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Saturday, 16 November 2019

सतरंगी पटाखे (लघुकथा) - गोविन्द सिंह चौहान

सतरंगी पटाखे
(लघुकथा)
बिजली विभाग के वरिष्ठ अभियंता पारीक साब बंगले पर पहुंचे तो दोनों बेटे जो सोलह-अट्ठारह साल के हैं उन्होंने कहा, "पापा, बाजार चलो और हमें दीवाली के पटाखे दिलाकर लाओ। हमें ऑटोमेटिक रॉकेट और सतरंगी पटाखों की बड़ी पेटियां चाहिए जो आसमान में बहुत ऊँचे जाकर रंगीन रोशनी देते हैं।" पारीक साब कुछ देर सोचते रहे, फिर मुस्कुराते हुए दोनों को कार में बैठने का इशारा किया। कुछ देर बाद वो एक मॉल में जा पहुंचे। पारीक साब बच्चों से बोले, "पहले मैं कुछ पटाखे मेरे लिए ले लूं।" बच्चे अचंभित से उन्हें देखते रहे और उन्होंने कुछ फुलझड़ियाँ, जमीन चक्करियां, अनार, छोटे पटाखे, मिट्टी के दीये और आधा-आधा किलो मिठाई ले के दस पैकेट बनवाए और बाहर आकर कार में बैठ गये। बच्चे बोले पापा हमारे पटाखे....? 

पारीक साब शहर से बाहर की तरफ कार बढ़ाते हुए बोले, "आज तुम्हें असली दीपावली दिखाकर लाता हूँ, फिर तुम्हारे लिए बहुत सारे सतरंगी पटाखे खरीदेंगे। लगभग आधे घण्टे की ड्राइव के बाद वो एक गाँव में थे, कच्चे-पक्के मकानों के बीच। पारीक साब अपने रूरल एरिये से परिचित थे। बच्चों को पैकेट्स लाने को कहा और झोंपड़ीनुमा घरों में जाकर पैकेट देते, कुछ बातें करते और ढ़ेर सारी दुआएं लेकर आगे बढ़ जाते....इस तरह दो घण्टे गरीबों के घर दीवाली की शाम मनाकर वापस शहर की ओर चल पड़े। आते समय दोनों बच्चे धीर-गंभीर थे। गाड़ी पुनः मॉल पर आकर रूकी। पारीक साब बोले, "जाओ और जितने महंगे पटाखे चाहिए ले लो।" दीवाली का सही मतलब समझ चुके दोनों बच्चे बोले, "पापा चलो, किसी छोटी दुकान से फुलझड़ियां और छोटे पटाखे ले लेते हैं। अब मिट्टी के दीयों से ही दीवाली मनाएंगे। पारीक साब फिर मुस्कुराने लगे।
-०-
गोविन्द सिंह चौहान
राजसमन्द (राजस्थान)


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भूल गया था सूरज (कविता) - डॉ॰ आरती बंसल


भूल गया था सूरज (कविता)
(कविता)
अपनी उम्र के
लगभग
आधे पड़ाव पर
खड़ी ये औरतें
लौट जाना चाहती हैं
वापस मायके की
चौखट पर
जहां छोड़ आईं थीं
मन का एक सिरा।

ये औरतें
महसूस करना चाहती हैं
अपनी हथेली की
गर्माहट को
पूरा का पूरा।
थाम कर
पिता की उंगली
फिर से
चलना चाहती हैं।
अनेक बार
सोचती हैं वो
कि पृथ्वी के
साथ-साथ
वो भी काट चुकी हैं
सूर्य के
चालीस-पचास चक्कर
पर उनके हिस्से की
धूप उगलना
शायद
भूल गया था सूरज।
-०-
पता: 
डॉ॰ आरती बंसल
सिरसा (हरियाणा)
-०-

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शोध निदेशक (व्यंग्य आलेख) - डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल

शोध निदेशक  (व्यंग्य आलेख)
(व्यंग्य आलेख)
वे जाने माने शोध निदेशक थे.शोध निदेशक होते ही जाने माने हैं.अनजाना कैसा शोध निदेशक?इसलिए उनकी ख्याति दूर-दूर तक पददलित धरती पर इधर-उधर प्रस्फुटित पेड़ पौधों पर सुशोभित पत्ते-पत्ते पर आंधी की धूल सी पसरी पड़ी थी. उन्हें अपना उस्ताद बनाने और उनके प्रति समर्पित होने का अनुमोदन पत्र बनवाने के लिए दूर दूर से छठे हुए सूचित अनुसूचित पट्ठे उनके पास आते थे. क्यों ?अब इतनी समझ तो आप में भी होनी चाहिए .फिर भी बता देता हूं .वह हिंदी साहित्य के बहुचर्चित बुझे हुए दीपों को, शोध कार्य के माध्यम से दैदीप्यमान करने के लिए उत्सुक व समर्पित रहते थे. बस उन्हीं की तरह कर्तव्यनिष्ठ शोधार्थी मिल जाये. इससे उन्हें दोहरा लाभ होता था. लाभार्थी या उसके अशरीरी होेने की स्थिति में उसके परिजनों की स्नेहिल अनुकम्पा के अतिरिक्त शोधार्थी या उसके परिजन उन्हें तीज त्यौहार अनुसार नाना रूपों की नेगाभिव्यक्ति से लाभान्वित करते रहते थे. इससे वह भी स्वयं को सम्मानित व गौरवान्वित महसूस करते थे. 

उनकेेे शोधार्थियों में भारत शासन की विधि व्यवस्था के अनुरूप पुरुष और महिला दोनों ही वर्गों के विद्यार्थी आते थे. इनके साथ वह लिंगानुसार व्यवहार करने को अपना मौलिक अधिकार समझते थे. पुरुषों के लिए उनका व्यवहार नारियल के भारी आवरण की तरह कठोर था किन्तु महिलाओं के लिए वह नारियल की गरी जैसे थे. सुस्वादु ,पौष्टिक, लवण व ऊर्जादायी नमीयुक्त . पुरुषों के लिए शोध कार्य की सभी शर्तें अनिवार्य थीं किंतु महिलाओं के लिए ‘मैटरनिटी लीव’ की तरह, वह कुछ विशिष्ट सुविधाएं प्रदान कर देते थे. यह सुविधाएं केन्द्र व राज्य शासन की मंशानुरुप महिलाओं को आत्म निर्भर बनाने व अग्रिम पंक्ति में ला खड़े करने के महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही थीं. वह तो निमित्त मात्र थे.शासकीय योजनाओं से इतर उनकी अपनी कोई योजना या इच्छा नहीं थी.इस तथ्य का सार्वजनिक प्रदर्शन वह यक पुराने अंग्रेजी प्राध्यापक की तर्ज पर किया करते थे. 

वर्तमान युग अभिलाषाओं का युग है. अतः लाभ की आशा किसे नहीं होती? इसी आकांक्षा को मूर्त रूप देने के लिए वह पंजीयत शोधार्थियों को हड़काते रहते थे. अब ये भी न करते तो क्या करते? इसके शिकार अधिकांशतः वह शोधार्थी होते थे जिन्हें शोध से कोई लेना-देना नहीं होता और जो केवल शोध कार्य के नाम पर चार साल तक शासन से दस बीस हजार रुपये महीने का राजस्व लूटने या उपलब्ध अन्य सुविधाओं को जीमने के लिए अपना पंजीयन कराते थे. सरकार कुछ वर्गों को विशेष ध्यान रखती है इसलिए उनसे कहने सुनने वाला कोई नहीं होता, सिवाय शोध निदेशक जी के. 



वह शोध निदेशक थे. अपने जमाने में शोध उन्होंने भी किया था. तब से आज तक इस क्षेत्र में शोधात्मक गतिविधियों का कितना विकास हुआ, इसका पूरा चिट्ठा उनके भी पास था. जब भी कोई पट्ठा या पट्ठी शोध कार्य के लिए प्रकट होती, वह पहले दो-तीन महीने उससे शोध विषय पर गहन मंत्रणा करतेे. शोधार्थी जो भी सुझाता वह उसी बात को पुड़िया में लपेट कर उलझा देते. अर्थात् विषय की ऐसी तैसी चलती रहती थी.वह कुछ कहता निदेशक कुछ और. जैसे-तैसे उनके मध्य बड़ी मेहनत और विमर्श के बाद विषय पर फायनल ‘डील ’ होती क्योंकि शोध शीर्षक तय करने के लिए ही निदेशक महोदय बड़ी मेहनत करते थे. शोधार्थी के शीर्षक को बदलने-उलटने-पलटने के अतिरिक्त वह उसी के सामने मित्र निदेशकों से भी शोध शीर्षक के संबंध में गहन चर्चा करते थे. इससे उन्हें भावी योजनायें निर्धारित करने में बड़ी सहूलियत होती थी. 

वह शोधार्थी के वांछित शीर्षक को जितना बदलने की सामथ्र्य रखते थे, उतना तो बदल ही देते थे, शेष भाग को बदलने का कार्य विश्वविद्यालय की शोध समिति के सदस्य या आमंत्रित शोध विशेषज्ञ के भरोसे छोड़ देते थे. शोधार्थी यदि नई कविता पर शोध करना चाहता था तो विश्वविद्यालय की ओर से अंतिम स्वीकृति नई कहानी पर मिलती थी. फिर उसके बाद शुरू हो जाता था शोध निर्देशक के बेट-बेटियों की लघु कथाओं को संभालने सहेजने का महत्वपूर्ण कार्य. यों कुछ गैर ज़रूरी काम भी शोध कार्य में उसकी मदद करते थे जैसे-उनके घर की सब्जी लाना, जल संकट के समय दूर ट्यूबवेल से पानी भरना, राशन , पानी व्यवस्था करना, समय-समय पर लिम्का, कोकोकोला, बैगपाइपर सोड़ा जैसे वांछनीय-अवांछनीय पेय पदार्थों की पूर्ति करना आदि-आदि. 

जो यहां शोध निदेशक है, वे कहीं और शोध विशेषज्ञ का रूप धारण कर लेते हैं या कर सकते हैं अतः सभी शोध निदेशकों उर्फ शोध विशेषज्ञों में, पक्ष-विपक्ष के नेताओं की तरह, अलिखित किन्तु मान्यता प्राप्त गुप्त संधि कायम रहती है. इसके तहत शोध ग्रंथ पर अभिमत और मौखिक परीक्षण जैसे क्रियाकर्म शोध ग्रंथ के मृत शरीर के ऊपर से पिछला कर्जा उतारने के बाद ही संभव होते हंै. इसके बाद ही शोध शव को चिता पर लिटाया जाता है. मुखाग्नि लंच या डिनर रुपी ब्रम्ह-भोज पर आधारित होती है ,सद्भावना रूपी लिफाफे युक्त कपाल क्रिया के साथ. 

यों बीसवीं सदी में शोध कार्य शोध निदेशकों की उदारता अनुकंपा पर निर्भर था. किंतु इक्कीसवीं सदी के शोधार्थियों को अर्जुन या अभिमन्यु की तरह वीर पुत्र मानना चाहिए. कैसे पूरा करते हैं शोधकार्य? इसी पर शोध कार्य होना चाहिए. मैं तो तैयार हूं, क्या कोई वास्तविक विश्वविद्यालय को ईमानदार कुलपति मुझे इसकी अनुमति देगा?
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पता:
डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल 
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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जीवन (कविता) जयंती सिंह लोधी

जीवन
(कविता)
सिर्फ
श्वासों का
चलना
नहीं है जीवन
जीवन में जीवन की
तलाश है जीवन।
दृश्य में अदृश्य की
विनाश में अविनाश की
सघन तिमिर में
उज्ज्वल प्रकाश की
अणु में विभु की
कंकर में शंकर की
साकार में निराकार की
नैराश्य में आस की
ज्ञात में अज्ञात की
राग में वैराग्य की
तलाश है जीवन
जीवन में जीवन की
तलाश है जीवन।।
-०-
पता:
जयंती सिंह लोधी
सागर (मध्यप्रदेश)

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माँ (कहानी) - डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'


माँ
(कहानी)
मैं झुण्ड में थी , अपनी माँ के साथ । मेरे दो छोटे भाई - बहिन सब एक साथ चल रहे थे । पीछे से हकारी हांकते हुए झुण्ड को तितर - बितर होने से बचा रहा था । पर , मैं बहुत चुलबुली थी , छोटी सी , पता नहीं शायद एक या दो माह की । माँ की टांगों के बीच - बीच चलते - चलते इधर - उधर चली जाती । मैं अपनी छोटी सी पूंछ , नरम - नरम कान हिलाते झूमते चल रही थी । रास्ते में एक आटा चक्की घर्र - घर्र चल रही थी । आटे की सौंधी गंध मेरे छोटे - छोटे नथुनों को भा गई । मैं चुपचाप झुण्ड से छिटककर आटा सूंघने - चाटने लगी । झुण्ड आगे बढ़ गया , मुझे ध्यान ही नहीं रहा । आटा चक्की वाला चक्की की घर्र - घर्र में ही व्यस्त था । वह मुझे न देख पाया । मैंने चुपचाप रखा हुआ आटा खा तो लिया किन्तु , अब बाहर जाऊं कैसे ? । रात हो चुकी थी । चक्की वाले ने चक्की बंद की , दरवाजा बंद कर दिया । मैं पगली सी छिपकर बैठ गई । डर के मारे मेरे मुंह से आवाज ही न निकल पा रही थी । चक्की वाला जब चक्की बंद करके अंदर चला गया तो मेरा दम घुटने लगा । पर , अब क्या हो ! मैंने धीरे से आवाज लगाना चाही -
मैं ss मैं ss । पर मुझे लगा , आवाज तो निःसृत ही नहीं हुई , केवल मेरे होंठ ही हिलकर रह गए ।
मुझे माँ की याद सता रही थी । मैं माँ के बिना कैसे रह सकूंगी ? माँ के थनों का मीठा दूध कैसे पी सकूंगी ? मेरी विकलता बढ़ने लगी । मेरे अंतःकरण में माँ ! माँ ! माँ ! शब्द गूंजने लगा । माँ शब्द दीवालों , अंधेरों से टकराने लगा । निःशब्द गूंज मेरी जिव्हा से गुजरती जाने कहाँ विलीन हो जाती । मैं , मैं ss मैं ss कर मिमयाने लगी । मेरा अंतःकरण रो रहा था । मैं सोच रही थी , माँ भी रो रही होगी । उसके थनों का दूध बहने लगा होगा । पर , वह बंधी होगी खूंटे से । शायद हकारी मुझे ढूंढते आ जाय । अँधेरे में मेरी आँखें बिसूर रही थीं । घबराहट बढ़ रही थी । इस बार व्याकुल मन जोर से चिल्लाया - मैं ss मैं ss ।
घर के लोग चौंक गये । यह आवाज कहाँ से आ रही है ? घर में एक छोटा सा लड़का भी था , जिसका नाम था ' गोरा ' । चक्की वाला सरदार बोला -
गोरा पुत्तर , ढूंढ़ तो सही , आवाज किधर से आ रही है ?
तभी घबराकर मैं इधर - उधर चढ़ने - उतरने लगी । चक्की में रखे बाँट धड़धड़ाकर गिर गये । मैं तो तराजू में ही जाकर बैठ गई । सरदार ने आहट पाकर दरवाजा खोला , बत्ती जलाई । मैं निरीह प्राणी की तरह देख रही थी , अपने चारों पैरों के बीच अपने चेहरे को छुपाये । अपराध - बोध से मैं बोल ही नहीं पा रही थी । गोरा हंसा बहुत जोर से । उसकी माँ सरदारनी हंसी , मुंह दबाकर । सरदार बोला -ओए , तू कित्थे आ गई ?
मुझे लगा , अब मार पड़ी कि तब मार पड़ी । लग रहा था , ये लोग मुझे मारकर भगा देंगे यहाँ से । अब इतनी रात गए कहाँ जाऊँगी ? ठण्ड भी बहुत है , अब क्या होगा ?
कित्थे आ गई के जवाब में मैं sss मैं sss मैंने धीरे से कहा - तेरे द्वारा सरदारा ।
गोरा बहुत खुश हो रहा था । उसने मुझे गोद में उठा लिया । मेरी गुलगुली , गुदगुदी देह उसकी गोद में समा गई । सरदारनी बोली -
अंदर ले चल पुत्तर , बहुत ठण्ड है । चल , इसे दूध पिला दें ।
पर , मुझे भूख कहाँ थी , आटा तो मैंने जी भर कर खाया था । मैं कभी सरदारनी को , कभी सरदार को , कभी छोटे गोरा को देखती । सब लोग मुझे भले लग रहे थे । सरदारनी ने मुझे मोटा बिस्तर लगाकर सुला दिया , गर्म कम्बल भी उड़ा दिया -
ओए , तुसी ठण्ड न लग जाए , नहीं तो ऊपर वाले को क्या जवाब दूंगी ?
रात तो मजे की कट गई ।
सुबह की धूप गुलाबी थी । माँ की याद गहरी हो रही थी । पर , कर ही क्या सकते थे ? सरदारनी के पास जाकर चुपचाप बैठ गई । उसने मुझे हरी सब्जी प्रेम से खिलाई । वह मेरी आँखों की भाषा पढ़ रही थी शायद । अरे , उसने तो सब जान लिया । मुझे गोद में लिपटाकर प्यार करने लगी । आखिर माँ है ना । मुझे लगा , मेरी माँ मुझे मिल गई । गोरा भी मेरी गुलगुली देह पर हाथ फेरकर कहता - माँ , यह कितनी गोरी है , एकदम सफ़ेद । इसके माथे का तिलक तो देखो , कितना सुन्दर है , इसे अब हम कभी नहीं जाने देंगे ।
तभी मैं सरदारनी की गोद से उछलकर कूदने लगी । और गोरा के पास आकर बोली - मैं ss मैं ss । गोरा भी बोला - मैं ss मैं ss , चल खेलते हैं । गोरा मेरे साथ खेलते - कूदते बड़ा होने लगा । मेरे दोनों पैरों को ऊपर उठाकर चलाता - ठक ठक ठक । गोरा मुझे चुलबुली कहता , मुझे अच्छा लगता ।
गोरा स्कूल जाने लगा । सरदार अब मेरे लिये पत्ती खिलाने लगा , हरी - हरी कोमल पीपल की पत्ती । मैं दिन भर उछल - कूद करती । दरवाजे पर बैठ गोरा के आने की प्रतीक्षा करती । गोरा भी आते ही बस्ता फेंककर मेरे पास आ जाता । मेरे कानों को घुमाता , लाड़ जताता । उसके कुछ दोस्त भी मेरे साथ खेलने आते । मैं ss मैं ss कर मुझे चिढ़ाते , पर , मुझे अच्छा लगता । पूरा घर शोरगुल से गूंजने लगता । वातावरण के साथ मैं ढल गई थी । सूरज के उदय होने और ढलने के साथ जैसे गोरा बड़ा हो रहा था , मैं भी तो बड़ी हो रही थी । सरदारनी कहती - जा , घूम फिर आ थोड़ा .........
मैं तो ठहरी चुलबुली , घूमने क्या गई ....... घूमते - घूमते दूर निकल गई , बहुत दूर ...... । विचारों की तन्द्रा में खोई , बाग़ - बगीचे , हरियाली देखती हुई धरती माँ के स्नेहिल हरे - भरे रोयें को स्पर्श करती । तभी भारी सा स्वर मेरे स्वर से मिलता - जुलता मैं ss मैं ss हवा की लहर के साथ गूंजता मेरे कानों में रस घोलने लगा । मैं चौकस होकर सुनने लगी । एक ऊंचे टीले से गूंजती आवाज के साथ वह मेरे सामने खड़ा हो गया । अपनी जाति - बिरादरी से मिलकर प्रसन्नता हुई । मेरे ह्रदय के तल में छल - छल की आवाज स्पंदित होने लगी , जैसे मरुस्थल में दूर कहीं पानी का स्रोत बह निकला हो ! सृजनकर्ता धरती दुलारने लगी । बहुत देर हम एक - दूसरे को देखते रहे फिर प्यार - मोहब्बत की बातें देर तक चलती रहीं । हम बहुत पास आ गए थे एक - दूसरे के , ऐसे जैसे सूरज संध्या की गोद में । मैंने कहा - मुझे अब जाना होगा । उसने कहा - मुझे भी । वह चला गया और मैं प्यार का हिस्सा कितना बाँध ले आई , तब पता चला , जब मेरा शरीर भारी होने लगा । कुछ दिनों बाद सरदारनी कहने लगी -
अरी , तू भी अब सरदारनी ( माँ ) बनने वाली है चुलबुली ।
मैंने जवाब में कहा - हाँ , मैं sss ।
सरदारनी खुश थी ।
समय आने पर मैंने दो बच्चों को जन्म दिया । छोटे - छोटे मेरे ही जैसे सुन्दर , एक कालू और एक कबरी । मेरे थनों में दूध भर गया । मेरे बच्चे थनों से एक साथ हुमक - हुमक कर दूध पीते । मैं मातृत्व गर्व से भर गई । सरदारनी हंसती , उसकी आँखें हंस - हंस कहतीं - चुलबुली sss सरदारनी । पर , मैं अब सरदारनी की तरह गंभीर हो चली थी क्योंकि मैं माँ जो बन गई थी । मैं अब अपने बच्चों में व्यस्त रहती । सरदारनी लोटे में मेरा दूध दुह लेती फिर थनों को थैली में बांधकर मुझसे कहती - जा घूम आ चुलबुली । पर , मैं तो अपने बच्चों की देखरेख में रहती । कालू बहुत ऊधमी था , कहीं भी चढ़ जाता , फिर मैं ss मैं ss करता । घुमा - घुमा कर सिर मारता । जानवरों के बच्चे कुछ महीनों में ही बड़े हो जाते हैं । आदमी के बच्चे वर्षों - वर्षों तक छोटे ही कहलाते हैं । यह मैंने तब जाना जब मेरा कालू पूरे एक साल का भी नहीं हुआ था । सरदार कहने लगा - अरे , कालू अब जवान हो गया है , देखो कैसे बकरियों को छेड़ता है , इसे बेच देंगे । अच्छा पैसा मिलेगा ।
मेरा कलेजा बाहर आने लगा । कालू अब जवान हो गया है । पर , बेचना क्यों है ? सरदार कहता - बकरीद के मेले में अच्छे पैसे मिलेंगे , कोई कसाई ले जायेगा ।
ओह ! कसाई क्या बला है ? बकरीद क्या होती है ? मेरा दिल खुद से ये सब पूछता । दिन निकलते गए । मैं अपने कालू को छाती से चिपकाये रखना चाहती । सरदार बिल्कुल बदल गया था । पैसे के मोह ने उसे कितना गिरा दिया था ! कोई उसके बच्चे को बेच दे तो फिर कैसा लगेगा , ऐं .......? ।
मैं शाम को घूमने गई । टीले से वही भारी स्वर आवाज दे रहा था मैं ss मैं ss । मैंने भी आवाज दी - मैं ss मैं ss । आज मेरे स्वर में करुणा , व्याकुलता थी । जैसे वह मेरी बात समझ गया , वह नीचे उतरा । उसने मुझे बहुत प्यार किया । मैंने अपने ह्रदय की बात उसे बताई । उसने अपनी गर्दन मेरे चेहरे से टिका ली । वह कह रहा था -
मैं भी एक दिन बेच दिया जाऊंगा कसाई के हाथ ...... ।
मेरी आँखों से आंसू बहने लगे थे ।
अरे ! क्या कहते हो , तुमसे तो मैं प्रेम करती हूँ । तुम मेरे कालू के पिता हो । तुम दोनों मुझे छोड़कर चले जाओगे ?
उसकी आँखें पनिया गईं । हमारी मर्मान्तक पीड़ा , असहय वेदना को समझने वाला कोई नहीं । इंसान इतना भावना - शून्य क्यों हो गया है ? अँधेरा होने लगा था । हम घर आ गए गहन संवेदनाओं का सागर लिए ।
इधर सरदारनी ने भी एक बच्ची को जन्म दिया । अब वह अपनी बच्ची में ज्यादा व्यस्त रहती । अपने आँचल से ढंककर वह बच्ची को दूध पिलाती । मैं भी उसकी देखरेख करती , जब सरदारनी कहीं जाती तो कह जाती - देख चुलबुली , मैंने तेरे बच्चों को संभाला , अब तू भी इसे संभाल ।
मैं बैठी रहती उस बच्ची के सिरहाने , जब तक सरदारनी न आ जाती । इस घर की ख़ुशी ही मेरी ख़ुशी थी । पर , मुझे कालू की चिंता हरदम सताती । अरे , यह तो बताना ही भूल गई - एक रात सब गहरी नींद में थे । पर , हम जानवर तो रात में भी गहरी नींद कहाँ सोते है ? कुछ चोर रात के सन्नाटे में धीरे से छत पर चढ़े । कालू ने देखा , वह जोर - जोर से सरदारनी को दरवाजा भड़भड़ाकर जगाने लगा - मैं ss मैं ss ..... । मैं sss मैं sss .... करके तो मैं भी चिल्लाई बहुत जोर से । सरदारनी घबड़ाकर उठी और चोर भागे दुम दबाकर । सरदारनी बोली -
अरे , मेरा कालू तो बड़ा बहादुर है , वह बकरी का बच्चा नहीं , शेरनी का बच्चा है ।
मेरा मन छल - छल करने लगा - ' मेरा कालू ' ( अपनापन और संवेदना से भरा यह शब्द मरा नहीं है , वह जिन्दा है माँ के ह्रदय में ) । मुझे कालू के पिता की याद सताती ।
सरदार कड़क और निष्ठुर होता जा रहा था । कई लोग कालू को देखने , पूछने आने लगे थे ।
अब मैं रोज शाम टीले के पास जाती , कालू के पिता से मिलती । उसका प्यार भी दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था । शाम को लौटने पर हर रात बोझिल हो जाती । सुबह - सबेरे सरदार मुझे कालू के पास बैठा देखता तो कहता -
बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी ?
मुझे अब सरदार बैरी लगने लगा था ।
गोरा जब घर आता तो सरदारनी के मुख से स्नेह के फूल झरने लगते । सरदार भी उठकर पुत्तर - पुत्तर कहकर प्यार लुटाता । गोरा को तो मैं भी बहुत प्यार करती हूँ । मेरी आँखें सरदारनी की आँखों पर जा चिपकीं और कहतीं - मेरा कालू भी तो मेरे जिगर का टुकड़ा है , उसे न जाने देना सरदारनी ।
लोग सोचते हैं , चुलबुली तो बकरी है , जानवर है , उसे तो पत्ती खाना , दूध देना , बस इतनी ही तो है उसकी जिंदगी ! कष्ट होगा तो मिमयाने के सिवाय कर ही क्या सकती है चुलबुली ? पर , चुलबुली माँ है , यह क्यों नहीं सोचते लोग ? मैं कभी न जाने दूंगी अपने कालू को । मैं सरदारनी की संवेदनाओं को चीर दूंगी । सुबकने लगी थी मैं ।
सुबह सरदारनी ने नाश्ता बनाया , सबको खिलाया । आज तो मुझे गुड़ भी खिलाया और कबरी को भी । कालू भी लपक कर खा गया । वह मेरे थनों में अब भी मुंह मारता , दुलराता है । कबरी के सिर से सिर मिलाकर खेलता है । ऊंची - ऊंची पट्टियों पर चढ़ जाता है । पेड़ों की टहनियों से पत्तियां तोड़कर खाता है । कितना सुन्दर लगता है कालू , जब कबरी के साथ खट - खट सींग लड़ाकर खेलता है । मैं चक्की के दरवाजे पर चबूतरे में पसरी धूप में बैठकर विचारों को सेंकने लगी । तभी एक व्यक्ति आकर सरदार से कहने लगा - ला भई , अपना कालू , आज बकरीद का मेला है ।
मैं क्या देखती हूँ विस्फारित नजरों से , उसके साथ जो बकरा था , वह कालू का पिता था जिसे उसने खूब सजाया था , गले में सुन्दर - सुंदर मोतियों का पट्टा था , टीका लगा था । मेरा ह्रदय चीत्कार कर उठा । यह सरदार स्वार्थ और संकीर्णता की अँधेरी कुठरिया में बंद हो गया है । मैं उसकी स्वार्थ की अँधेरी कुठरिया की दीवार तोड़ देना चाहती थी , झिंझोड़ देना चाहती थी इंसानियत के खंडहर को । खोलकर दिखा देना चाहती थी अपने छलनी होते ह्रदय को । वह भी तो तड़पकर कसाई के हाथ से छूटकर मेरे पास भागने लगा । कसाई ने उसे चाबुक मारा और गले में बंधी रस्सी से उसे खींच लिया । मैं भाग जाना चाहती थी उसके साथ हिंसात्मक मेले से दूर , कहीं दूर । पर , सरदार ने मेरी आत्मा की आवाज नहीं सुनी , मुझे खूंटे से बाँध दिया । मेरे कालू को भी टीका लगाकर कसाई के साथ कर दिया , अच्छी रकम लेकर । मैं मिमयाती रही ...... । मेरी आँखों की कोरें बहते - बहते फटने लगीं पर , मैं खूंटे से बंधी थी । मैं सरदारनी से कहने लगी -
देख सरदारनी , तेरा गोरा और उसका पिता अब नहीं रहा ।
सरदारनी ने मेरा मुंह दबा दिया और मुझे खूंटे से छोड़ दिया ।
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डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'
(राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित)
दुबे कालोनी , कटनी 483501 (म. प्र.)
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सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

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हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
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सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

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