नींदें 
कहां भाग्य मेरे 
व्यस्तता ही रहती 
हमेशा साथ मेरे 

हता हूं मैं भी 
कभी हो सवेरा ऐसा 
जब ना कोई 
बेसबर हो 

शांति भरी हो रातें 
और सुनहरी सी 
सहर हो 
सड़कों पर ना हो 
ये भागती गाड़ियां 
अखबारों में भी 
अमन की खबर हो 
गांवों की वो सरलता 
कहां से मैं लाऊं  
वह मोहक हरियाली 
खुद में कैसे सजाऊं 

यहां तो समय की 
रहती आपाधापी 
सबको कहीं 
पहुंचने की होती जल्दी 
खेतों की हरीतिमा 
नदियों की कल-कल 
कहीं पीछे अपने
मैं छोड़ आया 
अपनों का नेह,
सजीले चौखटों से 
कब का हूँ मैं
मुंह मोड़ आया।
-०-
अलका 'सोनी'
बर्नपुर- मधुपुर (झारखंड)

-०-

***
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