जीवन रिश्तों का मेला
(कविता)
फिर भी हर कोई अकेला है।
हैं अपने अपने में ही व्यस्त,
इस धरा पे ठेलम ठेला है।।
जीवन रिश्तों का मेला है....
पितु-मातु, सखा और भाई-बहन
पति - पत्नी से रिश्ते हैं जग में।
जीवन भर हमारे साथ चले,
पर भूले जब हम चले जग से।।
तब संग न गुरु और चेला है....
जीवन सुख दुख का मेला है...
चोरी, बेईमानी, हिंसा, असत्य,
खुद में मानवता ही रखना।
मानवता की खातिर जीते हुए,
पग पग पर प्रभु का भजन करना।।
जगत स्वप्न है करम का खेला है।।
फिर भी हर कोई अकेला है।।
जीवन रिश्तों का मेला है।।
-०-
पता -
प्रशान्त कुमार 'पी.के.'
हरदोई (उत्तर प्रदेश)
-०-
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