फूट रही हैं कोंपले
डाली से टूट कर
चरण में पड़ी हैं
पीली पत्तियाँ
मिट्टी के गर्भ में
दबे पड़े हैं बीज
अंकुरित होने की प्रतीक्षा में
पेड़ निर्विकार भाव से
संभाले खड़ा है अस्तित्व अपना।
दूध का ऋण
(लघुकथा)
एक बूढ़ी मां गिलास लेकर दूध लेने गयीं, साथ में ₹20 भी रखी थीं। गिलास और रुपए देते हुए संदीप से बूढ़ी मां बोली-" बेटा, आज दूध वाला आया नहीं, दवाई खाना है दूध दे दो।"
संदीप मां के हाथ से गिलास और ₹20 ले ही रहे थे तभी संगीता बोली- "दूध... दूध... दूध कहां है? आज तो दूध बिल्ली पी गई ।" बूढ़ी मां दबे पांव खाली हाथ वापस चली आयीं।
उस घर मैं नई नवेली बहू स्मृति को आये सिर्फ दो दिन हुए थे ।उसने अपनी सास से बोली-" मां वह बुढ़िया कौन है?
" वो बुढ़िया मेरी सास हैं । अपने छोटे बेटे के पास रहती है।"
" मां दूध तो घर में था पर आप झूठ क्यों बोली ।"
"बहू तुम अभी इतनी जल्दी नहीं समझ पाओगी । उन बुढ़िया को एक बार कहीं दूध दे दूं न, तो रोज आएगी। फिर तुम भी परेशान हो जाओगी । इसलिए मुझे तो जब भी कुछ मांगने आती है तब मैं कोई न कोई बहाना बना देती हूं।" बड़े रौब से संगीता बहू से बोली। जैसे कोई घर का गूढ़ रहस्य बता रही हो।
दूसरे दिन संगीता ने स्मृति से कहा-" बहू दूध दे दो मुझे दवाई खाना है तब प्रतिउत्तर में स्मृति बोली-" मां दूध तो खत्म हो गया...!"
"दूध खत्म हो गया...! अभी अभी तो दूध था कहां चला गया? " मां मैं दूध दादी मां को दे आई। आपसे ज्यादा दूध की जरूरत उनको है।"
"उस बुढ़िया को दूध क्यों दे आई?"
"मां मेरी धृष्टता क्षमा करें ।यदि दादी मां नहीं होती तो उनके बच्चे अर्थात मेरे ससुर जी नहीं होते और जब ससुर जी नहीं होते तो आप किसके लिए आती। एक बात और... आप दोनों नहीं होते तो मेरे पति देव कहां से पैदा होते । जब वे पैदा नहीं होते तो मेरे यहां आने का अर्थात आपकी बहू होने का प्रश्न ही नहीं होता इसलिए इस घर के मूल में दादी मां हैं वे सर्वश्रेष्ठ हैं। हमें उनका सम्मान करना चाहिए। बरामदा में बैठे हुए संदीप के कानों में स्मृति की बात पड़ी तो उनका दिल धक् धक् करने लगा कि वाकई में बहू सत्य बात कह रही है। फिर वह अपने अंतर्मन की वेदना सबके सामने उड़ेल दिया "तुम ठीक कहती हो बहू ! तुमने मेरी आंखें खोल दी। मां का उपकार एक जनम क्या सात जनम में भी नहीं चुका सकता।" कहते हुए संदीप की आंखें गीली हो गई ।उन्होंने पुन: कहा-" मां ने मुझे 9 महीने गर्भ में रखा, अपने स्तन का पान कराया, शिशुपन से पाला -पोषा संभाला, बड़ा किया। उसके बदले मैंने दुख ,संताप, पीड़ा के अलावा और क्या दिया। मैं तो मां को एक कप दूध तक नहीं दे सकता। मैं कितना क्रूर हूं, पापी हूं, नालायक हूं।" कहते हुए एक बार पुन संदीप रो पड़ा । फिर कहा-" मैं अपने शरीर से चाम निकालकर मां के लिए जूती बना दूं तो भी उनके दूध के ऋण से उऋण नहीं हो सकता ।"
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पता
दिनेंद्र दास
बालोद (छत्तीसगढ़)
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