मचल कर मेरा बेटा आ बैठा मेरे कंधे पर।
झूमा ऐसे मानो जमा आसन आसमान पर।।
पापा मैं तो आप से भी ऊँचाई पर आ गया।
कंधे पर बैठ कर ही सबसे ताकतवर हो गया।।
मेरे अंतर्मन में यूँ ही एक विचार पनप उठा।
बेटा यह तेरी नहीं शायद तेरे हृदय की है व्यथा।।
जब तक तू बैठा है मेरे इन बलिष्ठ कंधों पर।
महसूस करेगा तो खुद को इस धरा से ऊपर।।
किंतु जब तू इस धरातल की नींव पर आएगा।
बेटा तुझे हकीकत का अंदाजा यूँ ही हो जाएगा।।
खुद के पग पर खड़े होकर जब तू छू लेगा ऊँचाई।
नहीं रह पाएगी शायद यह प्रसन्नता तुझमें ही समाई।।
तात के कंधे तो होते ही हैं नभ के उमड़ते बादल।
जो छुपा कर रखते हैं मोती बूंदों के अपने अविरल।।
बाप का नाम ही अमूल्य धन है जीवन सुखी रहने को।
तपता दोपहरी फिर भी है छाँव बरगद-सा संतान को।।
जिस दिन यह साया हटेगा तेरे इस सुंदर सदन से।
हट जाएगा ये स्नेह आवरण तेरे प्रफुल्लित जीवन से।।
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सूर्य प्रताप राठौर
सांगली (महाराष्ट्र)
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