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Saturday 16 November 2019

शोध निदेशक (व्यंग्य आलेख) - डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल

शोध निदेशक  (व्यंग्य आलेख)
(व्यंग्य आलेख)
वे जाने माने शोध निदेशक थे.शोध निदेशक होते ही जाने माने हैं.अनजाना कैसा शोध निदेशक?इसलिए उनकी ख्याति दूर-दूर तक पददलित धरती पर इधर-उधर प्रस्फुटित पेड़ पौधों पर सुशोभित पत्ते-पत्ते पर आंधी की धूल सी पसरी पड़ी थी. उन्हें अपना उस्ताद बनाने और उनके प्रति समर्पित होने का अनुमोदन पत्र बनवाने के लिए दूर दूर से छठे हुए सूचित अनुसूचित पट्ठे उनके पास आते थे. क्यों ?अब इतनी समझ तो आप में भी होनी चाहिए .फिर भी बता देता हूं .वह हिंदी साहित्य के बहुचर्चित बुझे हुए दीपों को, शोध कार्य के माध्यम से दैदीप्यमान करने के लिए उत्सुक व समर्पित रहते थे. बस उन्हीं की तरह कर्तव्यनिष्ठ शोधार्थी मिल जाये. इससे उन्हें दोहरा लाभ होता था. लाभार्थी या उसके अशरीरी होेने की स्थिति में उसके परिजनों की स्नेहिल अनुकम्पा के अतिरिक्त शोधार्थी या उसके परिजन उन्हें तीज त्यौहार अनुसार नाना रूपों की नेगाभिव्यक्ति से लाभान्वित करते रहते थे. इससे वह भी स्वयं को सम्मानित व गौरवान्वित महसूस करते थे. 

उनकेेे शोधार्थियों में भारत शासन की विधि व्यवस्था के अनुरूप पुरुष और महिला दोनों ही वर्गों के विद्यार्थी आते थे. इनके साथ वह लिंगानुसार व्यवहार करने को अपना मौलिक अधिकार समझते थे. पुरुषों के लिए उनका व्यवहार नारियल के भारी आवरण की तरह कठोर था किन्तु महिलाओं के लिए वह नारियल की गरी जैसे थे. सुस्वादु ,पौष्टिक, लवण व ऊर्जादायी नमीयुक्त . पुरुषों के लिए शोध कार्य की सभी शर्तें अनिवार्य थीं किंतु महिलाओं के लिए ‘मैटरनिटी लीव’ की तरह, वह कुछ विशिष्ट सुविधाएं प्रदान कर देते थे. यह सुविधाएं केन्द्र व राज्य शासन की मंशानुरुप महिलाओं को आत्म निर्भर बनाने व अग्रिम पंक्ति में ला खड़े करने के महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही थीं. वह तो निमित्त मात्र थे.शासकीय योजनाओं से इतर उनकी अपनी कोई योजना या इच्छा नहीं थी.इस तथ्य का सार्वजनिक प्रदर्शन वह यक पुराने अंग्रेजी प्राध्यापक की तर्ज पर किया करते थे. 

वर्तमान युग अभिलाषाओं का युग है. अतः लाभ की आशा किसे नहीं होती? इसी आकांक्षा को मूर्त रूप देने के लिए वह पंजीयत शोधार्थियों को हड़काते रहते थे. अब ये भी न करते तो क्या करते? इसके शिकार अधिकांशतः वह शोधार्थी होते थे जिन्हें शोध से कोई लेना-देना नहीं होता और जो केवल शोध कार्य के नाम पर चार साल तक शासन से दस बीस हजार रुपये महीने का राजस्व लूटने या उपलब्ध अन्य सुविधाओं को जीमने के लिए अपना पंजीयन कराते थे. सरकार कुछ वर्गों को विशेष ध्यान रखती है इसलिए उनसे कहने सुनने वाला कोई नहीं होता, सिवाय शोध निदेशक जी के. 



वह शोध निदेशक थे. अपने जमाने में शोध उन्होंने भी किया था. तब से आज तक इस क्षेत्र में शोधात्मक गतिविधियों का कितना विकास हुआ, इसका पूरा चिट्ठा उनके भी पास था. जब भी कोई पट्ठा या पट्ठी शोध कार्य के लिए प्रकट होती, वह पहले दो-तीन महीने उससे शोध विषय पर गहन मंत्रणा करतेे. शोधार्थी जो भी सुझाता वह उसी बात को पुड़िया में लपेट कर उलझा देते. अर्थात् विषय की ऐसी तैसी चलती रहती थी.वह कुछ कहता निदेशक कुछ और. जैसे-तैसे उनके मध्य बड़ी मेहनत और विमर्श के बाद विषय पर फायनल ‘डील ’ होती क्योंकि शोध शीर्षक तय करने के लिए ही निदेशक महोदय बड़ी मेहनत करते थे. शोधार्थी के शीर्षक को बदलने-उलटने-पलटने के अतिरिक्त वह उसी के सामने मित्र निदेशकों से भी शोध शीर्षक के संबंध में गहन चर्चा करते थे. इससे उन्हें भावी योजनायें निर्धारित करने में बड़ी सहूलियत होती थी. 

वह शोधार्थी के वांछित शीर्षक को जितना बदलने की सामथ्र्य रखते थे, उतना तो बदल ही देते थे, शेष भाग को बदलने का कार्य विश्वविद्यालय की शोध समिति के सदस्य या आमंत्रित शोध विशेषज्ञ के भरोसे छोड़ देते थे. शोधार्थी यदि नई कविता पर शोध करना चाहता था तो विश्वविद्यालय की ओर से अंतिम स्वीकृति नई कहानी पर मिलती थी. फिर उसके बाद शुरू हो जाता था शोध निर्देशक के बेट-बेटियों की लघु कथाओं को संभालने सहेजने का महत्वपूर्ण कार्य. यों कुछ गैर ज़रूरी काम भी शोध कार्य में उसकी मदद करते थे जैसे-उनके घर की सब्जी लाना, जल संकट के समय दूर ट्यूबवेल से पानी भरना, राशन , पानी व्यवस्था करना, समय-समय पर लिम्का, कोकोकोला, बैगपाइपर सोड़ा जैसे वांछनीय-अवांछनीय पेय पदार्थों की पूर्ति करना आदि-आदि. 

जो यहां शोध निदेशक है, वे कहीं और शोध विशेषज्ञ का रूप धारण कर लेते हैं या कर सकते हैं अतः सभी शोध निदेशकों उर्फ शोध विशेषज्ञों में, पक्ष-विपक्ष के नेताओं की तरह, अलिखित किन्तु मान्यता प्राप्त गुप्त संधि कायम रहती है. इसके तहत शोध ग्रंथ पर अभिमत और मौखिक परीक्षण जैसे क्रियाकर्म शोध ग्रंथ के मृत शरीर के ऊपर से पिछला कर्जा उतारने के बाद ही संभव होते हंै. इसके बाद ही शोध शव को चिता पर लिटाया जाता है. मुखाग्नि लंच या डिनर रुपी ब्रम्ह-भोज पर आधारित होती है ,सद्भावना रूपी लिफाफे युक्त कपाल क्रिया के साथ. 

यों बीसवीं सदी में शोध कार्य शोध निदेशकों की उदारता अनुकंपा पर निर्भर था. किंतु इक्कीसवीं सदी के शोधार्थियों को अर्जुन या अभिमन्यु की तरह वीर पुत्र मानना चाहिए. कैसे पूरा करते हैं शोधकार्य? इसी पर शोध कार्य होना चाहिए. मैं तो तैयार हूं, क्या कोई वास्तविक विश्वविद्यालय को ईमानदार कुलपति मुझे इसकी अनुमति देगा?
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पता:
डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल 
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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