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Friday 1 November 2019

उल्लू जी से विनय (मुक्तक कविता) - कुँवर वीर सिंह 'मार्तण्ड'


उल्लू जी से विनय
(मुक्तक कविता)
इस बार ज्योंही
दीपावली के दिए जले
हम सपनों के पंख लगा कर
उल्लू से जाकर मिले
अभी जगे ही थे
नित्य क्रिया में लगे ही थे
रात हुई
बात हुई
हमने कहा -
भैया जी सुनो
अबकी बार कुछ नया रास्ता चुनो
तुम जहां जहां लक्ष्मी को ले जाओगे
वही तो जाएंगी
और क्या पैदल चल पाएंगी
जिन जिन पर उनकी कृपा होती है
वे खुशियों में डूब जाते हैं
और
गरीबों को आप का पट्ठा बताते हैं
इस बार करो एक काम
जातिवादी बनकर
कमा लो कुछ नाम
सारे नेतागण
यही तो कर रहे हैं
कुर्सियों पर बैठ कर
अवसरवाद की घास कर रहे हैं
जैसा देश वैसा भेष
ना कोई झगड़ा ना कोई क्लेश
और फिर तुम तो ठहरे
अंधेरे के सौदाई
प्रकाश से क्या काम है भाई
इस बार 
लक्ष्मी जी की बात पर ना जाइए
हमारी तंग अंधेरी
गलियों की तरफ आइए
जब हम गरीबी से निजात पाएंगे
दोनों समय रोटियां खाएंगे
आपके गीत गाएंगे
-0-
कुँवर वीर सिंह 'मार्तण्ड'
डी-1, 94/ए, पश्चिम पुटखाली, मण्डल पाड़ा,
पोस्ट : दौलतपुर वाया विवेकानंद पल्ली, कोलकाता- 700139
-0-

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दो लघुकथाएँ (लघुकथा) - गोविन्द शर्मा

पक्की छत्त
(लघुकथा)
वे पूरे पांच साल बाद उस बस्ती में वोट मांगने आये। कच्ची झौंपड़ियों में रहने वाले लोग उनके सामने घेर कर लाये गये थे। उन्होंने कहा- वह दिन दूर नहीं, जब तुम सबके सिर पर पक्की छत्त होगी...।
अभी वे अपनी बात पूरी नहीं कर पाए थे कि एक बोल पड़ा- यह वादा तो आपने पांच साल पहले भी किया था।
मैं भूला नहीं हूं। दो साल पहले मैंने इस पर काम भी षुरू कर दिया था। तुम्हें याद होगा, दो साल पहले मैंने तुम्हारी झौंपड़ियों के पास से निकलने वाले फ्लाई ओवर का शिलान्यास किया था। जब वह बनकर तैयार हो जायेगा, तब उसके ऊपर तो दूसरे लोगों की गाड़ियां फर्राटा भरेंगी, पर उसके नीचे तो तुम्हारी आबादी ही रहेगी। वह छत्त इतनी पक्की होगी कि उसका आंधी-तूफान तो क्या भूकंप भी कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। बजाओ ताली....।
-०-
खोया वक्त
(लघुकथा)
सेवानिवृत्त बालाजी काफी देर से कुछ ढंूढ रहे थे। शायद चश्मा, कोई पुरानी किताब या आज का अखबार। उन्हें वह वक्त याद आने लगा, जब वे घर में नोटों की गड्डी लेकर आया करते थे। उन दिनों उनके मुंह से निकलता- ‘अरे मेरा चश्मा कहां है’ तो कई आवाजें एक साथ सुनने को मिलती। जैसे- मैं देखती हूं, मैं लाकर देता हूं, वह रहा दादू आदि आदि। अब वे कुछ भी कहें ,कोई नहीं सुनता। आज भी यही हो रहा था तो मोबाइल पर झुके एक पोते ने पूछ लिया- क्या ढूंढ रहे हो दादू?
उन्होंने तलाश जारी रखते हुए कहा-अपना खोया हुआ वक्त ढूंढ रहा हूं।
पता नहीं, पोते ने सुना या अपनी ही धुन में कहा- दादू, आराम से बैठो। खटपट बंद करो। इस उम्र में खोई हुई चीजें मिलती नहीं है।
-०-
गोविन्द शर्मा
ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया - 335063
जिला हनुमानगढ़ (राजस्थान)

-०-
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अब लिखती नहीं कविताएँ (कविता) - सत्या शर्मा ' कीर्ति '

अब लिखती नहीं कविताएँ
(कविता)
कि आज कल मैं 
लिखती नहीं हूँ कविताएँ
क्योंकि रोप दिए हैं मैंने
उसके नन्हे बीजों को
अपने हृदय की उर्वरक भूमि में ।

जहाँ निकलते हैं रोज नाजुक से कोंपल,
चटकती हैं कलियाँ और खिलते हैं फूल
फिर महक सी जाती हूँ मैं
चम्पा और गेंदे की खुशबु से ।

सूरज की नन्ही सी
किरणें खेलती है जब उन पंखुड़ियों से
और सहलाती है शब्दों की
नई किसी पौध को
तो खिल सी जाती हूँ मैं और
फिर नहीं लिखती हूँ कविताएँ
रोप देती हूँ भावों को
देती हूँ पनपने
गुलमोहर की लताओं को

देखती हूँ छुप कर
आता है चन्दा
उतरता है पालकी से
और बिखेरता है रंग उन
नन्हे कोंपलों पर ।

और मैं मूंद लेती हूँ आँखे
बहने देती हूँ शब्दों को
अपनी ही सुगंधित बयार में

कई बार चुपके से आती है लहरें
छुप कर अपनी सखी नदियोंसे
और निखार देती भावों की
कच्ची पंखुड़ियों को
धो देती है उन पर पड़े निर्थक
जज्बातों को ।

हाँ , अब लिखती नहीं हूँ
कविताएँ, देती हूँ उन्हें
पनपने और खिल कर निखरने ।

फिर ....
उन्हें हौले से तोड़ कर
बनाती हूँ कोमल भावों की
एक खूबसूरत गुलदस्ते को।
-0-
सत्या शर्मा 'कीर्ति'
डी - 2 , सेकेंड फ्लोर महाराणा अपार्टमेंट,
पी. पी.कम्पाउंड, रांची - 834001 (झारखण्ड)
ईमेल:--satyaranchi732@gmai.com

-०-
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दीपावली (कविता) - डॉ.सरला सिंह 'स्निग्धा'



दीपावली
(कविता)
दीपावली पर्व पावन है सखी,
सब संदेश हैं इसमें समाहित ।
जनकल्याणपक्ष है मुखर यहाँ,
जीवन की उज्जवल मुस्कान ।
तिमिरचीर प्रकाश प्रकट होता,
सत्य रहा सर्वदा विजयी होता।
विजयी हुआ है सत्य जब तब ,
सज गई अयोध्या दुल्हन -सी ।
दीपों की मालाओं से सज गयी।
दर्प ने समेटा खुद को कहीं पर,
अहंकारी जमीं में जा मिला था।
दौलत न आयी थी काम उसके,
‌सहज, सत्य गौरवान्वित हुआ।
हर पर्व करता शिक्षित सदा ही,
सत्य पथ पर ही चलें हम सर्वदा।
हर घर का अंधेरा दूर करदें हम,
उजियारा जगे दूर हो अंधियारा।
-०-
डॉ.सरला सिंह 'स्निग्धा'
दिल्ली


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देखो तो स्कूल जाकर (बाल गीत) - डॉ. प्रमोद सोनवानी


देखो तो स्कूल जाकर
(बाल गीत)
करके जल्दी से तैयारी ,
स्कूल पढ़नें जायेंगे ।
चित्र बनें हैं जहाँ मनोहर ,
मन अपना बहलायेंगे ।।1।।

पुस्तक - कॉपी लेकर झटपट ,
सीधे स्कूल जाना है ।
ध्यान लगाकर सच्चे मन से ,
लिख - पढ़कर आ जाना है ।।2।।

कितना अच्छा मिलता भोजन ,
देखो तो स्कूल जाकर ।
खेल-कूद भी तरह-तरह के ,
देखो तो स्कूल जाकर ।।3।।
-०-
डॉ. प्रमोद सोनवानी
"श्री फूलेन्द्र साहित्य निकेतन"
तमनार/पड़िगाँव - रायगढ़
(छ.ग.) पिन - 496107


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