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Saturday 4 January 2020

'कुर्सी' (हास्य व्यंग्य कविता) - ओम प्रकाश कताला

'कुर्सी'
(हास्य व्यंग्य कविता)
चार पैरों वाली मैं
मुझसे वजन सहा ना जाए।
सारा दिन बैठे रहते मुझ पर,
दो आंक की सीख दी ना जाए।
भाग्यवान की आवली हम दोनों,
पता नहीं क्यों ?आराम मुझको ना भाए ।
चार पैरों वाली मैं
मुझसे वजन सहा ना जाए।
श्यामपट्ट मुझको कहता, तुम बिगड़ाए ,
मेरा मुखड़ा धोने में सब हिचकाए ।
मैं लाचार, मेरा उलाहना, तुमको ना भाए,
सब कहते दूरभाष है, जो सबको बिगड़ाए ।
चार पैरों वाली मैं
मुझसे वजन सहा ना जाए।
सारा दिन बैठे , फिर भी ना शरमाए,
बिजली तेरी धन्यवादी , जो चली जाए ।
क्षणभर सांस लेकर, कमर मेरी सहलाए ,
कैसा है ? यह, फिर भी ना शरमाए ।
चार पैरों वाली मैं
मुझसे वजन सहा ना जाए।
खिड़की जंगले सब कहते,गवाह हम बन जाए,
सहमें दुबके ये बच्चे, कुछ कह ना पाए।
फूल, पत्ते, पेड़, पौधे सब एक हो जाए,
आया कालांश, खुश हुए ,सबको मन भाए ।
चार पैरों वाली मैं
मुझसे वजन सहा ना जाए।
-०-
ओम प्रकाश कताला
सिरसा (हरियाणा)
-०-

***
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