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Wednesday 2 December 2020

ऑनलाइन: तब और अब (आलेख) - कमलेश व्यास 'कमल'

  

ऑनलाइन: तब और अब
(आलेख)

सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने एक डायलॉग किसी फिल्म में बोला था जो इस प्रकार है - "हम जहाँ खड़े होते हैंलाइन वहीं से शुरू होती है।" सोचो अगर यही डायलॉग समर्थ अभिनेता ए. के. हंगल साहब ने बोला होता तो कैसा लगता..खैर ...बात यह नहीं हैयह तो यूँही परिहास में लिख दिया। हंगल साहब उच्च कोटि के अभिनेता थेउन्होंने जो डायलॉग बोले हैं वे अमिताभ बच्चन के द्वारा कहने पर निश्चित ही उतने प्रभावशाली ना लगें। सबका अपना एक दायरा होता हैदिशा होती है,लकीर होती है,इसीलिए तो कई लोग लकीर के फकीर होते हैं...! लकीर को लाइन भी कहते हैं और सबकी अपनी-अपनी लाइन होती है। अमिताभ बच्चन ने जिस लाइन की बात कही थी वह ज़मीन से जुड़ी हुई लाइन थीजिसे वे ज़मीन पर खड़े होकर बोले थेपरंतु ज़माना बदल चुका हैअब तो जिसे देखो वह ऑनलाइन है...! लेकिन यह लाइन वह लाइन नहीं जो बच्चन साहब की थी,यह तो वह लाइन है जिसमें अमिताभ बच्चन खुद कहीं न कहीं ऑनलाइन रहते हैं...और यह लाइन जमीनी नहींहवा-हवाई है...!!

बच्चन साहब ही क्याआजकल तो जिसे देखो वह ऑनलाइन दिखाई पड़ता है...मंत्री से लेकर संत्री तक,बिजनेसमैन से लेकर कॉमनमैन तकव्यापारीनेताअभिनेताखिलाड़ीअनाड़ीजिसे देखो वह ऑनलाइन दिखाई देता है...!! बुद्धिजीवीसाहित्यकारकवि,शायरयत्र-तत्र सर्वत्र ऑनलाइन दिखाई पड़ते हैं...कुछ लोग तो सुबह से लेकर देर रात तक ऑनलाइन दिखाई पड़ते हैं...!! पता नहीं ये लोग नित्यकर्म कब,कैसे,कहाँ करते होंगे..?

हमारे यहाँ जितने भी न्यूज चैनल्स हैंउन सब पर कुछ चेहरे इतने कामन हैं कि आप जब भी न्यूज देखने बैठोउन चेहरों में से कोई न कोईकिसी न किसी न्यूज चैनल पर ऑनलाइन डिबेट करता हुआ दिख ही जाएगा...!! उनकी बौद्धिक क्षमता कितनी हैयह तो मुझ जैसा मूढ़ नहीं बता पाएगा पर उनके धैर्य को नमन करने का मन जरूर करता है...!

वास्तविकता में रचनात्मक और साहित्यिक गतिविधियाँ शायद उतनी नहीं होती होगीजितनी आजकल ऑनलाइन होने लगी है। ऑनलाइन एकल रचना पाठऑनलाइन कवि गोष्ठी,ऑनलाइन कवि सम्मेलन इत्यादिफेसबुक एवं वाट्सएप पर ग्रुप बनाकर इस तरह की गतिविधियों की धूम मची हुई है। अच्छा हैकम ज कम इसी बहाने रचनात्मक सक्रियता तो बनी रहती है...अपनी वे रचनाएँ जिन्हे कई संपादकों द्वारा "रिजेक्शन" का "सर्टिफिकेट्स" मिल चुका हैउसे रचनाकार ऑनलाइन बेझिझक सुना तो सकता है...जिससे उस रचनाकार के रचनाकर्म में किए गए परिश्रम का पारिश्रमिक स्वयं की मानसिक संतुष्टि के रूप में मिल जाता है...!!

खैरयह तो एक छोटा सा उदाहरण है...देखा जाए तो क्या नहीं हो रहा है आजकल ऑनलाइन...चैटिंगडैटिंग,शापिंग से लेकर शादी-ब्याह तकसब कुछ ऑनलाइन हो रहा है...अब तो मरने पर दाह संस्कार भी ऑनलाइन होने लगा है...!! लब्बेलुआब यह कि आजकल 'जीवन,मरण,परण,सब कुछ ऑनलाइन होने लगा है...! घर में राशन नहीं हैऑनलाइन मँगवा लीजिए...अजी राशन को मारो गोली...ऑनलाइन मँगवा भी लो पर पकाना तो पड़ेगा...इसलिए सीधा पका पकाया मँगवाइए...बिल चुकाया,आयाखायाडकारा और सो गए...!!    हाँ यह माना कि ऑनलाइन के द्वारा वर्तमान समय में बहुत कुछ अच्छा भी हो रहा हैदूर देश में रह रहे अपने बच्चोंपरिजनों से रूबरू वार्तालाप हो जाता है। माता-पितानाते-रिश्तेदारों को चैन व सुकून मिल जाता है। ऑनलाइन आवेदन,ऑनलाइन शिक्षण-प्रशिक्षण,निरिक्षणसाहित्यकारों,कवियों,कलाकारों को एक मंच मिल जाता है। आलोचकों,समीक्षकों द्वारा समय-समय पर मार्गदर्शन मिल जाता है...कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि समीक्षकोंआलोचकों से मार्गदर्शन..तो भैया इनकी कही बातों को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखोगे तो मार्गदर्शनअन्यथा मगज घर्षण...!! अपना-अपना नजरिया है...खैर। जरूरतमंदों को अपनी जरूरत का सामान मुहैया हो जाता है।

फास्ट फूड वालों को फास्ट फूडड्राय फूड वालों को ड्राय फूडभोजन की कामना रखने वालों को पका पकाया भोजन...इतना सब कुछ होने के बावजूद भी विश्व भर के वैज्ञानिक अभी वह उपलब्धि हासिल नहीं कर पाएजहाँ ऑनलाइन के माध्यम से मनुष्य को भूख लगने पर सीधा पेट भर जाए...!! जबकि हमारे ऋषि,मुनि,योगाचार्य सदियों पहले इस उपलब्धि को पा चुके थे। 'योगकुण्डल्युपनिषद्' , 'घेरण्ड संहिताऔर इन जैसी अन्य पुस्तकों में इस विषय पर विस्तार से वर्णन है।  'खेचरी मुद्राऔर इस जैसी अन्य क्रियाओं द्वारा हमारे महान ऋषियोंमुनियोंयोगाचार्योंतपस्वियों ने अपने तपोबल और योगबल से जो उपलब्धियाँ प्राप्त की थी वह सब आज भी लिपीबद्ध हैपरंतु आज उन्हें क्रियान्वित करने की क्षमता शायद ही किसी में हो...वे योगी अपने योगबल से विभिन्न स्वादों का रसास्वादन कर अपनी क्षुधा शांत कर लिया करते थे,सशरीर तीनो लोकों में भ्रमण कर आते थेऔर आज...आजकल तो योग भी ऑनलाइन कियाकरवाया जा रहा है...!

आज हमें ऑनलाइन होने के लिए मोबाइललेपटॉपकंम्प्यूटर इत्यादि साधनों की आवश्यकता पड़ती है परंतु उन मनीषियों ने तो अपने तपोबल,योगबल साधना से अपने  शरीर को ही  ऑनलाइन कर रखा थाजो एक साधारण मनुष्य न तब कर सकता था न अब...क्योंकि योग की यह कठोर साधना अत्यंत दुर्लभ है। परंतु यमनियमसंयम द्वारा फूल नहीं पाँखुरी तो हासिल की जा सकती है...चाहे ऑनलाइन ही सही...!! 

-०-
कमलेश व्यास 'कमल'
उज्जैन (मध्यप्रदेश)

-०-




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जीवन रिश्तों का मेला (कविता) - प्रशान्त कुमार 'पी.के.'

 

जीवन रिश्तों का मेला
(कविता) 
जीवन रिश्तों का मेला है,
फिर भी हर कोई अकेला है।
हैं अपने अपने में ही व्यस्त,
इस धरा पे ठेलम ठेला है।।
जीवन रिश्तों का मेला है....

पितु-मातु, सखा और भाई-बहन
पति - पत्नी से रिश्ते हैं जग में।
जीवन भर हमारे साथ चले,
पर भूले जब हम चले जग से।।
तब संग न गुरु और चेला है....
जीवन सुख दुख का मेला है...

चोरी, बेईमानी, हिंसा, असत्य,
खुद में मानवता ही रखना।
मानवता की खातिर जीते हुए,
पग पग पर प्रभु का भजन करना।।
जगत स्वप्न है करम का खेला है।।

फिर भी हर कोई अकेला है।।
जीवन रिश्तों का मेला है।।
-०-
पता -
प्रशान्त कुमार 'पी.के.'
हरदोई (उत्तर प्रदेश)
-०-

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🙏स्त्री भृण की गुहार🙏 (कविता) - डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया

 

🙏स्त्री भृण की गुहार🙏
(कविता )
हे प्रभु ! बताओ मेरा क्या दोष है ?
मुझ भृण को गर्भ में क्यों मारते हैं ?
मैंने किसका क्या बिगाड़ा है ?
जो भृण को निर्मम काँटते हैं ?

मुझे काँटते वक्त हाथ व हृदय
उनके क्यों कंपित नहीं होते हैं?
रूह और आँखों के करुणा-बादल
क्यूं इतना शुष्क  होते हैं ?

प्रभु भृण कन्या के नाम से क्यों
परिवार में कालिमा छा जाती है ?
और लड़के के नाम से क्यों सबके
चेहरे पर लालिमा छा जाती है ?

प्रभु तेरी सिंचित संवेदना धार
कहाँ और क्यूँ मोड़ गई ?
तेरी कोमल मानवीयता
क्यूं स्वार्थ में साथ छोड़ गई ?

हे प्रभु ....!
जहाँ नहीं है करुणा,संवेदना
वहाँ मत भेजो तुम उपहार !
जहाँ है दया प्रेमभाव, संवेदना
वहाँ नहीं है क्यूँ तेरा उपकार !!

जहाँ नहीं है बेटियों का सम्मान
उसी गोद में मत डालो फूल ।
चाहे वह हो राजा या रंक ,
भुगतने दो उसके कर्म शूल ।।

संसार में कोमल कुसुम सी कन्या
प्रभु तेरा अनुपम उपहार !
व्यर्थ पुत्र मोह में  माता-पिता
क्यों नहीं करते बेटी को उरहार !!

जहाँ हो समभाव की मानवता,
जहाँ हो नारी मन की पावनता ,
जहाँ हो देवियों सा मान सम्मान ,
वहाँ हो प्रभु तेरी कृपा का दान ।।
-०-
पता:
डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया
सौराष्ट्र (गुजरात)

-०-

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बेघर मजदूर (ग़ज़ल) - डॉ० धाराबल्लभ पांडेय 'आलोक'

 

बेघर मजदूर
(ग़ज़ल)
आज बेघर है दु:खी मजदूर है।
भूख से कैसे बचे मजबूर है।।

कौन विपदा से बचाए भूख से। 
आज पैदल ही भटकता दूर है।।

घर कहीं बच्चे कहीं असहाय के।
भूख से व्याकुल मगर मजबूर है।।

दूर बच्चों से तड़पता आज है।
बेबसी में आज थक कर चूर है।।

दीन की हर साँस पर जो रो पड़े।
अब दयासागर कहाँ क्यों  क्रूर है।।

छोड़ सब दौड़े चले आता  कभी।
आज वह भी क्यों बना मद चूर है।।

हे दयामय! अब शरण में हैं सभी।
आज तू ही बस  उन्हें मंजूर है।।
-०-
डॉ० धाराबल्लभ पांडेय 'आलोक'
अध्यापक एवं लेखक
अल्मोड़ा (उत्तराखंड)


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