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Wednesday, 29 January 2020

स्वागत ऋतुराज बसंत का (कविता) - दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'

स्वागत ऋतुराज बसंत का
(कविता)
सरसों के पीले फूलों ने
अलसी के नीले फूलों से कहा
चलो चलें करने स्वागत
ऋतुराज बसंत का
आम के बौरों की सुगंध ने
हवा से कर ली गलबहियाँ
और निकल पड़े करने स्वागत
ऋतुराज बसंत का
गेहूँ की सुनहली बालियों ने
झूम-झूम झूमर गाते
चंवर डोलाते अरहर से कहा
चलो चले करने के स्वागत
ऋतुराज बसंत का
धानी चुनर पीली साड़ी पहन के
ओढ़ के नीली ओढ़नी
गांव की सब सखियां सारी
निकल पड़ी स्वागत करने
ऋतुराज बसंत का
अबीर गुलाल उड़ावत
ढोल शंख मृदंग बाजावत
मनचलों की टोली चली
करने स्वागत
ऋतुराज बसंत का
शब्दों के फूलों से
सुरों के धागों से
कविता की माला बना
"दीनेश" करने चला स्वागत
ऋतुराज बसंत का
स्वागत ऋतुराज बसंत का -०-
पता: 
दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
-०-


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" वसंत आ रहा है " (कविता) - अलका 'सोनी'

◆ वसंत आ रहा है ◆
(कविता)
ठिठुरती सर्दियों का
अब अंत आ रहा है
छा रही लालिमा
पलाश की
अपना वसंत
आ रहा है

आम्र मंजरी से
सजा रथ लेकर
अनंग आ रहा है
स्मरण आज
फिर शकुंतला को
दुष्यंत आ रहा है
आओ करें स्वागत कि
वसंत आ रहा है
कोकिल की कुक से
गूंज उठी है अमराई
संदेश प्रेम का वह
अनंत ला रहा है

खिलखिला रही है
पीली सरसों
अमलतास बिछ गए हैं
कैसा उमंग लेकर
वसंत आ रहा है !!-०-
अलका 'सोनी'
बर्नपुर- मधुपुर (झारखंड)

-०-

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बसंत का स्वागत (कविता)- सुनील कुमार माथुर




बसंत का स्वागत
(कविता)
आओ आओ बसंत
तुम्हारा स्वागत है
तुम्हारे आगमन पर
घर आगन में पुष्प खिले है
बच्चों में उत्साह उमडा है
आज मां सरस्वती का पूजन है
शिक्षा के पावन मंदिरों में
आज सर्वत्र उल्लास हैं
मां सरस्वती का पूजन कर
विधार्थी वर्ग
उच्च व आदर्श संस्कारों से युक्त
शिक्षा पाने को लालायित होते हैं
शिक्षक समुदाय
मां सरस्वती के आगे
संकल्प लेते है कि
हे सरस्वती माता
बच्चों को शिक्षा के प्रति
रूझान देना ताकि
वे शिक्षा प्राप्त कर
परिवार , समाज व राष्ट्र का
मान सम्मान बढाये और
शिक्षा के पावन मंदिर का
गौरव बढाये ताकि
शिक्षक समुदाय जो
भावी पीढी का
शिल्पकार कहलाता है
वह गर्व कर सके
अपने आदर्श विधार्थीयो पर
जिनके जीवन पर
शिक्षक समुदाय
अपने को गौरवान्वित
महसूस कर सकें
शिक्षा के पावन मंदिर में
मां सरस्वती का पूजन
विधा का पूजन है
जिस राष्ट्र में
मां सरस्वती का पूजन होता है
वह राष्ट्र साधन सम्पन्न
राष्ट्र कहलाता है
मां सरस्वती का पूजन
विधा का पूजन है
अतः
आओ बसंत पंचमी आओ
तुम्हारा स्वागत है-०-
सुनील कुमार माथुर ©®
जोधपुर (राजस्थान)

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नारी! ममता की प्रतिमा (कविता) - सुरेश शर्मा


नारी! ममता की प्रतिमा
(कविता)
युग -युगांतर से ,सदियो से ही ,
मातृत्व अधिकार की सम्मान लिए,
इस धरती पर जन्म लेने वाली नारी ।
ममता की मूर्तिं ,ममता की देवी ।
आज हमारे समक्ष ही,
लज्जित और प्रताड़ित होती है।

आज हमारे बीच से ही ,
किसी एक की असामाजिक ;
आचरण की वजह से ।
आज ममता की कोमल अहसास ,
से सुसज्जित नारी ;
लज्जित और अपमानित होती है।

नारी एक सहनशीलता का सुंदर नाम !
ममता की एक अद्भुत प्रतिमा ,
जिनकी अहसास की अनुभूति से ;
जिनके नाम लेने से ही मन मे ,
श्रद्धा भरी प्यार जाग उठती है ;
मातृ के रूप मे पाकर ।

नारी एक सुकोमल नाम ,
प्यारी सी-फूलों की सुगंध की तरह ,
जिसके लिए मन के आंगन मे ;
ममता की सुगंधित खुश्बू ,
फूलो सी खिल उठती है ;
बहन के रूप मे पाकर ।

नारी एक मधुर मिठास का नाम ,
गहरी विश्वास की मूरत ;
जिसे देखने भर से ही ,
हृदय के अन्दर अडिग विश्वास ,
मुख मुद्रा पर मुस्कान बिखर जाती है ;
जीवन संगिनी के रूप मे पाकर ।

नारी एक कोमल अनुभव का नाम ,
जिसकी अनुभूति से ;
हमारे मन मस्तिष्क के पटल पर ,
मन का प्रेम प्रफुल्लित हो उठता है ।
स्नेह की खनखनाहट बज उठती है ,
कन्या संतान के रूप मे पाकर ।

सहनशीलता की देवी होने के बावजूद नारी ,
आज लज्जित होती है !
अपमानित होती है !
प्रताड़ित होती है !

आज हमारा समाज स्तब्ध कयों है ?
क्या आज हमारा समाज निष्ठुर हो गया है ?
क्या हमारा समाज हमे उत्तर देने की !
जिम्मेदारी ले सकती है ?
शायद नही !
कभी नही !-०-
सुरेश शर्मा
गुवाहाटी,जिला कामरूप (आसाम)
-०-

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बनाया रेत का घर है (ग़ज़ल) - मृदुल कुमार सिंह

बनाया रेत का घर है
(ग़ज़ल)
सुनामी का, न तूफां का, न ही भूचाल का डर है।
चलायी नाव कागज़ की, बनाया रेत का घर है।

बहुत रोमांच आता है, कभी सुनना बुजुर्गों से
कहानी उस हवेली की जो दिखती आज खंडहर है।

नहीं कुछ राम लाये थे, नहीं कुछ ले गया रावण,
जहाँ को जीत कर के भी गया खाली सिकंदर है।

न सोने से, न चांदी से, भरा माँ की दुआ से है,
कभी चाहो तो आ जाना,मेरे घर का खुला दर है।

खिला गुड संग पानी के जो सबने हाल पूछा तो,
लगा के गाँव तो मेरा शहर से लाख बहतर है।

है पत्थर दिल, जुबां कडवी, नहीं है आखंँ में पानी
हुआ बीमार यूँ इंसा कि जीते जी गया मर है।

न वो अंधी, न वो बहरी, न हीं अंजान वो मुझ से,
हकूमत है जरा उसके, चडा रहता नशा सर हे।
 -०-
पता:
मृदुल कुमार सिंह
अलीगढ़ (अलीगढ़) 

-०-


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