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Friday, 6 November 2020

अस्तित्व (कविता) - ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'

अस्तित्व
(कविता)
शिखर पर
फूट रही हैं कोंपले
डाली से टूट कर
चरण में पड़ी हैं
पीली पत्तियाँ
मिट्टी के गर्भ में
दबे पड़े हैं बीज
अंकुरित होने की प्रतीक्षा में
पेड़ निर्विकार भाव से
संभाले खड़ा है अस्तित्व अपना।
-०-
पता-
ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
सिरसा (हरियाणा)
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💐💐शक्ति नहीं, शक्ति पुँज हैं हम💐💐 (आलेख) - राजकुमार अरोड़ा 'गाइड'

 

💐💐शक्ति नहीं, शक्ति पुँज हैं हम💐💐
(आलेख)
मनुष्य की शक्ति का एहसास स्वयं उसके सिवा और कौन कर सकता है?अपने अन्दर की ऊर्जा को तभी  जान  पायेंगे,जब  आप उमंग से भर कर कुछ नया करने की ठान लेंगे।विभिन्न वैज्ञानिकों ने बहुमूल्य खोजों से जहाँ जीवन को इतना आसान बना दिया उसके पीछे उनके अंतर्मन की शक्ति थी,जो एक शक्ति पुंज के रूप में उभरी और वो कर दिखाया जो कभी सबकी कल्पना से परे की बात थी।आज जल,थल,नभ, अंतरिक्ष पूरे ब्रह्मांड में मनुष्य ने अपना अधिपत्य सा जमा लिया है। यह सब तभी तो सम्भव हुआ जब उसने अपने अन्दर की उस शक्ति को पहचाना,जिसे केन्द्रबिन्दु में रख कर परमात्मा ने मनुष्य का निर्माण किया था।
शक्ति एक एहसास है, एक आभास है, अपने सम्पूर्ण होने के गर्व का,अधूरापन तो टूटन का ही प्रतीक है, उसको हर हाल में,पूरा करने के प्रयास में जुटे रहकर विजय पा कर ही दम लेना है। हम में से कोई भी अपनी आंतरिक शक्ति के बल पर दिखने  में अशक्त होते हुए भी बड़ी चुनौती को पार कर एक अलग ही नया इतिहास रच सकता है। अधिक दूर क्योँ जायें,हमें तो हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसी आंतरिक  शक्ति के बल पर ब्रिटिश साम्राज्य से  टक्कर ले भारतमाता को स्वाधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराया। हमें स्वयं को सदा यही विश्वास दिलाना है कि हमें समस्याओं के सही समाधान हेतू व आजीवन सुखी रह कर, अद्भुत, अभूतपूर्व,आसाधारण जिन्दगी जीने के लिये बनाया गया है।अपने विचारों व भावनाओं के द्वारा ही हम अपने आसपास सकारात्मकता या नकारात्मकता का वातावरण बना देते हैं।
केवल एक शब्द  ही हमें जीवन के सारे बोझ व दर्द से मुक्ति दिला देता है,वह शब्द है-प्रेम,हमारे मन मे जो भी बनने, करने या पाने की प्रबल इच्छा है, वह प्रेम की वजह से ही उतपन्न होती है।यह प्रेम व्यक्तिगत या आपसी भी हो सकता है,देश या धर्म के प्रति भी।यही प्रेम ही तो शक्ति के रूप में प्रस्फुटित होता है। यही  कुछ कर गुजरने के हमारे इरादे को मज़बूत कर हर हाल में सफलता की ओर अग्रसर करता है-"बांधे जाते इंसान कभी,तूफान न बांधे जाते हैं।
काया जरूर बांधी जाती, बांधे न इरादे जाते हैं।।
यही इरादा ही मंजिल तक ही पहुंचा देता है।कामयाबी की नई इबारत लिख देता है। हमें तो बस यही करना है,जटिलता में सरलता खोजें,विवाद में सद्भाव खोजें,अवसर तो वास्तव में मुश्किलों के बीच में ही छिपा होता है।यदि हम अनावश्यक छोटी छोटी  बातों को ज्यादा महत्व देंगें तो न अच्छा महसूस कर पाएंगे,न ही कुछ नया रच पायेंगे।कोई भी चीज़ अच्छी या बुरी नहीं होती,सिर्फ हमारी सोच ही उसे वैसा बना देती है।हमें तो अपनी सोच  में परिवर्तन कर स्वयं को शक्ति का प्रतीक बन यह एहसास कराना है--"हम उफनती  नदो हैं, हमको अपना  कमाल मालूम है। जिधर भी चल देंगे,रस्ता अपने आप बन जायेगा।जायेगा।"
रूद्रावतार संकटमोचक हनुमानजी को विशाल शक्ति पुंज होते हुए भी,हज़ार योजन का समुन्द्र लांघने के समय नल नील जामवंत आदि को उनकी महान शक्तियों का,जो किसी श्राप के कारण उनको विस्मृत थीं, याद दिलानी पड़ी थी।आज हम भारतीयों को फिर से अपने प्राचीन गौरव को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अपनी शक्तियों का स्मरण करना होगा ,ऐसे हालात में जब पूरा विश्व एक महामारी के संकट से जूझ रहा है।
विश्व में कोरोना संक्रमितों के लगातार बढ़ने से  परिस्थिति भयावह हो रही हैं, काल का ग्रास बनने वालों की संख्या भी बढ़ रही है,सन्तोष की बात यही है कि उपचार के बाद ठीक होने वालो की संख्या में भी दिन प्रतिदिन इज़ाफ़ा हो रहा है। भारत में तो यह प्रतिशत विश्व की दर से कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में है।संक्रमितों की संख्या भी अब कम गति से बढ़ रही है।चीन से उपजी इस महामारी के आगे अमेरिका,रूस, स्पेन,जापान,ब्रिटेन,फ्रांस,जर्मनी,ब्राज़ील आदि महाशक्तियों ने  इस के आगे घुटने टेक दिये हैं।विदेशों में भी कुछ समय संक्रमितों की संख्या में कमी आने के बाद फिर बढ़ रही है। ऐसा ही अब भारत में भी हो रहा है।
कोई निदान न मिलने के कारण पहले  सब अपने अपने घरों में पूरी तरह कैद थे,अब अनलॉक की स्थिति में व्यापारिक गतिविधियां,आवागमन,कार्यस्थल आदि खुलने से राहत मिली है तो थोड़ी सी लापरवाही से आफ़त बढ़ने की भी पूरी उम्मीद है।कुछ असुर प्रवर्ति के लोगों की नासमझी के कारण हालात भयावह होते जा रहे हैं,प्रशासन पूरी ताकत व ऊर्जा के साथ सामना करने में जुटा है,अतीत में,भारत ने विश्वगुरू बन कर पहले भी गौरव अर्जित किया है,अब भी कुछ वैसा ही करना होगा!
अब सभी को एक शक्ति का स्त्रोत बन कर जूझते हुए विजय पानी है,अपनी शक्तियों का फिर नये सिरे से स्मरण कर,शक्तिपुंज बन,नया इतिहास ही रच देना है,हम में वो शक्ति है,हम में वो शक्ति है,हम ऐसा कर सकते हैं,कर के रहेंगे,करना ही है।
"कौन कहता है,आसमां में छेद नहीं हो सकता, एक  पत्थर  तो तबीयत से  उछालो  यारो!" तबीयत से उछाला गया यह पत्थर एक नए युग का सूत्रपात करेगा।उठो,जागो,इस बार युद्ध क्षेत्र में नहीं, कर्तव्य निर्वाह के लिये बहुत जरूरी होने के अतिरिक्त घर में ही डटे रह कर,आने वाली पीढ़ियों के लिये एक नया विलक्षण और अनुपम इतिहास रच दो!
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पता: 
राजकुमार अरोड़ा 'गाइड'
बहादुरगढ़(हरियाणा)


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दूध का ऋण (लघुकथा) - दिनेंद्र दास

  

दूध का ऋण
(लघुकथा)

एक बूढ़ी मां गिलास लेकर दूध लेने गयीं, साथ में ₹20 भी रखी थीं। गिलास और रुपए देते हुए संदीप से बूढ़ी मां बोली-" बेटा, आज दूध वाला आया नहीं, दवाई खाना है दूध दे दो।"

संदीप मां के हाथ से गिलास और ₹20 ले ही रहे थे तभी संगीता बोली- "दूध... दूध... दूध कहां है? आज तो दूध बिल्ली पी गई ।" बूढ़ी मां दबे पांव खाली हाथ वापस चली आयीं।

उस घर मैं नई नवेली बहू स्मृति को आये सिर्फ दो दिन हुए थे ।उसने अपनी सास से बोली-" मां वह बुढ़िया कौन है?

" वो बुढ़िया मेरी सास हैं । अपने छोटे बेटे के पास रहती है।"

" मां दूध तो घर में था पर आप झूठ क्यों बोली ।"

"बहू तुम अभी इतनी जल्दी नहीं समझ पाओगी । उन बुढ़िया को एक बार कहीं दूध दे दूं न, तो रोज आएगी। फिर तुम भी परेशान हो जाओगी । इसलिए मुझे तो जब भी कुछ मांगने आती है तब मैं कोई न कोई बहाना बना देती हूं।" बड़े रौब से संगीता बहू से बोली। जैसे कोई घर का गूढ़ रहस्य बता रही हो।

दूसरे दिन संगीता ने स्मृति से कहा-" बहू दूध दे दो मुझे दवाई खाना है तब प्रतिउत्तर में स्मृति बोली-" मां दूध तो खत्म हो गया...!"

"दूध खत्म हो गया...! अभी अभी तो दूध था कहां चला गया? " मां मैं दूध दादी मां को दे आई। आपसे ज्यादा दूध की जरूरत उनको है।"

"उस बुढ़िया को दूध क्यों दे आई?"

"मां मेरी धृष्टता क्षमा करें ।यदि दादी मां नहीं होती तो उनके बच्चे अर्थात मेरे ससुर जी नहीं होते और जब ससुर जी नहीं होते तो आप किसके लिए आती। एक बात और... आप दोनों नहीं होते तो मेरे पति देव कहां से पैदा होते । जब वे पैदा नहीं होते तो मेरे यहां आने का अर्थात आपकी बहू होने का प्रश्न ही नहीं होता इसलिए इस घर के मूल में दादी मां हैं वे सर्वश्रेष्ठ हैं। हमें उनका सम्मान करना चाहिए। बरामदा में बैठे हुए संदीप के कानों में स्मृति की बात पड़ी तो उनका दिल धक् धक् करने लगा कि वाकई में बहू सत्य बात कह रही है। फिर वह अपने अंतर्मन की वेदना सबके सामने उड़ेल दिया "तुम ठीक कहती हो बहू ! तुमने मेरी आंखें खोल दी। मां का उपकार एक जनम क्या सात जनम में भी नहीं चुका सकता।" कहते हुए संदीप की आंखें गीली हो गई ।उन्होंने पुन: कहा-" मां ने मुझे 9 महीने गर्भ में रखा, अपने स्तन का पान कराया, शिशुपन से पाला -पोषा संभाला, बड़ा किया। उसके बदले मैंने दुख ,संताप, पीड़ा के अलावा और क्या दिया। मैं तो मां को एक कप दूध तक नहीं दे सकता। मैं कितना क्रूर हूं, पापी हूं, नालायक हूं।" कहते हुए एक बार पुन संदीप रो पड़ा । फिर कहा-" मैं अपने शरीर से चाम निकालकर मां के लिए जूती बना दूं तो भी उनके दूध के ऋण से उऋण नहीं हो सकता ।"
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पता
दिनेंद्र दास
बालोद (छत्तीसगढ़)

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मेरे हमसफ़र (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा


मेरे हमसफ़र 
(कविता)
मैं ओर तुम,
कभी इक दूजे से अनजान,
ना जान ना पहचान,
किन शब्दों में करूँ बयान।

अब ये रिश्ता,जन्म जन्म का,
सजनी सजन का,
रब ने गढ़ा तुम्हें मेरे लिए,
सोंप दी तुम्हें,
जीवन की डोर,सदा के लिए।
ना करना कभी विश्वासघात,
करती हूँ अटूट विश्वास,
चलेंगे साथ साथ,
तय करने को जहाँ के फ़ैसले,
पस्त ना होने देंगे होसले,
भले ढा ले सितम समय हम पर,
दिखा कर अदम्य साहस ,
होसलों की उड़ान,
थकना नहीं है हमें,
रख कर होंठों पे मुस्कान,
चलते रहेंगे  हाथ थाम कर,
मनाते रहेंगे,शादी की वर्षगाँठ,
ना आने देंगे आँच,
दोड़ते रहेंगे,मिला क़दम से क़दम,
ए मेरे दोस्त,मेरे हमदम।
कहना चाहती हूँ ,एक मन की बात ,
कोई बात बिगड़ने से पहले,
थाम लेना मेरा हाथ,
रहेंगे हम साथ साथ,
इस जन्म ,उस जन्म,हर जन्म,
ए मेरे हमसफ़र, मेरे हमदम।
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पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
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