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Saturday 4 January 2020

पोती के जन्म पर "उद्गार" (कविता) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे


पोती के जन्म पर "उद्गार"
(पद्य)

प्यारी इक पोती मिली,बनकर के उपहार ।
मौसम मुस्काने लगा,खिलने लगी बहार ।।

जीवन के ये पल मधुर,लाये खुशियां संग ।
आई देवी घर "शरद",ले चोखे-नव रंग ।।

"सिया" नाम सुकुमार का,है सचमुच वरदान ।
परम पिता की है दया,बढ़ा हमारा मान ।।

भाग्य हमारा है प्रबल,गूंजा मंगलगान ।
नाज़ुक बिटिया अंक में,मिला हमें उत्थान ।।

बिटिया की किलकारियां,बिखर रहा आशीष ।
सांईजी ने कर दिया,उन्नत सबका शीश।।

"स्वप्निल" को गरिमा मिली,पाया जो मातृत्व ।
अब "प्रतीक" हरसा रहा, फलीभूत पितृत्व ।।

बेटी घर में स्वर्ग का, कर देती निर्माण ।
बेटी से ही वंश को ,मिलते सचमुच प्राण ।।

बेटी तो है लक्ष्मी,बेटी दुर्गा-रूप ।
सरस्वती का तेज ले,देती मोहक धूप ।।

"सिया" रूप देवत्वमय, "वैदेही" अवतार ।
नया उगेगा भास्कर,होगा नव संसार ।।

सत्व,साधना,दिव्यता,होते बेटी संग ।
युग -युग घर में रोशनी,इंद्रधनुषिया रंग ।।

"शरद" और "नीलम" बने,दादू- दादी आज ।
लगता है हम पा गये,तीन लोक का राज ।।

यह देवी तो नूर है,मंगलमयी विधान ।
महकाने घर आ गई,ले खुशहाली गान ।।

फलीभूत सारी दुआ,तब पाई सौगात ।
सचमुच पोती रूप में ,है धन की बरसात ।।

चाहत अब पूरी हुई,थिरक रहे अरमान ।
"सिया" हमारी जान अब,और हर्ष सामान ।।

यही कामना हो बड़ी,ले प्रभुता निज साथ ।
मैहर वाली थामना,रखना सिर पर हाथ ।।

ख़ानदान आनंद में,हैं ऊंचे आयाम ।
'सिया' संग अब वंश को,मिलना तय,नव नाम ।।
-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मप्र)
-०-

***
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विदाई आपको ! 2019 जी (कविता) - सुरेश शर्मा


विदाई आपको ! 2019 जी
(कविता)
कल रात मैने पूछा 2019 जी से,
"जा रहे हो आप आज ? 
विदाई ले रहे हो हमसे आप !
आप खुशी -खुशी जाओ । "
साथ मे आपसी रंजिश और ,
दुश्मनी को भी साथ ले कर जाना ।

हम सभी के लिए फूलो सी खुश्बू 
और मुस्कुराहट बिखेरते हुए जाना ।
दोस्तो के साथ दोस्ती बरकरार रहे
ऐसा हम सभी के लिए दुआ दे जाना ।

चारों तरफ सुख शांति और खुशी हो
ऐसा माहौल हमे सौगात मे देकर जाना ।
अगर हमसे कोई गलती हो गई हो तो,
सारे शिकवे गिले भुलाकर हमे माफ कर जाना ।

अमीर -गरीब ,लंगरा -बहरा ,काला-गोरा
सभी एक-दूसरे के काम आ सके
सभी एक-दूसरे के साथ कंधे से कंधा
मिलाकर रहे सके ऐसा तू कोई चमत्कार कर जाना ।
-०-
सुरेश शर्मा
गुवाहाटी,जिला कामरूप (आसाम)
-०-

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नव वर्ष (कविता) - दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'

नव वर्ष
(कविता)
"नव वर्ष नया साल"
आओ आओ हे नव वर्ष 2020
रहे न कोई किसी से उन्नीस
तेरा स्वागत करते हैं हम
पाकर खुशियां भूलाकर गम
सारे मिल नाचे गाएं ,गाये मुन्ना मुनिया
खुश रहे हैं सभी देश हो चाहे दुनिया
नये साल का है एक ही सपना
खुश हाल रहे सारा देश अपना
प्रेम एकता भाईचारा हो सदा
गम रहे कम खुशियां ज्यादा
बच्चे सब मिलकर नाचे गायें
नाचे गाए सभी खुशियां मनाएं
आता नवबर्ष साल में एक बार
खुशी मनाते मिलकर सभी नर नार
है ये त्यौहार बड़ा ही अजब अनोखा
प्रेम भाव से रहे सभी हो न कोई धोखा
सब मिल कुछ नया करें
दिल से दिल की बात करें
भूल जाएं पुरानी बातें
खट्टी मीठी सब जज्बाते ,
"दीनेश" सब मिलकर कुछ ऐसा करें
एक दूजे से प्यार करें
रहे सब मिलकर ,यही सब दुआ करें
आओ मिलकर नववर्ष का स्वागत करें -०-
पता: 
दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
-०-


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नववर्ष स्वागत (कविता) - पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'

नववर्ष स्वागत
(कविता)
नवल भोर , नव किरण,
नव मेघ है नूतन धरा,
जीवन का है गीत नया ,
सुन रे मोरे मन मितवा
नव पात है नव परिधान
सरसों के खेतों की शान,
नव भोर का नव विधान 
बीत गए सब वो वादे,
बीता साल बीती घडियां,
आओ आज हम जोड़े
जीवन की नव कड़ियाँ।
-०-
पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'
नागपुर (महाराष्ट्र)
-०-

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◆ धुंध◆ (कहानी) - अलका 'सोनी'

◆ धुंध◆
(कहानी)
दूसरे बच्चों की तरह मिनी भी चाहती थी कि वह भी बाहर घूमे-फिरे म त्यौहारों में लगने वाले मेलों का जी -भर आनंद ले। लेकिन उसकी मां उसे कहीं भी नहीं जाने देती थी। कहीं बाहर जाना भी पड़े तो कार के शीशे चढ़ाकर जाते थे वो लोग। मिनी चाहती थी कि कार के शीशे खोलकर वह बाहर हो रही बरसात का आनंद अपनी हथेली पर पड़ती बूंदों की ठंडक से महसूस करे। जब मेले लगे तो अपने दोस्तों के साथ खूब मस्ती करे। परन्तु ऐसा उसे करने नहीं मिलता था और वो मन मसोस के रह जाती थी। एक दिन उसका बाल सुलभ मन विद्रोह कर बैठा और उसने ज़िद पकड़ ली कि वो मेले में जाएगी तो बस जाएगी। उसके माता-पिता उसे कितना समझाये लेकिन वो नहीं मानी। अन्ततः सभी मेला जाने की तैयारी करने लगे।
उधर उसकी मां अपने पर्स में " मास्क " और जरूरी दवा रखने लगी। वो किसी अनहोनी की आशंका से भयभीत लग रही थी। सभी मेले में पहुंचे।
वहाँ चारो तरफ मौजूद भीड़, तेज़ परफ्यूम की गंध, पुराने तेल में पकते पकवान, लोगों के पैरों से उड़ती हुई धूल और जगह-जगह फेंके पॉलीथिन के बैग देख उनका मन खिन्न हुआ जा रहा था। मिनी को उसकी मां ने मास्क लगाने को कहा, लेकिन मेले देखने की ख़ुशी में वो अनदेखा करती रही अपनी मां को। थोड़ी देर में वो सब मेले के मुख्य भाग में पहुंचे। अंदर की तरफ, और ज़्यादा भीड़, और ज़्यादा गन्दगी थी। इस प्रदूषण का मिनी पर बुरा प्रभाव पड़ना शुरू हो गया और वह खाँसने लगी।धीरे - धीरे उसकी खांसी बढ़ने लगी, चेहरा लाल हो गया। जब तक वह मास्क पहनती, उसे उल्टी आना शुरू हो गई। आनन-फानन में उसके पिता उसे गाड़ी में लेकर हॉस्पिटल ले जाने लगे।
पूरा शहर मेले की खुमारी में था और वे उसे लेकर मेले की विपरीत दिशा में शहर के बड़े हॉस्पिटल की ओर जा रहे थे। जाते -जाते रात के 2 बज चुके थे। इमरजेंसी में मिनी को एडमिट कराना पड़ा। अंदर उसका इलाज हो रहा था और बाहर आकाश में धूल की एक परत सी जमती जा रही थी। जो अपनी मटमैली धुंध में शहर को लील रही थी।-०-
अलका 'सोनी'
बर्नपुर- मधुपुर (झारखंड)

-०-

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माँ और मैं (कविता) - डॉ अवधेश कुमार अवध

माँ और मैं
(कविता)
मेरे सर पे दुवाओं का घना साया है।
ख़ुदा जन्नत से धरती पे उतर आया है।।

फ़कीरी में मुझे पैदा किया, पाला भी।
अमीरी में लगा मुँह - पेट पे, ताला भी।।

रखा हूँ पाल, घर में शौक से कुत्ते, पर।
हुआ छोटा बहुत माँ के लिए, मेरा घर।।

छलकती आँख के आँसू, छुपा जाती है।
फटे आँचल में भरकर के, दुवा लाती है।।

अवध, माँ इश्क है, रूह है, करिश्माई है।
कहाँ कब लेखनी, माँ को समझ पायी है!
-०-
डॉ अवधेश कुमार अवध
गुवाहाटी(असम)
-०-


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'कुर्सी' (हास्य व्यंग्य कविता) - ओम प्रकाश कताला

'कुर्सी'
(हास्य व्यंग्य कविता)
चार पैरों वाली मैं
मुझसे वजन सहा ना जाए।
सारा दिन बैठे रहते मुझ पर,
दो आंक की सीख दी ना जाए।
भाग्यवान की आवली हम दोनों,
पता नहीं क्यों ?आराम मुझको ना भाए ।
चार पैरों वाली मैं
मुझसे वजन सहा ना जाए।
श्यामपट्ट मुझको कहता, तुम बिगड़ाए ,
मेरा मुखड़ा धोने में सब हिचकाए ।
मैं लाचार, मेरा उलाहना, तुमको ना भाए,
सब कहते दूरभाष है, जो सबको बिगड़ाए ।
चार पैरों वाली मैं
मुझसे वजन सहा ना जाए।
सारा दिन बैठे , फिर भी ना शरमाए,
बिजली तेरी धन्यवादी , जो चली जाए ।
क्षणभर सांस लेकर, कमर मेरी सहलाए ,
कैसा है ? यह, फिर भी ना शरमाए ।
चार पैरों वाली मैं
मुझसे वजन सहा ना जाए।
खिड़की जंगले सब कहते,गवाह हम बन जाए,
सहमें दुबके ये बच्चे, कुछ कह ना पाए।
फूल, पत्ते, पेड़, पौधे सब एक हो जाए,
आया कालांश, खुश हुए ,सबको मन भाए ।
चार पैरों वाली मैं
मुझसे वजन सहा ना जाए।
-०-
ओम प्रकाश कताला
सिरसा (हरियाणा)
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तुम्हारी याद का हरदम (ग़ज़ल) - अमित खरे

तुम्हारी याद का हरदम
(ग़ज़ल)
तुम्हारी याद का हरदम खजाना साथ रहता है
फकत तुम ही नहीं रहते जमाना साथ रहता है

तमन्ना तो वह भी रखता है हमारे पास आने की
मगर मजबूरियाँ कुछ हैं बहाना साथ रहता है

मजा आता है अक्सर उठने में और मनाने में
किसी के रूठने में भी मनाना साथ रहता है
हुए हम बेवजह बदनाम उनसे दिल लगाकर के
वह आते हैं कभी मिलने तो जाना साथ रहता है

उसी की जिंदगी कटती 'अमित 'दुख दर्द में देखी
किसी की जिंदगी में जब बेगाना साथ रहता है
-०-
अमित खरे 
दतिया (मध्य प्रदेश)
-०-




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सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

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पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

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सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

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