विजयादशमी महापर्व है,सिया राम जी के गान का।
जीते बुराई पर अच्छाई,मिटे रावण के अभिमान का।
बुराई कितनी भी प्रबल हो,जरूर एक दिन अंत होता।
जलती फिर सोने की लंका,रावण राज का हंत होता।
कितने यत्न किये प्रभु राम ने,थे रावण को समझाने के।
पर अधमी इक बार न समझा,संकट अपने घराने के।
गलती पर गलती रावण की,उसके अपनों का काल बनीं।
मेघनाद कुम्भकरण जैसे,बलिदानियों का सवाल बनीं।
एक-एक करके रावण के,सब प्रियजन उससे दूर हुए।
सीता हरण के कारण ही,सब मरने को मजबूर हुये।
पर स्त्री हरण कुकृत्य ने उसका,
रावण साम्राज्य मिटा दिया।
त्रिलोक विजेता अभिमानी को,उसके घमंड ने गिरा दिया।
मृत्यु से बचने को उसने, सब उथल पुथल कर डाला था।
ग्रह नक्षत्रों की स्थितियों को, जबरदस्ती बदल डाला था।
पर प्रकृति विरोधी उसके,दुष्कृत्य ने उसे बचा न पाया।
सर्वेश्वर ने सब विधान कर,अंततः उसे मृत्यु से मिलवाया।
रावण का अंत बताता है,प्रभु से न कोई बच पाता है।
अपने कर्मानुसार फल यहाँ,दीपक जरूर जन पाता है।
रामायण, रामचरित मानस,ग्रंथों का यह सुन्दर सार है।
बाल्मीकि,हनुमत,तुलसी का,यह हमकोअनुपम उपहार है।
रजनीश मिश्र 'दीपक' खुटार शाहजहांपुर उप्र
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