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Friday, 1 November 2019

दो लघुकथाएँ (लघुकथा) - गोविन्द शर्मा

पक्की छत्त
(लघुकथा)
वे पूरे पांच साल बाद उस बस्ती में वोट मांगने आये। कच्ची झौंपड़ियों में रहने वाले लोग उनके सामने घेर कर लाये गये थे। उन्होंने कहा- वह दिन दूर नहीं, जब तुम सबके सिर पर पक्की छत्त होगी...।
अभी वे अपनी बात पूरी नहीं कर पाए थे कि एक बोल पड़ा- यह वादा तो आपने पांच साल पहले भी किया था।
मैं भूला नहीं हूं। दो साल पहले मैंने इस पर काम भी षुरू कर दिया था। तुम्हें याद होगा, दो साल पहले मैंने तुम्हारी झौंपड़ियों के पास से निकलने वाले फ्लाई ओवर का शिलान्यास किया था। जब वह बनकर तैयार हो जायेगा, तब उसके ऊपर तो दूसरे लोगों की गाड़ियां फर्राटा भरेंगी, पर उसके नीचे तो तुम्हारी आबादी ही रहेगी। वह छत्त इतनी पक्की होगी कि उसका आंधी-तूफान तो क्या भूकंप भी कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। बजाओ ताली....।
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खोया वक्त
(लघुकथा)
सेवानिवृत्त बालाजी काफी देर से कुछ ढंूढ रहे थे। शायद चश्मा, कोई पुरानी किताब या आज का अखबार। उन्हें वह वक्त याद आने लगा, जब वे घर में नोटों की गड्डी लेकर आया करते थे। उन दिनों उनके मुंह से निकलता- ‘अरे मेरा चश्मा कहां है’ तो कई आवाजें एक साथ सुनने को मिलती। जैसे- मैं देखती हूं, मैं लाकर देता हूं, वह रहा दादू आदि आदि। अब वे कुछ भी कहें ,कोई नहीं सुनता। आज भी यही हो रहा था तो मोबाइल पर झुके एक पोते ने पूछ लिया- क्या ढूंढ रहे हो दादू?
उन्होंने तलाश जारी रखते हुए कहा-अपना खोया हुआ वक्त ढूंढ रहा हूं।
पता नहीं, पोते ने सुना या अपनी ही धुन में कहा- दादू, आराम से बैठो। खटपट बंद करो। इस उम्र में खोई हुई चीजें मिलती नहीं है।
-०-
गोविन्द शर्मा
ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया - 335063
जिला हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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