मैं झुण्ड में थी , अपनी माँ के साथ । मेरे दो छोटे भाई - बहिन सब एक साथ चल रहे थे । पीछे से हकारी हांकते हुए झुण्ड को तितर - बितर होने से बचा रहा था । पर , मैं बहुत चुलबुली थी , छोटी सी , पता नहीं शायद एक या दो माह की । माँ की टांगों के बीच - बीच चलते - चलते इधर - उधर चली जाती । मैं अपनी छोटी सी पूंछ , नरम - नरम कान हिलाते झूमते चल रही थी । रास्ते में एक आटा चक्की घर्र - घर्र चल रही थी । आटे की सौंधी गंध मेरे छोटे - छोटे नथुनों को भा गई । मैं चुपचाप झुण्ड से छिटककर आटा सूंघने - चाटने लगी । झुण्ड आगे बढ़ गया , मुझे ध्यान ही नहीं रहा । आटा चक्की वाला चक्की की घर्र - घर्र में ही व्यस्त था । वह मुझे न देख पाया । मैंने चुपचाप रखा हुआ आटा खा तो लिया किन्तु , अब बाहर जाऊं कैसे ? । रात हो चुकी थी । चक्की वाले ने चक्की बंद की , दरवाजा बंद कर दिया । मैं पगली सी छिपकर बैठ गई । डर के मारे मेरे मुंह से आवाज ही न निकल पा रही थी । चक्की वाला जब चक्की बंद करके अंदर चला गया तो मेरा दम घुटने लगा । पर , अब क्या हो ! मैंने धीरे से आवाज लगाना चाही -
मैं ss मैं ss । पर मुझे लगा , आवाज तो निःसृत ही नहीं हुई , केवल मेरे होंठ ही हिलकर रह गए ।
मुझे माँ की याद सता रही थी । मैं माँ के बिना कैसे रह सकूंगी ? माँ के थनों का मीठा दूध कैसे पी सकूंगी ? मेरी विकलता बढ़ने लगी । मेरे अंतःकरण में माँ ! माँ ! माँ ! शब्द गूंजने लगा । माँ शब्द दीवालों , अंधेरों से टकराने लगा । निःशब्द गूंज मेरी जिव्हा से गुजरती जाने कहाँ विलीन हो जाती । मैं , मैं ss मैं ss कर मिमयाने लगी । मेरा अंतःकरण रो रहा था । मैं सोच रही थी , माँ भी रो रही होगी । उसके थनों का दूध बहने लगा होगा । पर , वह बंधी होगी खूंटे से । शायद हकारी मुझे ढूंढते आ जाय । अँधेरे में मेरी आँखें बिसूर रही थीं । घबराहट बढ़ रही थी । इस बार व्याकुल मन जोर से चिल्लाया - मैं ss मैं ss ।
घर के लोग चौंक गये । यह आवाज कहाँ से आ रही है ? घर में एक छोटा सा लड़का भी था , जिसका नाम था ' गोरा ' । चक्की वाला सरदार बोला -
गोरा पुत्तर , ढूंढ़ तो सही , आवाज किधर से आ रही है ?
तभी घबराकर मैं इधर - उधर चढ़ने - उतरने लगी । चक्की में रखे बाँट धड़धड़ाकर गिर गये । मैं तो तराजू में ही जाकर बैठ गई । सरदार ने आहट पाकर दरवाजा खोला , बत्ती जलाई । मैं निरीह प्राणी की तरह देख रही थी , अपने चारों पैरों के बीच अपने चेहरे को छुपाये । अपराध - बोध से मैं बोल ही नहीं पा रही थी । गोरा हंसा बहुत जोर से । उसकी माँ सरदारनी हंसी , मुंह दबाकर । सरदार बोला -ओए , तू कित्थे आ गई ?
मुझे लगा , अब मार पड़ी कि तब मार पड़ी । लग रहा था , ये लोग मुझे मारकर भगा देंगे यहाँ से । अब इतनी रात गए कहाँ जाऊँगी ? ठण्ड भी बहुत है , अब क्या होगा ?
कित्थे आ गई के जवाब में मैं sss मैं sss मैंने धीरे से कहा - तेरे द्वारा सरदारा ।
गोरा बहुत खुश हो रहा था । उसने मुझे गोद में उठा लिया । मेरी गुलगुली , गुदगुदी देह उसकी गोद में समा गई । सरदारनी बोली -
अंदर ले चल पुत्तर , बहुत ठण्ड है । चल , इसे दूध पिला दें ।
पर , मुझे भूख कहाँ थी , आटा तो मैंने जी भर कर खाया था । मैं कभी सरदारनी को , कभी सरदार को , कभी छोटे गोरा को देखती । सब लोग मुझे भले लग रहे थे । सरदारनी ने मुझे मोटा बिस्तर लगाकर सुला दिया , गर्म कम्बल भी उड़ा दिया -
ओए , तुसी ठण्ड न लग जाए , नहीं तो ऊपर वाले को क्या जवाब दूंगी ?
रात तो मजे की कट गई ।
सुबह की धूप गुलाबी थी । माँ की याद गहरी हो रही थी । पर , कर ही क्या सकते थे ? सरदारनी के पास जाकर चुपचाप बैठ गई । उसने मुझे हरी सब्जी प्रेम से खिलाई । वह मेरी आँखों की भाषा पढ़ रही थी शायद । अरे , उसने तो सब जान लिया । मुझे गोद में लिपटाकर प्यार करने लगी । आखिर माँ है ना । मुझे लगा , मेरी माँ मुझे मिल गई । गोरा भी मेरी गुलगुली देह पर हाथ फेरकर कहता - माँ , यह कितनी गोरी है , एकदम सफ़ेद । इसके माथे का तिलक तो देखो , कितना सुन्दर है , इसे अब हम कभी नहीं जाने देंगे ।
तभी मैं सरदारनी की गोद से उछलकर कूदने लगी । और गोरा के पास आकर बोली - मैं ss मैं ss । गोरा भी बोला - मैं ss मैं ss , चल खेलते हैं । गोरा मेरे साथ खेलते - कूदते बड़ा होने लगा । मेरे दोनों पैरों को ऊपर उठाकर चलाता - ठक ठक ठक । गोरा मुझे चुलबुली कहता , मुझे अच्छा लगता ।
गोरा स्कूल जाने लगा । सरदार अब मेरे लिये पत्ती खिलाने लगा , हरी - हरी कोमल पीपल की पत्ती । मैं दिन भर उछल - कूद करती । दरवाजे पर बैठ गोरा के आने की प्रतीक्षा करती । गोरा भी आते ही बस्ता फेंककर मेरे पास आ जाता । मेरे कानों को घुमाता , लाड़ जताता । उसके कुछ दोस्त भी मेरे साथ खेलने आते । मैं ss मैं ss कर मुझे चिढ़ाते , पर , मुझे अच्छा लगता । पूरा घर शोरगुल से गूंजने लगता । वातावरण के साथ मैं ढल गई थी । सूरज के उदय होने और ढलने के साथ जैसे गोरा बड़ा हो रहा था , मैं भी तो बड़ी हो रही थी । सरदारनी कहती - जा , घूम फिर आ थोड़ा .........
मैं तो ठहरी चुलबुली , घूमने क्या गई ....... घूमते - घूमते दूर निकल गई , बहुत दूर ...... । विचारों की तन्द्रा में खोई , बाग़ - बगीचे , हरियाली देखती हुई धरती माँ के स्नेहिल हरे - भरे रोयें को स्पर्श करती । तभी भारी सा स्वर मेरे स्वर से मिलता - जुलता मैं ss मैं ss हवा की लहर के साथ गूंजता मेरे कानों में रस घोलने लगा । मैं चौकस होकर सुनने लगी । एक ऊंचे टीले से गूंजती आवाज के साथ वह मेरे सामने खड़ा हो गया । अपनी जाति - बिरादरी से मिलकर प्रसन्नता हुई । मेरे ह्रदय के तल में छल - छल की आवाज स्पंदित होने लगी , जैसे मरुस्थल में दूर कहीं पानी का स्रोत बह निकला हो ! सृजनकर्ता धरती दुलारने लगी । बहुत देर हम एक - दूसरे को देखते रहे फिर प्यार - मोहब्बत की बातें देर तक चलती रहीं । हम बहुत पास आ गए थे एक - दूसरे के , ऐसे जैसे सूरज संध्या की गोद में । मैंने कहा - मुझे अब जाना होगा । उसने कहा - मुझे भी । वह चला गया और मैं प्यार का हिस्सा कितना बाँध ले आई , तब पता चला , जब मेरा शरीर भारी होने लगा । कुछ दिनों बाद सरदारनी कहने लगी -
अरी , तू भी अब सरदारनी ( माँ ) बनने वाली है चुलबुली ।
मैंने जवाब में कहा - हाँ , मैं sss ।
सरदारनी खुश थी ।
समय आने पर मैंने दो बच्चों को जन्म दिया । छोटे - छोटे मेरे ही जैसे सुन्दर , एक कालू और एक कबरी । मेरे थनों में दूध भर गया । मेरे बच्चे थनों से एक साथ हुमक - हुमक कर दूध पीते । मैं मातृत्व गर्व से भर गई । सरदारनी हंसती , उसकी आँखें हंस - हंस कहतीं - चुलबुली sss सरदारनी । पर , मैं अब सरदारनी की तरह गंभीर हो चली थी क्योंकि मैं माँ जो बन गई थी । मैं अब अपने बच्चों में व्यस्त रहती । सरदारनी लोटे में मेरा दूध दुह लेती फिर थनों को थैली में बांधकर मुझसे कहती - जा घूम आ चुलबुली । पर , मैं तो अपने बच्चों की देखरेख में रहती । कालू बहुत ऊधमी था , कहीं भी चढ़ जाता , फिर मैं ss मैं ss करता । घुमा - घुमा कर सिर मारता । जानवरों के बच्चे कुछ महीनों में ही बड़े हो जाते हैं । आदमी के बच्चे वर्षों - वर्षों तक छोटे ही कहलाते हैं । यह मैंने तब जाना जब मेरा कालू पूरे एक साल का भी नहीं हुआ था । सरदार कहने लगा - अरे , कालू अब जवान हो गया है , देखो कैसे बकरियों को छेड़ता है , इसे बेच देंगे । अच्छा पैसा मिलेगा ।
मेरा कलेजा बाहर आने लगा । कालू अब जवान हो गया है । पर , बेचना क्यों है ? सरदार कहता - बकरीद के मेले में अच्छे पैसे मिलेंगे , कोई कसाई ले जायेगा ।
ओह ! कसाई क्या बला है ? बकरीद क्या होती है ? मेरा दिल खुद से ये सब पूछता । दिन निकलते गए । मैं अपने कालू को छाती से चिपकाये रखना चाहती । सरदार बिल्कुल बदल गया था । पैसे के मोह ने उसे कितना गिरा दिया था ! कोई उसके बच्चे को बेच दे तो फिर कैसा लगेगा , ऐं .......? ।
मैं शाम को घूमने गई । टीले से वही भारी स्वर आवाज दे रहा था मैं ss मैं ss । मैंने भी आवाज दी - मैं ss मैं ss । आज मेरे स्वर में करुणा , व्याकुलता थी । जैसे वह मेरी बात समझ गया , वह नीचे उतरा । उसने मुझे बहुत प्यार किया । मैंने अपने ह्रदय की बात उसे बताई । उसने अपनी गर्दन मेरे चेहरे से टिका ली । वह कह रहा था -
मैं भी एक दिन बेच दिया जाऊंगा कसाई के हाथ ...... ।
मेरी आँखों से आंसू बहने लगे थे ।
अरे ! क्या कहते हो , तुमसे तो मैं प्रेम करती हूँ । तुम मेरे कालू के पिता हो । तुम दोनों मुझे छोड़कर चले जाओगे ?
उसकी आँखें पनिया गईं । हमारी मर्मान्तक पीड़ा , असहय वेदना को समझने वाला कोई नहीं । इंसान इतना भावना - शून्य क्यों हो गया है ? अँधेरा होने लगा था । हम घर आ गए गहन संवेदनाओं का सागर लिए ।
इधर सरदारनी ने भी एक बच्ची को जन्म दिया । अब वह अपनी बच्ची में ज्यादा व्यस्त रहती । अपने आँचल से ढंककर वह बच्ची को दूध पिलाती । मैं भी उसकी देखरेख करती , जब सरदारनी कहीं जाती तो कह जाती - देख चुलबुली , मैंने तेरे बच्चों को संभाला , अब तू भी इसे संभाल ।
मैं बैठी रहती उस बच्ची के सिरहाने , जब तक सरदारनी न आ जाती । इस घर की ख़ुशी ही मेरी ख़ुशी थी । पर , मुझे कालू की चिंता हरदम सताती । अरे , यह तो बताना ही भूल गई - एक रात सब गहरी नींद में थे । पर , हम जानवर तो रात में भी गहरी नींद कहाँ सोते है ? कुछ चोर रात के सन्नाटे में धीरे से छत पर चढ़े । कालू ने देखा , वह जोर - जोर से सरदारनी को दरवाजा भड़भड़ाकर जगाने लगा - मैं ss मैं ss ..... । मैं sss मैं sss .... करके तो मैं भी चिल्लाई बहुत जोर से । सरदारनी घबड़ाकर उठी और चोर भागे दुम दबाकर । सरदारनी बोली -
अरे , मेरा कालू तो बड़ा बहादुर है , वह बकरी का बच्चा नहीं , शेरनी का बच्चा है ।
मेरा मन छल - छल करने लगा - ' मेरा कालू ' ( अपनापन और संवेदना से भरा यह शब्द मरा नहीं है , वह जिन्दा है माँ के ह्रदय में ) । मुझे कालू के पिता की याद सताती ।
सरदार कड़क और निष्ठुर होता जा रहा था । कई लोग कालू को देखने , पूछने आने लगे थे ।
अब मैं रोज शाम टीले के पास जाती , कालू के पिता से मिलती । उसका प्यार भी दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था । शाम को लौटने पर हर रात बोझिल हो जाती । सुबह - सबेरे सरदार मुझे कालू के पास बैठा देखता तो कहता -
बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी ?
मुझे अब सरदार बैरी लगने लगा था ।
गोरा जब घर आता तो सरदारनी के मुख से स्नेह के फूल झरने लगते । सरदार भी उठकर पुत्तर - पुत्तर कहकर प्यार लुटाता । गोरा को तो मैं भी बहुत प्यार करती हूँ । मेरी आँखें सरदारनी की आँखों पर जा चिपकीं और कहतीं - मेरा कालू भी तो मेरे जिगर का टुकड़ा है , उसे न जाने देना सरदारनी ।
लोग सोचते हैं , चुलबुली तो बकरी है , जानवर है , उसे तो पत्ती खाना , दूध देना , बस इतनी ही तो है उसकी जिंदगी ! कष्ट होगा तो मिमयाने के सिवाय कर ही क्या सकती है चुलबुली ? पर , चुलबुली माँ है , यह क्यों नहीं सोचते लोग ? मैं कभी न जाने दूंगी अपने कालू को । मैं सरदारनी की संवेदनाओं को चीर दूंगी । सुबकने लगी थी मैं ।
सुबह सरदारनी ने नाश्ता बनाया , सबको खिलाया । आज तो मुझे गुड़ भी खिलाया और कबरी को भी । कालू भी लपक कर खा गया । वह मेरे थनों में अब भी मुंह मारता , दुलराता है । कबरी के सिर से सिर मिलाकर खेलता है । ऊंची - ऊंची पट्टियों पर चढ़ जाता है । पेड़ों की टहनियों से पत्तियां तोड़कर खाता है । कितना सुन्दर लगता है कालू , जब कबरी के साथ खट - खट सींग लड़ाकर खेलता है । मैं चक्की के दरवाजे पर चबूतरे में पसरी धूप में बैठकर विचारों को सेंकने लगी । तभी एक व्यक्ति आकर सरदार से कहने लगा - ला भई , अपना कालू , आज बकरीद का मेला है ।
मैं क्या देखती हूँ विस्फारित नजरों से , उसके साथ जो बकरा था , वह कालू का पिता था जिसे उसने खूब सजाया था , गले में सुन्दर - सुंदर मोतियों का पट्टा था , टीका लगा था । मेरा ह्रदय चीत्कार कर उठा । यह सरदार स्वार्थ और संकीर्णता की अँधेरी कुठरिया में बंद हो गया है । मैं उसकी स्वार्थ की अँधेरी कुठरिया की दीवार तोड़ देना चाहती थी , झिंझोड़ देना चाहती थी इंसानियत के खंडहर को । खोलकर दिखा देना चाहती थी अपने छलनी होते ह्रदय को । वह भी तो तड़पकर कसाई के हाथ से छूटकर मेरे पास भागने लगा । कसाई ने उसे चाबुक मारा और गले में बंधी रस्सी से उसे खींच लिया । मैं भाग जाना चाहती थी उसके साथ हिंसात्मक मेले से दूर , कहीं दूर । पर , सरदार ने मेरी आत्मा की आवाज नहीं सुनी , मुझे खूंटे से बाँध दिया । मेरे कालू को भी टीका लगाकर कसाई के साथ कर दिया , अच्छी रकम लेकर । मैं मिमयाती रही ...... । मेरी आँखों की कोरें बहते - बहते फटने लगीं पर , मैं खूंटे से बंधी थी । मैं सरदारनी से कहने लगी -
देख सरदारनी , तेरा गोरा और उसका पिता अब नहीं रहा ।
सरदारनी ने मेरा मुंह दबा दिया और मुझे खूंटे से छोड़ दिया ।
-०-
डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'
(राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित)
दुबे कालोनी , कटनी 483501 (म. प्र.)-०-