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Sunday, 5 April 2020

दीप धरो तुम द्वारे (कविता) - अर्विना


दीप धरो तुम द्वारे

(कविता)
हर्षित मन से सारे
दीप धरो तुम द्वारे द्वारे 
रोशन पथ हो सारे 
पूरी हो अभिलाषा 
सब बंध कटे सारे
मुक्त हो हम घर से
रुके न धरती की धूरी 
मिटा जाये बीच की दूरी
भाई से भाई मिले सारे
रोशनी पग को निहारे 
हर हथेली में दीप ललकरे 
भाग जा तम विस्वास जागा रे 
दीप धरो तुम द्वारे द्वारे
-०-
पता:
अर्विना
प्रयागराज (उत्तरप्रदेश)
-०-

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दीपोत्सव (कविता) - सूबेदार पाण्डेय 'आत्मानंद'

दीपोत्सव
(कविता)
इन दुख की काली रातों में,दीपों से धरा सजाना है।
कोई कोना छूटे ना,इस तम को जंग से मिटाना है।
तन को मन को आलोकित कर,जग आलोकित कर जाना है।
जो अंधेरों में मन मारे बैठे हैं,इक आस दीप जलाना है।।१।।इन दुःख।।

जीवन की अंधेरी ‌राहों में, कांटों के उपर चलनां है।
उम्मीदों का जला‌ के एक दिया,हर खतरे से बच के निकलना है ।
ना ठोकर खाये कोई राह में ,दीपक बाती सा जलना है।
कर्मों के पथ आलोकित हो,हर दिल में उजाला करना है।।२।।इन दुख की।।
नीले अंबर की छांव में, दुख से कातर हर गांव में।
बांधे घुंघरू पांवों में छम छम नाच दिखाना है ।
ना दुखिया हो जीवन में कोई, खुशियों के गीत सुनाना है।
हर तरफ खुशी के रेले हो, हर दिल का साज‌ बजाना है।। ३।।इन दुख की।।
खेतों में खलिहानों में, झोपड़ियों महलों के कंगूरों पे।
हर मंदिरों के कलशोंपे,हर मस्जिद की मीनारों पे।
हर तरफ रोशनी फैली हो, दीपों से टिम टिम लड़ियों के।
कहीं अंधेरे रह ना पायें चर्चों और गुरूद्वारों में।।४।। ।।। इन दुःख।।।
हर तरफ खुशी के मंजर हो,ना जंग में गम का अंधेरा हो।
आशा की किरणें फूट पड़े,हर जीवन में नया सबेरा हो।
आओ मिलकर खुशियां बांटें, हिम्मत है सबको बधाई हो।।५।।इन दुःख की।।
-०-
पता:
सूबेदार पाण्डेय 'आत्मानंद'
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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मेरी आंखों का तारा (कविता) - ओमप्रकाश मेरोठा 'ओप'

मेरी आंखों का तारा
(कविता)
- मां अपने बेटे से कहती है -
मेरी आंखों का तारा ही मुझे आंखें दिखाता है
जिसे हर एक खुशी दे दी वो हर गम से मिलाता है
जुबां से कुछ कहूं किससे कहूं कैसे कहूं , मां हूं
शिकाया बोलना जिसको वो अब चुप रहना सिखाता है
सुला कर सोती थी जिसको वो रातभर जगाता है
सुनाई लोरियां जिसको वो अब ताने सुनाता है
सिखाने में उसे कुछ कमी मेरी रही यह सोंचू
जिसे गिनती सिखाई, गलतियां मेरी सुनाता है

तुम गहरी छांव है अगर जिंदगी एक धूप है मां
धरा पर कब कहां तुझसा कोई स्वरूप है मां
अगर ईश्वर कहीं पर है तो उसे देखा है किसने
धरा पर तो तू ही " ईश्वर "को ही रूप है मां
ना ये उंचाई सच्ची है ना ये आधार सच्ची है
ना कोई चीज है सच्ची, ना ये संसार सच्चा है
मगर धरती से अंबर तक , युगों से लोग कहते हैं
अगर सच्चा है कुछ जग में तो , वो मां का प्यार सच्चा है

जरा सी देर होने पर सभी से पूछती है मां
पलक झपके बिना दरवाजा घर का ताकती है मां
हर एक हाहट पे उसका चौक पडना , फिर दुआ देना
मेरे घर लौट आने तक , बराबर जागृति मां
सुलाने के लिए मुझको , खुद जागी रही मां
शराने से पैर तक अक्सर मेरे बेटी रही मां
मेरे सपनों में परियां , फूल तितली भी तभी तक थे
मुझे आंचल में अपने लेके जब लेठी रही मया

- मां की हिम्मत देखिए -
बड़ी छोटी रकम से घर चलाना जानती थी मां
कमी थी पर बड़ी , खुशियां जुटाना जानती थी मां
मैं खुशहाली में भी रिश्तो में बस दूरी बना पाया
गरीबी में भी हर रिश्ता निभाना जानती थी मां

की, लगा बचपन में यूं अक्सर अंधेरा ही मुकद्दर हैं
मगर मां हौसला देकर , यूं बोली तुमको क्या डर है
कोई आगे निकलने के लिए रास्ता नहीं देगा
मेरे बच्चों बढ़ो आगे तुम्हारे साथ ईश्वर हैं
किसी के जख्म ये दुनिया , तो अब सिलती नहीं ये मां
कल्ली दिल में कहीं अब प्रीत की खिलती नहीं मां
में अपनापन ही अक्सर ढूंढता रहता हूं रिश्तो में
तेरी " निश्चल " सी ममता तो कहीं मिलती नहीं मां
दुनियां की हर खुशी हे मा -
गमों की भीड़ में जिसने हमें हंसना सिखाया था
वो जिसके दम से तूफानों ने अपना सर झुकाया था
किसी भी जुल्म के आगे , कभी " झुकना "नहीं बैठे
"Op "की उम्र छोटी है ये मुझे मां ने सिखाया था
भरे घर में तेरी हाहट कहीं मिलती नहीं मां
तेरे हाथों की नरमाहट कहीं मिलती नहीं मां
मैं तन पर लादे फिरता हूं , दूसाले रेशमी " लेकिन "
तेरी गोदी से गर्माहट , कहीं मिलती नहीं मां
स्वर्ग में भी तेरी जैसी , ममता नहीं मिलती मां
बस तू पास रहे मेरे , तो स्वर्ग दिखाई देता हे मां,,,,
-०-
पता:
ओमप्रकाश मेरोठा 'ओप'
बारां (राजस्थान)
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एक दिया जलाएंगे (कविता) - रूपेश कुमार

एक दिया जलाएंगे
(कविता)
भारत को कोरोना मुक्त बनाएंगे ,
हम भारत वासी हर घर मे दिया जलाएंगे ,

हर भारत वासियो को सलामत रखना सिखायेंगे ,
हर क्षण को देश के नाम जीवन देंगे ,

हम सभी सामाजिक दूरियों का पालन करेंगे ,
जीवन को महामारी से स्वयं एव समाज को बचाएंगे ,

समाज मे जागरुकता एव ज्ञान का दिपक जलाएंगे ,
बिमारियों से सभी से दूर भगायेंगे ,

विश्व मे अपना भारत का नाम ऊचाँ करायेंगे ,
कोरोना से जीत कर हम विश्व को दिखलायेंगे ,

हम सभी भारत के सेना, पुलिस , डॉक्टर साथ-साथ हाथ बढ़ाएँगे ,
जीवन को कोरोना मुक्त स्वयं एव समाज से करायेंगे ,

घर मे रहकर लॉक डाउन का पालन जी - जान से करेंगे ,
ना घर से निकलेंगे और ना समाज को घर से निकलने देंगे !
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पता:
रूपेश कुमार
चैनपुर,सीवान बिहार
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जीवन यथार्थ (कविता) - प्रीति चौधरी 'मनोरमा'

जीवन यथार्थ 
(कविता) 
दुर्गंध युक्त वातावरण है बहुत
सड़कों पर चीरहरण है बहुत।

वास्तविक रूप कैसे देखें मनुज का,
नीयत पर ढका आवरण है बहुत।

वही करुण क्रंदन ,वही मन का रुदन,
जहाँ जीवन है, वहाँ मरण है बहुत।

जीवन की थकन अब विश्राम चाहे,
करता कोमल तन भ्रमण है बहुत।

शान्ति चैन अमन सब कल्पना की बातें,
प्रतिदिन जीवन में अब रण है बहुत।

जल वायु , मृदा सर्वस्व प्रदूषित,
मैला हुआ प्रकृति का कण- कण है बहुत।

मृत आशाओं का संग्रहालय सा जीवन,
मृगतृष्णा के पीछे विचरण है बहुत।

प्रसन्नता मां बाप के घर छोड़ आये प्रीति,
पराये देश में उदासी के कारण है बहुत।।
-०-
पता

प्रीति चौधरी 'मनोरमा'
बुलन्दशहर (उत्तरप्रदेश)
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बेटी (कविता) - गरिमा

बेटी

(कविता)
बेटी नहीं पराया धन नहीं
बेटी पावन दुआएँ है
माँ की आस है बेटी
पापा का दुलार है बेटी
जो आने अपर थकान उतार दे बेटी
ऐसी भोली सी पहचान है बेटी
बेटी न हो तो घर है सूना
घर की पहचान है बेटी
हर रंग में रगने वाली
सबके दिलो की जान है बेटी
फिर क्यों बेटी को न समझा जाता
क्यों पैरों से रोंदी जाती
क्यों उनका दर्द न समझा जाता
जब होती है वो विदा घर से
क्यों पापा का दिल भर जाता
ससुराल में क्यों नहीं समझा जाता
बेटी बहु बनते ही
क्यों उनका मान न होता
बेटी और बहु में क्या अंतर
बेटी जब होती पापा के घर में
तो माँ क्यों कहती बेटी है पराया धन
बेटी कभी परायी न होती
दोनों घर का मान है बेटी
बेटी को न समझो कम

सबका है मान है बेटी
-०-
पता:
गरिमा
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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